सिंघाड़े की खेती के लिए सर्वप्रथम जनवरी-फरवरी में बीज द्वारा पौधे तैयार कर लिए जाते हैं तथा उनमें से एक-एक शाखा लेकर प्रसारण करते हैं। जून-जुलाई माह में जब तालाबों में पानी इकट्ठा हो जाये तो लट्टे के सहायता से मिट्टी में छोटे-छोटे गड्ढे बनाकर पौध की रोपाई की जानी चाहिए। रोपण के लिए 0.75 - 1.00 मीटर लम्बे पौधों का चयन करना चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपाई के लिए 600-700 पौधों की आवश्यकता होती है।
भारत में सिंघड़ा की खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा एवं मध्य प्रदेश में की जाती है।
100 ग्राम कच्चे फलों से- 70% पानी, 23% कार्बोहाइड्रेट, 4.70% प्रोटीन, 0.30% वसा, 0.60% रेशा एवं 1.4% खनिज तत्व पाये जाते हैं।
जून-जुलाई माह में जब तालाबों में पानी इकट्ठा हो जाये तो लट्टे के सहायता से मिट्टी में छोटे-छोटे गड्ढे बनाकर पौध की रोपाई करते है।
सामान्यतः इसकी खेती तालाब, पोखरों, छोटे-छोटे गड्ढों में की जाती है।
लाल गुलरा, लालचिकनी गुलरी, करिया हरीरा
एक हैक्टेयर क्षेत्र की रोपाई के लिए 600-700 पौधों की आवश्यकता होती है।
सिंघाड़े का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से खरीदना चाहिए।
सिंघाड़े की रोपाई के पर्वू 6 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर जल जमाव क्षेत्र में डालना चाहिए तथा 40-50 किग्रा नाइट्रोजन, 60 किग्रा फॉस्फोरस एवं 40 किग्रा पोटाश प्रति/हेक्टेयर की दर से दी जानी चाहिए। फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा रोपाई से पहले दी जानी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर एक माह के अन्तराल पर देना चाहिए।
सामान्यत: तालाबों में होने वाले सिंघाड़े की फसल की खेती उन्नत कृषि तकनीक अपनाकर निचले खेतों जिनमें पानी का भराव जुलाई से नवम्बर – दिसम्बर माह तक लगभग एक से दो फीट तक होता है आसानी से की जा सकती है।
सिंघड़ा भ्रंग या बीटल - इस कीट के प्रकोप से फसल में 70-80% का नुकसान होता है। इसके नियंत्रण के लिए एमिडा क्लोप्रिड 17.8 % SL दवा का छिड़काव करना चाहिए।
अच्छे उत्पादन हेतु खरपतवार को निकलते रहना चाहिए।
हैरों या कल्टीवेटर, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा।