पपीता की खेती

पपीता अपने उच्च पौष्टिक और औषधीय मूल्यों के लिए प्रसिद्ध है। यह एक लोकप्रिय फल है। यह अन्य फलों की फसल की तुलना में जल्दी तैयार हो जाता है। पपीता का पेड़ एक वर्ष से भी कम समय में फलों का उत्पादन करता है और फलों का उत्पादन प्रति इकाई क्षेत्र में काफी अधिक होता है। एक ओर जहाँ कच्चा पपीता सब्जी बनाने के उपयोग में लिया जाता है, वहीं दूसरी ओर पका फल सीधे खाने के लिये उपयोग किया जाता हैं। पपीते से प्रसंस्कृत उत्पाद जैसे जैम, सिरप, मुरब्बा, कैंडी एवं अचार इत्यादि बनाये जाते हैं। पपीते के दूध को सुखा कर पेपेन तैयार किया जाता है जो कि पाचन क्रिया को दुरूस्त करने हेतु दवाई बनाने के काम आता है। इसका उपयोग चमड़े उद्योग में भी किया जाता हैं।


पपीता

पपीता उगाने वाले क्षेत्र

इसकी बागवानी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा, केरल आदि राज्यों में सफलतापूर्वक की जाती है। पपीता की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु चाहिए- पपीता एक उष्णकटिबंधीय फसल है जो उच्च तापमान और उच्च आर्द्रता को अनुकूल होती है। अच्छी गुणवत्ता और स्वाद के लिए लंबे दिन अनुकूल होते हैं। फूलों के दौरान, ज्यादा बारिश हानिकारक होती है और ज्यादा नुकसान होता है। पपीता 15C-30C के तापमान रेंज में अच्छी तरह से बढ़ता है। लू तथा पाले से पपीते को बहुत नुकसान होता है। इनसे बचने के लिए खेत के उत्तरी पश्चिम में हवा रोधक वृक्ष लगाना चाहिए पाला पडने की आशंका हो तो खेत में रात्रि के अंतिम पहर में धुंआ करके एवं सिचाई भी करते रहना चाहिए।

पपीता की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

पपीता न केवल स्वाद में बल्कि कई पोषक तत्वों जैसे कैरोटीन, विटामिन सी और फ़्लवोनोइद्स (flavonoids) के रूप में एंटीऑक्सीडेंट पोषक तत्वों से समृद्ध हैं; विटामिन बी, फोलेट और पंतोथेनिक (pantothenic) एसिड; और खनिज, पोटेशियम, तांबा, और मैग्नीशियम; और फाइबर आदि से परिपूर्ण है।

बोने की विधि

पपीते के पौधे पहले रोपणी में तैयार किये जाते है, पौधे पहले से तैयार किये गढ्ढे में जून, जुलाई में लगाना चाहिए, जंहा सिंचाई का समूचित प्रबंध हो वंहा सितम्बर से अक्टूबर तथा फरवरी से मार्च तक पपीते के पौधे लगाये जा सकते है। खेत को अच्छी तरह जोंत कर समतल बनाना चाहिए तथा भूमि का हल्का ढाल उत्तम है, मिट्टी के प्रकार के आधार पर भूमि की 1 या 2 बार जुताई करें। रोपाई 60x60x60 सेमी आकार के गड्ढों में लगाई जाती है। 2 X 2 मीटर के अन्दर पर लम्बा, चौडा, गहरा गढ्ढा बनाना चाहिए, इन गढ्ढों में 20 किलो गोबर की खाद, 1 किलो नीम केक से भरे 500 ग्राम सुपर फास्फेट एवं 250 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश को मिट्टी में मिलाकर पौधा लगाने के कम से कम 10 दिन पूर्व भर देना चाहिए। पपीता का बाग स्थापित करने के लिए पौधो की आपसी दुरी - रोपाई 60x60x60 सेमी आकार के गड्ढों में लगाई जाती है। पौधे के बीच की दूरी और पौधों की संख्या दो पंक्ति के बीच की दूरी 6.0 फुट और दो पौधों के बीच का अंतर 6.0 फुट पौधों की संख्या - 1,222 प्रति एकड़ उच्च घनत्व रोपाई - दो पंक्ति के बीच की दूरी 5.0 फुट और दो पौधों के बीच का अंतर 5.0 फुट पौधों की संख्या - 1,760 प्रति एकड़ एक हेक्टेयर खेती में प्रति गढ्ढे 2 पौधे लगाने पर 5000 हजार पौध संख्या लगेगी।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

जमीन उपजाऊ हो तथा जिसमें जल निकास अच्छा हो तो पपीते की खेती उत्तम होती है, जिस खेत में पानी भरा हो उस खेत में पपीता कदापि नही लगाना चाहिए क्योकि पानी भरे रहने से पोधे में कॉलर रॉट बिमारी लगने की सम्भावना रहती है, अधिक गहरी मिट्टी में भी पपीते की खेती नही करना चाहिए। यह कार्बनिक पदार्थों से भरपूर ढीली, तली, अच्छा पानी का ड्रेनेज, रेतीले दोमट मिट्टी में ये फसल सबसे अच्छा बढ़ता है। जड़ सड़न बीमारी से बचने के लिए एक समान बनावट की अच्छी तरह से पानी का ड्रेनेज होने वाली मिट्ठी ज्यादा पसंद करते है। पपीता की नर्सरी तैयार करने की विधि - 1. क्यारी विधि - इस विधि द्वारा बीज पहले भूमि की सतह से 15 से 20 सेमी. उंची क्यारियों में कतार से कतार की दूरी 10 सेमी, तथा बीज की दूरी 3 से 4 सेमी. रखते हुए लगाते है, बीज को 1 से 3 सेमी. से अधिक गहराई पर नही बोना चाहिए, जब पौधे करीब 20 से 25 सेमी. उंचे हो जावें तब प्रति गढ्ढा 2 पौधे लगाना चाहिए। 2. पोलीथिन बैग द्वारा - पोलीथिन बैग में 2 बीज को एक सेमी से अधिक गहराई पर न बोए। पोलीथिन बैग को शेड में रखे। कैन की मदद से पानी दे सकते है। पौधे लगभग 60 दिनों में तैयार हो जायेंगे। 3. प्रो-ट्रे - कोको पीट पानी में भिगोए। मिट्टी और अच्छी तरह से विघटित गोबर खाद को चलें। 5 किलो कोको पीट + 2.5 किलो मिट्टी और गोबर खाद मिश्रण + 100 ग्राम ट्राइकोडर्मा + 100 ग्राम 19:19:19 मिलाएं और प्रो-ट्रे में भरें। प्रति सेल में एक बीज बोयें। प्रो ट्रे शेड मैं रखे। नियमित रूप से दिन में दो बार पानी दें। पौधे लगभग 60 दिनों में तैयार हो जायेंगे।

बीज की किस्में

पपीता के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

1. रेड लेडी - ऋतू खरीफ, रबी और गर्मी उत्पादन 550.0 क्विंटल/एकड़ प्रमुख विशेषताएँ - लाल मांसल फल औसतन 1.5 से 2.0 किग्रा। अच्छी मिठास। जमीन से औसतन 70 सेमी ऊपर फल सेट करता है। पपीता रिंगस्पॉट वायरस के प्रति सहनशील है । बीज से औसतन नौ महीने में फल मिलता है। प्रथम वर्ष का उत्पादन दूसरे वर्ष के उत्पादन से ज्यादा आता है। 2. अर्का प्रभात - ऋतू खरीफ, रबी और गर्मी उत्पादन 600.0 क्विंटल/एकड़ प्रमुख विशेषताएँ - औसतन फलों का वजन 900-1200 ग्राम है, टीएसएस 13-14 ब्रिक्स है और प्रति पौधा उपज 90-100 किलोग्राम है। अच्छी तरहसे रख सकते है। 3. वॉशिंग्टन - ऋतू खरीफ, रबी और गर्मी उत्पादन 500.0 क्विंटल/एकड़ प्रमुख विशेषताएँ - पीले पल्प, 12 ब्रिक्स टीएसएस, मध्यम रखने की गुणवत्ता के साथ औसत वजन पर 1 किलो से 1.2 किलोग्राम। इसकी उपज लगभग 60 किग्रा/पौधा होती है। 4. पुसा नन्हा - उत्पादन 600.0 क्विंटल/एकड़ प्रमुख विशेषताएँ - यह उच्च घनत्व वाले रोपण (प्रति हेक्टेयर 6400 पौधे) के लिए उपयुक्त, 106 सेमी की ऊँचाई वाला एक द्विलिंगी किस्म है। इसकी उपज लगभग 10 किग्रा/पौधा होती है। 5. पूसा डेलिशियस- यह पपीता की एक गाइनोडायोशियस किस्म है| इसके पौधे मध्यम ऊँचाई और अच्छी उपज देने वाले होते हैं| यह एक अच्छे स्वाद, सुगन्ध एवं गहरे नारंगी रंग का फल देने वाली किस्म है| जिसकी औसत उपज 58 से 61 किलोग्राम प्रति पौधा तक होती है| इस किस्म के फल का औसत वजन 1.0 से 2.0 किलोग्राम होता है| पौधों में फल जमीन की सतह से 70 से 80 सेंटीमीटर की ऊँचाई से लगना प्रारम्भ कर देते हैं| पौधे लगाने के 260 से 290 दिनों बाद इस किस्म में फल लगना प्रारम्भ हो जाते है। 6. पूसा मैजेस्टी- यह पपीता की एक उत्तम किस्म है| यह भी गाइनोडायोशियस किस्म है, जो पपेन उत्पादन के लिए उपयुक्त है और को- 2 के समतुल्य है| इसके फल मध्यम आकार के गोल एवं अच्छी भण्डारण क्षमता वाले होते हैं| पकने पर इसका गूदा ठोस एव पीले रंग का होता है तथा एक पेड़ से 40 किलोग्राम फल प्राप्त होते है| इसके गूदे की मोटाई 3.5 सेंटीमीटर होती है| यह प्रजाति सूत्रकृमि अवरोधी है। 7. पूसा जायन्ट- इस पपीता किस्म का पौधा मजबूत, अच्छी बढ़वार वाला और तेज हवा सहने की क्षमता रखता है| यह भी एक डायोशियस किस्म है| फल बड़े आकार के 2.5 से 3.0 किलोग्राम औसत वजन के होते हैं, जो कैनिंग उद्योग के लिए उपयुक्त हैं| प्रति पौधा औसत उपज 30 से 35 किलोग्राम तक होती है| यह किस्म पेठा और सब्जी बनाने के लिये भी काफी उपयुक्त है।

बीज की जानकारी

पपीता की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज दर - 100-120 ग्राम प्रति एकड़ एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

पपीता का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

पपीता की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

पपीता की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। पपीता मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिश की गयी। पपीता की फ़सल में खाद एवं उर्वरक कैसे डालें-एक पौधे को वर्षभर में रोपण के बाद प्रति पेड़ 200:200:200 ग्राम एनपीके डाले। इसे छ: बराबर भाग में बांट कर प्रति 2 माह के अंतर से खाद तथा उर्वरक देना चाहिए खाद तथा उर्वरक को मिट्टी में मिलाकर देकर सिंचाई करना चाहिए। उपर का खाद को 4 बराबर भागों में विभाजित करके रोपण के बाद 1,3,5,7 महीने बाद दे। रोपण के 1 महीने बाद- 19:19:19 @ 250 ग्राम प्रति पौधा दे। रोपण के 3 महीने बाद- 19:19:19 @ 250 ग्राम प्रति पौधा दे। रोपण के 5 महीने बाद- 19:19:19 @ 250 ग्राम प्रति पौधा दे। रोपण के 7 महीने बाद- 19:19:19 @ 250 ग्राम प्रति पौधा दे। पपीता की फ़सल सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता की पूर्ति -पपीते की वानस्पतिक वृद्धि और उपज को बढ़ाने के लिए रोपण के 30, 45, 60 दिन बाद जीए 3 @ 200 पीपीएम (1 लीटर पानी में 1 मिली) का छिड़काव करें। जल विलेय उर्वरकों जैसे 19:19:19 को सिंचाई जल के साथ ड्रिप में देने से उर्वरक की बचत के साथ साथ उसकी उपयोग क्षमता में भी वृद्धि होती है तथा पौधों को आवश्यकतानुसार एवं शीघ्र पोषक तत्व उपलब्द्ध होने से उपज तथा गुणवत्ता दोनों में वृद्धि होती है |

जलवायु और सिंचाई

पपीता की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

👉पपीता उथली जड़ वाला पौधा है अतः उसे अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जलभराव को सहन नहीं कर सकता अतः पपीते में कम दिनों के अंतराल पर हल्की सिंचाई करते हैं। 👉गर्मी में 4 से 7 दिन तथा ठण्ड में 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए, पाले की चेतावनी पर तुरंत सिंचाई करें, तीसरी सिंचाई के बाद निंदाई गुडाई करें। 👉जडों तथा तने को नुकसान न हो। ड्रिप- 1-2 के अंतराल पर फल परिपक्वता होने के समय में सिंचाई लंबे अंतराल पर देना चाहिए। 👉क्षेत्र की मिट्टी के प्रकार और मौसम की स्थिति के आधार पर सिंचाई का समय तय किया जाता है। 👉सिंचाई की बेसिन प्रणाली का अधिकतर पालन किया जाता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में स्प्रिंकलर या ड्रिप का उपयोग करे।

रोग एवं उपचार

पपीता की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

तना तथा जड़ गलन - इस रोग से ग्रस्त पौधों में भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सूख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसकी रोकथाम हेतु जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। तथा रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। पौधों पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 % WP को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल का स्प्रे करना चाहिए। पपीता में डम्पिंग ऑफ (आर्द गलन ) - यह रोग पपीते में नर्सरी अवस्था में आता है जिसका कारण पीथियम एफिनडरमेटस, पी. अल्टीमस फाइटोफ्थोरा पामीबोरा तथा राइजोक्टोनिया स्पी. के कारण होता है। लक्षण - रोगे नीचे (जमीन की सतह के पास से) से गलकर मरने लगते है। प्रबंधन - रोग से बचने के लिए पपीते के बीजों का उपचार बुवाई पूर्व सेरेसान या एग्रोसान जी एन से उपचारित करें तथा नर्सरी को फार्मेल्डिहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से ड्रेंचिंग करें या उपचारित करें।पपीता के पत्तों का पीला पड़ना सफेद मख्खी का प्रकोप -सफेद मख्खी के द्वारा फैलाया की रोकथाम के लिए एसीटामिप्रिड  20SP की 10 ग्राम मात्रा के साथ इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL की 10 ML मात्रा को 15 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। पपीता के पत्तों का पीला पड़ना नाइट्रोजन की कमी का भी कारण है। यदि पपीता के पौधे में नाइट्रोजन नहीं दी गई है, तो नाइट्रोजन युक्त उर्वरक डालकर सिंचाई करें।

खरपतवार नियंत्रण

पौधों की अच्छी बढ़वार हेतु 20 से 25 दिन के अन्तर पर खरपतवार निकालने चाहिए तथा कतारों के बीच में गुड़ाई करना चाहिए। पौधे लगाने के एक सप्ताह बाद, 2 किग्रा प्रति हेक्टेयर डाओयूरान (Diouron) अथवा पैराक्वाट का प्रयोग करने से खरपतवारों पर प्रभावकारी नियंत्रण हो सकता है।

सहायक मशीनें

पपीते की खेती के लिए देशी हल या हैरों, फावड़ा, कुदाल, खुर्पी, आदि यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है।