कोदों भारत का एक प्राचीन अन्न है, जिसे ऋषि अन्न माना जाता था। यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी लघु धान्य फसल है। इसका प्रयोग उबालकर चावल की तरह खाने में किया जाता है। प्रयोग करने से पूर्व इसके दाने के ऊपर मौजूद छिलके को कूटकर हटाना आवश्यक रहता है। इसकी उपज को लंबे समय तक सहेज कर रखा जा सकता है तथा अकाल आदि की विषम परिस्थितियों में खाद्यान्न के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। यह गरीबों की फसल मानी जाती है क्योंकि इसकी खेती गैर- उपजाऊ भूमियों में बगैर खाद-पानी के की जाती है। उष्णएवं समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में कोदों की खेती होती है। भारत में इसकी खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। यह 35 से 40 डिग्रीसेंटीग्रेड तापक्रम को सहन कर लेती है। उपयुक्त फसल वृद्धि एवं विकास के लिए 26 से 29 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम आदर्श माना गया है। इस फसल के लिए 40 से 50 सेंमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते हैं। सूखा सहन करने की इस फसल में अद्भुत क्षमता होती है।
भारत में कोदों पैदा करने वाले प्रमुख राज्यों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तराखण्ड, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश हैं।
इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4प्रतिशत वसा, 65.9प्रतिशत का र्बोहाइड्रेट तथा 2.9 प्रतिशत राख पाई जाती है।मधुमेह के रोगियों के लिए चावल व गेहूँ के स्थान पर कोदों विशेष लाभकारी रहता है।
पौध से पौध की दूरी 8-10 सेमी एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20-22.5 रखनी चाहिए। तथा बीज बोने की गहराई 3-4 सेमी रखना चाहिए।
आमतौर पर इस फसल की खेती असिंचित क्षेत्रों की गैर उपजाऊ ऊँची-नीची एवं हल्की मृदाओं में की जाती है। परंतु कोदों की उत्तम खेती के लिए दोमट तथा हल्की दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। खेत को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2 से 3 बार देसी हल या कल्टीवेटर से जोतकर तैयार कर लेना चाहिए। जुताई के बाद पाटा चला कर खेत को समतल कर लेना चाहिए।
जवाहर कोदों-13, जीपीयूके-3,जवाहर कोदों-48, पीएससी-1,जवाहर कोदों-41,जवाहर कोदों-62, केके-2, जीके-2, जेके-76,जवाहर कोदों-146,जवाहर कोदों-101, आदि उन्नत किस्म है।
पंक्ति (कतार) में बुवाई करने हेतु 10 किग्रा और छिटकवाँ विधि में 15 किग्रा प्रति हैक्टेयर बीज पर्याप्त होता है।
कोदो के बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
4-5 टन गोबर की सड़ी खाद बुवाई से पूर्व खेत में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए।कोदों की अच्छी फसल लेने के लिए 40 किग्रा नाइट्रोजन 20 किग्रा फॉस्फोरस व 20 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय तथा नत्रजन की शेष मात्रा बुवाई के 35 से 40 दिन पर देने से उपज में आशातीत वृध्दि होती है।
कोदों वर्षा ऋतु की फसल है, जिससे फसल की पानी सबंधी आवश्यकता वर्षा से पूरी हो जाती है। अतः इसे अलग से सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। अवर्षा की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। इस फसल की सफल खेती के लिए खेत में जल-निकास आवश्यक है।
कुटकी का फफोला भृंग यह कीट बालियों में दूध बनने की अवस्था पर नुकसान पंहुचाता है बालियों का रस चूसकर दाने नहीं बनने देता है। इस की कीट की रोकथाम हेतु - प्रकाष प्रपंच का उपयोग करें । अधिक प्रकोप होने पर क्लोरपायरीफास दवा 1 लीटर 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्ट .छिड़काव करें । कंडवा रोग - रोग की ग्रसित बालियां काले रंग के पुन्ज में बदल जाती है। वीटावेक्स 2 ग्राम/किलो ग्राम बीज दर से उपचारित करें। रोग ग्रस्त वाली जला दें। कोदों का घारीदार रोग - पत्तियों पर पीली धारियां षिराओं के समान्तर बनती हैं। अधिक प्रकोप होने पर पूरी पत्ती भूरी होकर सूखकर गिर जाती है। मेन्कोजेब 1 किलो ग्राम /हेक्टयर की दर से बुवाई के 40 से 45 दिन बाद 500 लीटर पानी में घोलकर .छिड़काव करें । कुटकी का मृदुरोमिल ग्रसित ( डाऊनी मिल्डयू ) - पौधे बोने रह जाते है। पत्तियों की उपरी सतह पर लंबे भूरे रंग के धब्बे जिनकी सतह पर सफेद मुलायम रेषे दिखते हैं। प्रारंभिक लक्षण दिखते ही डायथेन जेड - 78 (0.35 प्रतिषत )15कलो ग्राम /हेक्टयर की दर से बुवाई के 40 से 45 दिन बाद 500 लीटर पानी में घोलकर .15दिन के अन्तर से छिड़काव करें ।
कोदों को भी अन्य फसलों की भाँति खरपतवारों से हानि होती है। बुवाई के 20-25 दिन पश्चात पहली और 40-45 दिन बाद दूसरी निकाई करनी चाहिए। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु एट्राजिन (50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर) 2 किग्रा प्रति हैक्टेयर को 800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़कना चाहिए।
देसी हल ,खुरपी ,कुदाल ,हैरो , कल्टीवेटर की आवश्यकता होती है