सफेद मूसली की खेती

सफेद मूसली एक बहुत ही उपयोगी पौधा है, जो कुदरती तौर पर बरसात के मौसम में जंगल में उगता है ।  सफेद मूसली की जड़ों का इस्तेमाल आयुर्वेदिक और यूनानी दवाएं बनाने में किया जाता है ।  खासतौर पर इस का इस्तेमाल सेक्स कूवत बढ़ाने वाली दवा के तौर पर किया जाता है ।  सफेद मूसली की सूखी जड़ों का इस्तेमाल यौवनवर्धक, शक्तिवर्धक और वीर्यवर्धक दवाएं बनाने में करते हैं ।  इस की इसी खासीयत के चलते इस की मांग पूरे साल खूब बनी रहती है, जिस का अच्छा दाम भी मिलता है ।


सफेद मूसली

सफेद मूसली उगाने वाले क्षेत्र

इसकी खेती मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पशिम बंगाल, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु में की जाती है।

सफेद मूसली की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

सफेद मूसली की जड़ों में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फाइबर, सैपोनिंस जैसे पोषक तत्व और कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम आदि खनिज प्रमुखता से पाए जाते हैं।

बोने की विधि

सफेद मूसली के बीज (फिंगर्स) को 20 सेमी कतार से कतार की दूरी पर तथा बीज से बीज 15 सेमी तथा5-6 सेमी की गहराई पर लगाना आवश्यक होता है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

उपयुक्त जल निकास वाली हल्की, रेतीली, दोमट, लाल सामान्य पी.एच. वाली भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी मानी जाती है।रबी फसल काटने के बाद ग्रीष्म ऋतु में खाद डालने के बाद मोल्ड बोल्ड प्लाऊ से खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। जुताई करने के बाद 2 बार कल्टीवेटर चलायें। जिससे खरपतवार व उनकी जड़ें सूख जायें। उसके बाद डिस्क हैरों 2 बार चलाकर मिट्टी को भुरभुरी कर लेना चाहिए। तदोपरांत पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाना चाहिए।

बीज की किस्में

सफेद मूसली के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनम - यह प्रजाति सामान्यत: सागौन के वनों में छत्तीसगढ़ में बहुतायत में पाई जाती हैं। इसकी जड़ों की मोटाई प्राय: एक समान बेलनाकार ही होती है तथा नीचे की ओर क्रमश:पतली होती जाती हैं। इसकी मूल गुच्छे में आधार पर संलग्र रहती है। इसकी लंबाई 10 से 15 सेमी होती है। अधिक खाद देने पर 20 - 25 सेमी लंबी हो जाती है। क्लोरोफाइटम लेक्सम - क्लोरोफाइटम लेक्सम की मूल भी आधार से गुच्छे के रूप में निकलती है परंतु प्रारंभ में यह धागे के समान पतली होती है और अंत में यह एकाएक फूल जाती है तथा छोर पर पुनः धागे के समान पतली हो जाती है। इन फूली हुई जड़ो पर झुर्रियां होती है। क्लोरोफाइटम अरुन्डीनेशियम - इसकी मूल भी लेक्सम के समान ही होती है परंतु इसकी मूल का फूला हुआ हिस्सा चिकना होता है उसमें लेक्सम के सदृश्य झुर्रियां नहीं होती है। तथा उसकी तुलना में मूल का आकार बड़ा होता है। यह प्रजाति छत्तीसगढ़ के साल वृक्ष के जंगलो में पाई जाती है। इसके अतिरिक्त सिम ओ.जे, राज विजय सफेद मूसली की उन्नत किस्म है।

बीज की जानकारी

सफेद मूसली की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

10-12 क्विंटलबीज (फिंगर्स) प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है

बीज कहाँ से लिया जाये?

सफ़ेद मूसली के बीज किसी विश्वसनीय स्थान से खरीदना चाहिए

उर्वरक की जानकारी

सफेद मूसली की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में 10-15 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर खेत में समान रूप से डालकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त नाइट्रोजन 50 किग्रा, फास्फोरस 40किग्रा, पोटाश 40 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए

जलवायु और सिंचाई

सफेद मूसली की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

रोपने के बाद यदि वर्षा नहीं होती है तब सिंचाई की आवश्यकता होती है अन्यथा इसकी फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। यदि 15 सितम्बर के बाद वर्षा न हो तब अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक सिंचाई करनी चाहिए। असमान्य वर्षा न होने पर 2-3 सिंचाई की आवश्यकता होती है।

रोग एवं उपचार

सफेद मूसली की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

सफ़ेद मूसली के पौधों में किसी खास तरह के रोग देखने को नहीं मिलते है, किन्तु इसके बीजो को खेत में लगाते समय उपचारित नहीं किया गया तो पौधों में कवक और फफूंद जैसे रोग लग जाते है, यह रोग कीट रोग होते है | इसलिए खेत में खरपतवार नियंत्रण पर अधिक ध्यान देना चाहिए |  इसके बावजूद अगर फसल में रोग लग जाते है, तो उसकी रोकथाम के लिए पौधों पर बायोपैकूनील या बायोधन दवाई का उचित मात्रा में छिड़काव करना चाहिए, इसके अतिरिक्त ट्राईकोडर्मा की तीन किलो की मात्रा को गोबर की खाद में मिलाकर छिड़काव कर दे |

खरपतवार नियंत्रण

मूसली के खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। इसके लिए कम-से-कम 2-3 निराई-गुड़ाई करना आवश्यक होता है। इसकी निंदाई 30 व 45 दिन की अवस्था पर करें। निंदाई हेंड हो या खुर्पी से करें। ध्यान रहे पौधों की जड़े प्रभावित न हो।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।