अखरोट शीतोष्ण जलवायु का फल है। गर्मी में अधिक तापमान होने से नट खराब हो जाते हैं व गिरि भी नहीं बैठती। अखरोट की खेती उन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है, जहाँ वर्षा लगभग 750 मिलीमीटर हो। इसे पाले से भी हानि पहुंचती है। अखरोट के फलों को नट कहा जाता है।
भारत में इसकी खेती हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, कश्मीर और अरूणाचल प्रदेश में की जाती है।
यह एक स्वास्थ्यप्रद नट है। मस्तिष्क रूपी अखरोट दिमाग की सेहत के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। इसमें प्रोटीन 15.6 प्रतिशत, चर्बी 64.5 प्रतिशत व कार्बोहाइड्रेट 11 प्रतिशत मिलता है।
पौधे से पौधे की दूरी10 मीटर तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 10-13 मीटर रखी जानी चाहिए।
इसकी जड़ें अधिक गहराई तक जाती है इसलिए मिट्टी गहरी होनी चाहिए। मिट्टी हल्की हो तो इसमें कार्बनिक पदार्थ पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए। इसकी सफल खेती के लिए जल-निकास का भी उचित प्रबंध होना चाहिए।खेत की तैयारी के लिए 3-4 बार गहरी जुताई करनी चाहिए।
फ्रेंक्वेट , रूपा , गोविन्द , ब्लैकमोर, हर्टलेगोविंद अखरोट, ब्लैकमेर, फ्रैक्वेट पेने हार्टले, कान्कार्ड, सेंटा, बरबारा, यूरेका करन, बुलबुल, चान्डलर पेड्रो, तेहामा आदि।
वृक्ष की आयु के अनुसार 50 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फॉस्फोरस एवं 25 ग्राम पोटाश प्रति वर्ष उपयोग किआ जाना चाहिए।
रोपाई से कुछ दिन पहले सिंचाई करे ! जमीन में नमी होनी चाहिए ! भूमि में नमी की कमी से पौधों में नई जड़ें विकसित नहीं हो पाती है, जिसके फलस्वरूप पादप बढ़वार रूक सकती है। बुवाई के 30-35 दिनों बाद दूसरी सिंचाई देना चाहिए, क्योंकि इसके बाद पौधों में नए कल्ले तेजी से आना शुरू होते हैं और नये कल्ले बनाने के लिए पौधों को पर्याप्त नमीं एवं पोषण की आवश्यकता रहती है।
गोंद निकलने लगे तो 1 किग्रा स्ट्रेप्टोकैक्लीन तथा 20 किग्रा वलैटक्स - 50 को पानी में मिलकर डालना चाहिए। यह प्रक्रिया 15 दिनों के अंतर से जून अथवा जुलाई के महीने में की जानी चाहिए। झुलसा रोग हो जाए तो उसके नियंत्रण हेतु ताम्रयुक्त फफूंदनाशी के 0.3 % घोल का उपयोग करे।
खरपतवार नियंत्रण हेतु निकाई-गुड़ाई करना आवश्यक है। वर्ष में 3-4 निकाई-गुड़ाई पर्याप्त होती हैं।
मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।