जीरा की खेती

जीरा मसाले वाली मुख्य बीजीय फसल है। इसका उपयोग रसोई के साथ-साथ औषधि में नमकीन, केक, अचार, चटनी, आदि में किया जाता है। जीरे में प्रोटीन भी पाया जाता है। इसके बीजों के पुल्टिस बनाकर बाह्य रोगों के लिए उपयोग किया जाता है।


जीरा

जीरा उगाने वाले क्षेत्र

भारत में रबी फसल के रूप में जीरे की खेतीमुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में की जाती है। जलवायु :-जीरा शीत ऋतु की फसल है जिसके लिए शुष्क एवं ठण्डी जलवायु कि आवश्यकता होती है। जीरा की अच्छी फसल के लिए मौसम साफ व बादल रहित होना चाहिए। जीरा की फसल में अधिक नमी होने से पाला, कीट व बिमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है।जीरे की बुवाई के समय तापमान 24 c -28c तथा वानस्पतिक वृद्धि के समय 20c -25c ताप उपयुक्त होता है।

जीरा की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

प्रति 100 ग्राम खाधांश से -प्रोटीन -18.7 ग्राम,वसा 15.0 ग्राम,रेशा -12.0 ग्राम,कार्बोहाइड्रेट्स - 36.6 ग्राम,थियामिन 0.55 मिग्रा,राइबोफ्लेविन -0.36 मिग्रा,विटामिन सी - 1.0 मिग्रा,विटामिन ए 87.00 आई.यू.

बोने की विधि

1. छिटकवाँ विधि - जीरा उगाने वाले काफी कृषक छिटकवाँ विधि द्वारा बुवाई करते आये हैं, परंतु यह बुवाई का वैज्ञानिक तरीका नहीं है। बुवाई की इस विधि में पहले उचित आकार की क्यारियाँ बनाई जाती है। तत्पश्चात बीजों को समान रूप से बिखेरकर लोहे की दंताली द्वारा हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। इस विधि द्वारा बुवाई हेतु बीज दर अपेक्षाकृत अधिक लगता है एवं अन्तः कृषि क्रियाएं (निराई-गुड़ाई) भी सुविधा पूर्वक एवं आसानी से नहीं हो पाती हैं। 2. कतार विधि - जीरे के बीजों की बुवाई 25 सेमी की दूरी पर बनाई गई कतारों में करनी चाहिए। एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी रखनी चाहिए। कतार विधि द्वारा की गयी बुवाई में अपेक्षाकृत अधिक मेहनत की जरूरत होती है। परंतु इस विधि से बुवाई करने से अंतरासस्य क्रियाएं जैसे निराई-गुड़ाई व दवाओं के छिड़काव आदि में सुविधा होती है। इस विधि द्वारा बुवाई करने से फसल की कटाई में भी आसानी होती है।उपरोक्त दोनों विधियों में यह ध्यान रखते हैं कि बीज के ऊपर 2 सेमी से ज्यादा मिट्टी ना चढ़ने पाये अन्यथा बीज जमाव प्रभावित होगा।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

जीरे की फसल के लिए बलुई दोमट तथा दोमट भूमि अच्छी होती है। खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। प्रति एकड़ 4-5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद को बुवाई के एक माह पूर्व खेत में समान रूप से मिला देना चाहिए। समय के अनुसार 15 से 30 दिन पुर्व मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करके छोड दें, उसके बाद एक या दो जुताई देशी हल या हैरो से मिट्टी को भूरभूरी बनाने के लिए करें और अंत मे पाटा लगा दें, जिससे मृदा मे नमी की कमी न हो। हल्की मिट्टी में कम व भारी मिट्टी में अधिक जुताई करके खेत को तैयार करें।

बीज की किस्में

जीरा के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

 आर एस 1 (RS 1 Jeera) :-जीरा की ये किस्म 80 से 90 दिन लेती है पककर तैयार होने के लिए । यह एक अगेती किस्म है तथा इसके बीज रोयेदार होते है । ये किस्म प्रति एकड़3से 5क्विंटल की पैदावार देती है ।  एम् सी 43 (MC 43 Jira) :-ये किस्म तैयार होने में 105से 115 दिन का समय लेती है । प्रति एकड़2.5से 3क्विंटल की पैदावार देती है । जीरा की इस वैरायटी में 2.7 प्रतिशत गंधतेल मिलता है । यह किस्म झुलसा रोग के प्रतिरोधी है ।  आर जेड 19 (RZ 19 Jeera) :-इस वैरायटी में गंधतेल करीब 3 प्रतिशत होता है । जीरा की इस किस्म में करीब 7 सिंचाईंयो की आवश्कता पड़ती है । ये किस्म 120 से 130 दिन में तैयार होती है । जीरा की पैदावार 2से 3क्विंटल प्रति एकड़देती है ।  आर जेड 209 (RZ 209 Jeera) :-जीराकी यह किस्म छाछ्या रोग के प्रतिरोधी है । यह किस्म 140 से 150 में तैयार होती है । यह किस्म 3से 3.5क्विंटल प्रति एकड़की पैदावार देती है ।  आर जेड 223 (RZ 223 Zeera) :-जीरा की इस किस्म में तेल की मात्रा 3.25 प्रतिशत होती है । यह किस्म उख्टा व् झुलसा रोग के प्रतिरोधी है । यह किस्म 120 से 130 दिन में तैयार होती है । ये किस्म 2.5से 4क्विंटल प्रति एकड़की पैदावार देती है ।  जी सी 1(Gujrat Jeera 1) :-इसमें तेल की मात्रा 3.6 प्रतिशत होती है । यह किस्म उख्टा रोग के प्रति सहनशील है । यह किस्म तैयार होने में 105 से 110 दिन का समय लेती है । यह किस्म 3से 4क्विंटल प्रति एकड़की पैदावार देती है ।  जी सी 2 (Gujrat Jeera 2) :-जीरा की इस वैरायटी में तेल की मात्रा करीब 4 प्रतिशत होती है । यह किस्म उखटा व् झुलसा रोग के प्रतिरोधी है । यह किस्म प्रति एकड़3से 3.5क्विंटल की पैदावार देती है । ये किस्म करीब 100 दिन में पकाकर कटाई के लिए तैयार हो जाती है ।  जी सी 3 (Gujrat Jeera 3) :-इस वैरायटी में लगभग 4.4 प्रतिशत तेल होता है । यह किस्म उखटा रोग के सहनशील है । ये किस्म 98 दिन में तैयार हो जाती है । यह 3से 3.8क्विंटल प्रति हैक्टेयर की पैदावार देती है । जी सी 4 (Gujrat Jeera 4) :-जीरा की ये फसल उखटा व् झुलसा रोग के प्रतिरोधी है । ये किस्म 4से 5क्विंटल प्रति एकड़की पैदावार देतीहै तथा 120 दिन में तैयार हो जाती है ।आर जेड-19,आर जेड-209, जी सी-4,आर जेड-233

बीज की जानकारी

जीरा की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

एक एकड़ क्षेत्र के लिए 5-7 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

जीरे का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

जीरा की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

जीरे की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। जीरामे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिश की गयी। उर्वरकोंका अनुपात एनपीके 15:12:8 कि.ग्राप्रति एकड़एवं अन्य उर्वरकों की मात्रा का उपयोग निम्न विकल्पों के अनुसार करना चाहिए। विकल्प 1 :- यूरिया 26किलो प्रति एकड़, डाय अमोनियम फॉस्फेट (dap) 26किलो प्रति एकड़ और म्यूरेट ऑफ़ पोटास (mop) 12 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करें। विकल्प 2 :- यूरिया 33किलो प्रति एकड़ व एसएसपी 75 किलो प्रति एकड़और म्यूरेट ऑफ़ पोटास (mop) 12 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करें।नोट: खाद एवं उर्वरकों की मात्रा का उपयोग उपरोक्त निर्दिष्ट कीसी भी एक विकल्प के आधार पर ही करें। अच्छी तरह सड़ा-गला कर तैयार की गयी कम्पोस्ट (देशी) खाद की पूरी मात्रा को खेत में जुताई से पुर्व डालकर अच्छी तरह मिला देवें। बुवाई के समय नत्रजन की आधी तथा फॉस्फोरस एवं पोटास की पूरी मात्रा बीज के साथ या सीड कम फ़र्टिलाइज़र ड्रिल से डालें। नत्रजन की शेष आधी मात्रा के पुनः दो भाग करें, जिसके एक भाग को बुवाई के 35 दिन बाद एवं दुसरे भाग को बुवाई के 60 दिन बाद सिंचाई के समय देवें।

जलवायु और सिंचाई

जीरा की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

सिंचाई प्रबंधन :-बुवाई के तुरंत बाद एक सिंचाई करें परंतु यह ध्यान रखें कि पानी का बहाव तेज न रहें अन्यथा बीज अस्त-व्यस्त हो सकते है।दूसरी हल्की सिंचाई जमीन के अनुसार बुवाई के 4-10 दिन बाद करें जब बीज फूलने लगें। चूंकी बीजों का अंकुरण दूसरी सिंचाई के बाद ही दिखाइ देता है, इसलिए यदि धूप से जमीन पर पपड़ी जम जाये तो एक बहूत ही हल्की सिंचाई और कर सकते है ताकी अंकुरण अच्छी तरह से हो सकें।इसके बाद मौसम व भूमि के आधार पर 20-25 दिनों के अन्तराल पर कुल तीन सिंचाईया कमशः 35, 60 एवं 85 दिन बाद करें।इनमे से अन्तिम सिंचाई दाने बनते समय गहरी करें। फसल पकने के समय सिंचाई बिल्कुल न करें।

रोग एवं उपचार

जीरा की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

"1. उखठारोग - फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम नामक कवक द्वारा फैलने वाला यह मृदा जनित रोग पौधे के किसी भी अवस्था में हो सकता है। परंतु प्रायः जब फसल 1 महीने की हो जाती है तो इस रोग का प्रकोप होता है। पौधे की उम्र के साथ रोग का प्रकोप बढ़ता जाता है। रोग पौधे की जड़ में लगता है। इसके प्रारंभिक लक्षण के रूप में पत्तियां पीली पड़ जाती है और धीरे-धीरे पौधा मुरझा कर सूखने लगता है। संक्रमित पौधे को जमीन से निकालने पर आसानी से निकल जाता है एवं जड़ों में गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। जिन खेतों में फसल चक्र नहीं अपनाया जाता है, वहाँ रोग का प्रभाव अधिक होता है। इस रोग के नियंत्रण हेतुजिस खेत में इस रोग का प्रकोप हो, उस खेत में 3 वर्ष तक जीरे की फसल नहीं उगानी चाहिए। उखठा रोग रोधक किस्मों (जी.सी.4) की बुवाई करनी चाहिए।बीज को बाविस्टीन या कैप्टान द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किग्रा की दर से बीजोपचार करना चाहिए। 2. झुलसा रोग (ब्लाइट) :- झुलसा रोग से एक या दो दिन में ही पूरी फसल नष्ट हो जाती है।यह रोग अल्टरनेरिया बर्नसी नामक कवक द्वारा फूल आने के समय आकाश मे बादल छाये रहने पर अवश्य होता है। इस रोग के लक्षण पौधे की पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखते है और पौधों के सिरे झुकने लगते है।रोग का प्रकोप ज्यादा होने पर धब्बे पत्तियों से तने एवं बीजो पर बढ़ते है और धीरे-धीरे ये काले रंग में बदल जाते है जिससे पौधा झुलसा हुआ दिखाई देता है। नियंत्रण :-गर्मी में गहरी जुताई करे व फसल चक्र अपनावें। स्वस्थ बीज ही बोने के काम में लें व बीज को उपचारित जरूर करें। 👉सिंचाई का उचित प्रबन्धन करें, तथा ज्यादा पानी वाली फसलें जीरा के पास नही लगायें। 👉फसल में फूल शुरू होने के बाद खासतौर से नमी बढ जावे एवं आकाश में बादल दिखाई दे तब फसल पर डाइथेन एम 45 (मेन्कोजेब) का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। आवश्यक हों तो 10-15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करें। 3 .मोयला/चैपा (एफिड) :-जीरा में रस चुसने वाले कीटों में मोयला प्रमुख है। इसका प्रकोप फूल आते समय अधिक होता है, जो दाना पकने तक रहता है।यह कीट पौधों के ऊपरी भाग के सभी अंगों पर झुण्ड में चिपककर रस चूसता है तथा इस कीट द्वारा वहीं पर मीठा द्रव्य पदार्थ छोड़ने से काली फफूंद पनप जाती है।इससे प्रभावित पौधे कमजोर हो जाते है जिससे पत्तियां सिकुड़कर मुड़ने लगती है। नम मौसम, हल्की बूंदाबादी, लम्बे समय तक बादल छाये रहने पर कीट के शिशु व प्रोढों का प्रकोप उग्र रूप धारण कर लेता है जो हानिकाकर होता है। नियंत्रण :- 👉खेत की साफ-सफाई का ध्यान रखे एवं खेत को खरपतवार से मुक्त रखें। 👉कीट के प्रकोप की निगरानी रखते हुए पीले चिपचिपे पाश (येलो स्ट्रीकी ट्रेप) काम में लेवें। दस पीले चिपचिपे पाश प्रति हैक्टेयर के लिए पर्याप्त है। 👉रासायनिक नियन्त्रण के लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. को 500 मिलीलीटर प्रति एकड़की दर से 200 लीटर पानी मे मिलाकर छिड़काव करें। 👉या थायमिथोक्ज़ाम 25 डब्ल्यू.जी. को 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से 200 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। यदि आवश्यकता हों तो छिड़काव 15-20 दिन बाद दोहरायें।"

खरपतवार नियंत्रण

जीरे की फसल में खरपतवारों का अधिक प्रकोप होता है। खरपतवार नियंत्रण हेतु अन्तिम जुताई के समय या बुवाई के 2 दिन बाद तक पेंडीमैथालीन 30 ईसी 1.5लीटर / एकड़ मात्रा 200 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। इसके उपरान्त जब फसल 25 से 30 दिन की हो जाए तब एक गुड़ाई करनी चाहिए। यदि मजदूरों की समस्या हो तो आक्सीडाईजारिल 6 ई.सी. (राफ्ट) नामक खरपतवार-नाशी की बाजार में उपलब्ध 500 मिलीलीटर / एकड़ मात्रा को 200 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 14 से 18 दिन बाद छिड़काव कर देना चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों,कल्टीवेटर, फावड़ा, खुर्पी, आदि यन्त्रों की आवश्यकता होती है।