तरबूज जायद मौसम की प्रमुख फसल है। तरबूज गर्मियों का मुख्य फल है। यह फल गर्मी में अधिक स्वादिष्ट होता है। फलों का सेवन स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। यह कम समय, कम खाद और कम पानी में उगाई जा सकने वाली फसल है। उगने में सरल, बाजार तक ले जाने में आसानी होती है। पके हुए फल मीठे, शीतल, दस्तावर एवं प्यास को शांत करते हैं।
तरबूज की खेती भारतवर्ष में लगभग सभी प्रदेशों में की जाती है।
कैलोरीज, मैग्नीशियम, सल्फर, लोहा, आक्जौलिक अम्ल तथा पोटेशियम की अधिक मात्रा प्राप्त होती है तथा पानी की भी अधिक मात्रा होती है ।
(i) उथला गड्डा विधि - इस विधि में 60 सेमी व्यास के 45 सेमी गहरे एक दूसरे से 1.5 - 2.5 मीटर की दूरी पर खोद लिए जाते हैं। इन्हें एक सप्ताह तक खुला रखने के बाद खाद एवं उर्वरक मिलाकर भर दिया जाता है। इसके बाद वृत्ताकार थाला बनाकर 2 - 2.4 सेमी गहराई पर 3 - 4 बीज प्रति थाला बोकर महीन मिट्टी या गोबर की खाद से ढक देते हैं। अंकुरण के बाद प्रति थाल 2 पौधे छोड़कर शेष उखाड़ देते हैं। (ii) गहरा गड्ढा विधि - यह विधि नदी के किनारो पर अपनाई जाती है। इसमें 60-75 सेमी. व्यास के गड्ढे 1 - 1.5 मीटर की दूरी पर बनाये जाते हैं। इसमें सतह से 30 - 40 सेमी की गहराई तक मृदा, खाद एवं उरवर्क का मिश्रण भर दिया जाता है। शेष क्रिया उथला गड्ढा विधि अनुसार ही करते हैं। इस विधि में 2 मीटर चौड़ी एवं जमीन से उठी हुई पट्टियां बनाकर उसके किनारे पर 1 - 1.5 मीटर की दूरी पर बीज बोने चाहिए।
उचित जल निकासी वाली बलुई दोमट मिटटी सर्वोतम होती है। मृदा का पी. एच.मान 6 से 7 तक होना चाहिए। अधिकतर नदियों के कछार में इन फसलों की खेती की जा सकती हैं। तरबूज को गड्डो में लगाया जाता हैं। गड्ढे बनाने पूर्व खेत में दो बार हल एवं दो बार बखर या डिस्क हैरों चलाकर भूमि को अच्छी तरह भुरभुरी बना लेना चाहिए।
(i) सुगर बेबी - इस किस्म के फल 2-3 किलो वजन के, मीठे तथा बीज छोटे व कत्थई रंग के होते हैं। (ii) अर्का ज्योति - इस किस्म के फल गोल, हरी धारी युक्त, मीठे व् 4 - 6 किलो वजन के होते हैं। (iii) दुर्गापुर मीठा - इस किस्म के फल 6 - 8 किलो वजन वाले, हरी धारी युक्त होते हैं। इसका गूदा रवेदार स्वादिष्ट होता है।
6- 8 किग्रा बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है
तरबूज का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
तरबूज के लिए 250 - 300 किग्रा गोबर की खाद/कम्पोस्ट, 60-80 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फॉस्फोरस एवं 50 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर की आवशयकता होती है। फॉस्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा एवं नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा बुवाई के समय देनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।
तरबूज की फसल में 10-15 दिन के अन्तर से सिंचाई करनी चाहिए।
(i) चूर्णी फफूंदी - इस रोग से ग्रसित पौधो की पत्तियों पर सफ़ेद रंग का चूर्ण दिखायी देता है। इस रोग के कारण पौधों की बढ़वार रुक जाती है तथा फलों की गुणवत्ता खराब हो जाती है।इसकी रोकथाम के लिए 0.2% कैरोटीन या 0.1% कैलक्सीन का फसल पर प्रति सप्ताह छिड़काव करना चाहिए। (ii)आर्द्र विगलन -समुचित जल निकास न होने के कारण पौध अवस्था पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इसमे पौधे की जड़े तथा तना सड़ जातें है तथा धीरे-धीरे पौधा सूख जाता है। इससे बचाव हेतु बीजों को बोने से पूर्व, कैप्टान, सेरेसान या थाइरम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचरित कर लेना चाहिए
सिंचाई के बाद खरपतवार पनपने लगता है। इनको फसल से निकालना अति आवश्यक होता है अन्यथा इनका प्रभाव पैदावार पर पड़ता है। 2 या 3 निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए ।
बखर या डिस्क हैरों, खुर्पी, कुदाल फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है