हल्दी की खेती

हल्दी एक अत्यंत उपयोगी मसाला है। भारत में यह सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाला मसाला है। यह औषधि युक्त भी होता है, हल्दी की खेती हमारे भारत में प्राचीन काल से करते चले आ रहे हैं। क्योंकि इसमें रंग महक एवं औषधीय गुण पाये जाते हैं।


हल्दी

हल्दी उगाने वाले क्षेत्र

भारत में आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु में मुख्य रूप से खेती की जाती हैं, साथ ही उड़ीसा, बिहार, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में भी खेती की जाती है। जलवायु व मिटटी  :-हल्दी मुख्यतः ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में उगाई जाती हे। इसकी खेती के लिए गर्म तथा आर्द्रता वाला मौसम ज्यादा उपयुक्त रहता है। हल्दी को भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टियों में उगाया जाता है। इसकी खेती के लिए रेतीली अथवा बलुई दोमट और मटियार दोमट मिट्टी सबसे अधिक उपयुक्त रहती है, यह उपजाऊ और अच्छे जल निकास वाली होनी चाहिए। हल्दी की खेती हल्की मिट्टी में अच्छी होती है, चिकनी व भारी मिट्टी मे कन्दो का विकास अच्छा नहीं होता।

हल्दी की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

भोजन में हल्दी की उपयोगिता  :-प्राचीन समय से ही भारतवासी हल्दी का इस्तेमाल दाल, सब्जी, चटनी, आचार तथा अन्य भोज्य सामग्रियों को लूभावना तथा सुनहरा रंग प्रदान करने के साथ-साथ इनमें एक विशेष प्रकार की सुगंध भरने के लिए करते रहे हैं।हल्दी में स्टार्च की मात्रा सर्वाधिक होती हैं। इसके अतिरिक्त इसमें 13.1 प्रतिशत पानी, 6.3 प्रतिशत प्रोटीन, 5.1 प्रतिशत वसा, 69.4 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 2.6 प्रतिशत रेशा एवं 3.5 प्रतिशत खनिज लवण पोषक तत्व पाये जाते हैं। इसमें वोनाटाइन ऑरेंज लाल तेल 1.3 से 5.5 प्रतिशत पाया जाता हैं।भारतीय पकवान या तो बिना हल्दी के बन ही नहीं सकते तथा यदि बन भी जाते हैं तो बिना हल्दी के उनका रंग फीका दिखता है तथा स्वाद भी फीका लगता है।वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि हल्दी में कैंसररोधी गुण विद्यमान है। अतः ऐसे मनुष्य जिनके भोजन में प्रति दिन हल्दी की प्रचुर मात्रा होती है, उन्हें कैंसर होने की संभावना कम हो जाती है। शायद हल्दी के इन्हीं गुणों के कारण भारतीय लोग आदिकाल से हल्दी का इस्तेमाल भोजन में करते आ रहे हैं।

बोने की विधि

जिन किसानों के पास सिंचाई की सुविधा है, वो अप्रैल के दूसरे पखवाड़े से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक हल्दी को लगा सकते हैं। जिनके पास सिंचाई सुविधा का अभाव है, वे मानसून की बारिश शुरू होते ही हल्दी लगा सकते हैं। हल्दी को तीन प्रकार से लगाया जा सकता है। समतल भूमि में, मेढ़ों पर और ऊँची उठी हुई क्यारियों में । बलुई दोमट मिट्टी में हल्दी समतल भूमि में लगा सकते हैं, लेकिन मध्यम व भारी भूमि में बीजाई सदैव मेढ़ों पर एवं उठी हुई क्यारियों में ही करनी चाहिए। बीजाई सदैव पंक्तियों में करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 40 सैंटीमीटर एवं पंक्तियों में कंद से कंद की दूरी 20 से 25 सैंटीमीटर रखनी चाहिए। बीजाई के लिए सदैव स्वस्थ एवं रोग रहित कंद छांटना चाहिए। कंद लगाते समय विशेष ध्यान रखने की बात है कि कंद की आँखें ऊपर की तरफ हों तथा कंद को 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर लगाकर मिट्टी से ढक देना चाहिए।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

हल्दी की अधिक उपज पाने के लिए उर्वरक समुचित मात्रा में डालना आवश्यक है। खेत तैयार करते समय 8 -10 क्विंटल प्रति एकड़ अच्छी प्रकार से गली-सड़ी गोबर की खाद डालें। कच्ची गोबर की खाद खेत में न डालें क्योंकि इससे कटवर्म एवं दीमक का प्रकोप अधिक होता है और कंदों पर धब्बे पड़ जाते हैं। पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के बाद 3-4 जुताई देशी हल या हैरों से करने के बाद पाटा भी लगा देते हैं जिससे मिट्टी भुरभुरी बन जायें, फिर बुवाई करते हैं।

बीज की किस्में

हल्दी के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

हल्दी की किस्में :- गांठां के रंग और आकार के अनुसार हल्दी की कई किस्में पाई जाती है। मालाबार की हल्दी औषधीय महत्व की होती है तथा यह जुकाम और कफ के उपचार के लिए उपयुक्त है। पूना एवं बंगलौर की हल्दी रंग के लिए अच्छी है। जंगली हल्दी अपनी सुगंधित गांठों के कारण भिन्न है तथा इसे कुरकुमा एरोमेटिका (सुगंधित हल्दी) कहते हैं। हिमाचल प्रदेश में आमतौर पर स्थानीय किस्में ही प्रचलन में है। हल्दी की कुछ उत्कृष्ट किस्मों का विवरण निम्नानुसार है।  पालम पिताम्बर :- यह किस्म हरे पत्तों के साथ मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह अधिक आय देती है और औसतन वार्षिक उपज 332 क्विंटल प्रति हैक्टेयर (132 क्विंटल प्रति एकड़) तक प्राप्त हो सकती है। इस किस्म में स्थानीय किस्मों से अधिक उपज देने की क्षमता है और इसकी गठ्ठियां उंगलियों की तरह लम्बी वरंग गहरा पीला होता है।  पालम लालिमा हल्दी :- इसकी गठ्ठियों का रंग नारंगी होती है और स्थानीय किस्मों की अपेक्षा इसकी औसत वार्षिक उपज अधिक होती है। इस किस्म की औसतन वार्षिक उपज 250-300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर (100- 120 किवंटल प्रति एकड़) तक ली जा सकती है।  कोयम्बटूर हल्दी :- यह बारानी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके कंद बड़े, चमकीले एवं नारंगी रंग के होते हैं। यह 285 दिन में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है।  कृष्णा :- यह लम्बे प्रकंदों तथा अधिक उपज देने वाली किस्म है। यह कंद गलन के प्रति रोगरोधी है और 255 दिन में पककर तैयार हो जाती है।  बी.एस.आर.- 1 हल्दी (BRS-1) :-जिन क्षेत्रों में पानी खड़ा रहता हो वहाँ के लिए अधिक उपज देने वाली उपयुक्त किस्म है। इसके कंद लम्बे तथा चमकीले पीले रंग के होते हैं। यह किस्म 285 दिनों में तैयार हो जाती है।  सवर्णा हल्दी :- यह अधिक उपज देने वाली, गहरे नारंगी रंग कंद युक्त अधिक उपज देने वाली किस्म है।  सुगुना :- छोटे कंद और 190 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म कंद गलन रोग के लिए प्रतिरोधी है।  सुदर्शन :- इसके कन्द घने, छोटे आकार के तथा देखने में काफी खूबसूरत होते हैं। यह किस्म 190 दिन में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है।  कस्तूरी :- यह शीघ्र (7 माह) में तैयार होती हैं। इसके पंजे पतले एवं सुगन्धित होते हैं। उत्पादन 150-200 क्विं./ हेक्टेयर, 25 प्रतिशत सूखी हल्दी मिलती हैं। पीतांबरा :- यह राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है, यह अधिक उत्पादन देती है। रोमा :- यह किस्म 250 दिन में परिपक्व होती है। उत्पादन 260 क्विंटल/हेक्टेयर शुष्क हल्दी 31.1 प्रतिशत, ओलियोरोजिन 13.2 प्रतिशत इरोन्सियल आयल 4.4 प्रतिशत सिंचित एवं असिंचित दोनों के लिए उपयुक्त होती हैं। सोनाली :- इसकी अवधि 230 दिन, उत्पादन 270 क्विंटल/हे. शुष्क हल्दी 23 प्रतिशत, ओलियोरोजिन 114 प्रतिशत इरोन्सियल आयल 4.6 प्रतिशत होता हैं। इस वर्ग की कोयम्बटूर-1, 35 एन, पीटीएस-43, पीसीटी-8 जातियां भी हैं। इसके अतिरिक्त दवा के लिए सफेद हल्दी कर्कुमा अमाड़ा एवं प्रसाधन सामग्री हेतु कुर्कुमा एरोमोटिका की भी कई जातियां तैयार की गयी हैं।

बीज की जानकारी

हल्दी की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज दर :- मातृकन्द का वजन 30-35 ग्राम का तथा बाजु कन्द का वजन 15-20 ग्राम होना स्वस्थ फसल के लिए बहुत ही आवश्यक हैं। इस प्रकार औसतन 8-9 क्विंटल/एकड़ बीज की आवश्यकता होती है। बीजोपचार :- कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम + डाइमेथोएट 2 मिली प्रति 1 लीटर पानी के साथ कंद का उपचार करे।

बीज कहाँ से लिया जाये?

हल्दी  के बीज किसी विश्वसनीय  स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

हल्दी की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

हल्दी की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। हल्दी मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिश की गयी। उर्वरको का अनुपात एनपीके 70:35:35 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करे।  नत्रजन :- 77 किलो यूरिया प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं और 77 किलो यूरिया रोपाई के 60 से 65 दिन बाद खड़ी फ़सल मे डाले।  फॉस्फोरस :- 218 किलो एसएसपी प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत मे मिलाए।  पोटास :- 60 किलो म्यूरेट ऑफ पोटास (mop) प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाए।

जलवायु और सिंचाई

हल्दी की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

हल्दी की फसल लम्बे अंतराल (लगभग 9-10 माह) में तैयार होने वाली फसल है।अतः इसे समयानुसार समुचित सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। अगेती फसल लगाने हेतु बीजाई से पहले खेत की सिंचाई कर बत्तर आते ही बीजाई करना उचित रहता है, क्योंकि हल्दी की बीजाई अप्रैल - मई माह में प्रारम्भ कर दी जाती है।अतः फसल में वर्षा के पूर्व आवश्यकतानुसार 6-7 दिनों के अन्तराल से सिंचाई करें। शीत ऋतु में सिंचाई 10-12 दिन के अन्तराल पर करें। वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद 15-20 दिन के अन्तर से फसल की सिंचाई करनी चाहिए ।

रोग एवं उपचार

हल्दी की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

 प्रकंद एवं जड़ विगलन :- इस रोग के प्रकोप के कारण पौधे की नीचे की पत्तियां पीली पड़ जाती है। बाद में पूरा पौधा पीला पड़कर मुरझा जाता है। पौधों को खींचने पर वह प्रकन्द से जुड़े स्थान से सुगमता से टूट जाता है। बाद में पूरा प्रकन्द सड़ जाता है। इस रोग के बीजाणु भूमि में विद्दमान रहते हैं और बीज के रूप में प्रयुक्त प्रकन्द भी बीजाणु अपने साथ ले जाते हैं। इसलिए रोग से प्रभावी बचाव हेतु दोनों को ही उपचारित करना पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए भूमि में चेस्टनट क्म्पानेण्ट के 0.6 प्रतिशत घोल को आधा लीटर प्रति पौधे की दर से देते है। बीज प्रकन्दो को 0.25 प्रतिशत सांद्रता को घुलनशील सेरेसन में बुवाई से पूर्व 30 मिनट तक या 0.3 प्रतिशत विटीग्राम से 1 घंटे तक उपचारित करते है।  पती धब्बारोग :-इस फसल में सामान्यतः कीड़े कम लगते हैं लेकिन वर्षा ऋतु में अधिक आर्द्रता होने पर हल्दी की पत्ती धब्बा बीमारी, जिसमें पत्तों के दोनों ओर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, तेजी से फैलती है। धब्बे प्रायः पत्तों की ऊपरी सतह पर अधिक होते हैं। पत्ते विकृत आकार के तथा लाल-भूरे रंग के हो जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए स्वस्थ व रोगरहित बीज कंदों का चुनाव करना चाहिए तथा फसल की बीमारी से प्रभावित पत्तियों को इकट्ठा करके जला दें या जमीन में दबा दें और खड़ी फसल में इण्डोफिल एम-45 (25 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी) या स्कोर 25 ई.सी. या टिल्ट 25 ई.सी. (10 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी) में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें। या0.2% ब्लाइटॉक्स घोल का छिड़काव करना चाहिए।  तना छेदक या पती छेदक कीट :-हल्दी की फसल में तना छेदक व पत्ती छेदक कीटों का प्रकोप होने पर 1.5 मि.ली. मोनोक्रोटोफॉस 36 एस. एल. या 1 मि. ली. क्वीनलफॉस 25 ई० सी० प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे। कभी-कभी हल्दी की फसल मे सफेद गिडार (White grubs) का आक्रमण भी देखा गया है। यह कीट जमीन में रहकर गठ्ठियों को खाता रहता है। इस कीट के नियंत्रण हेतू बिजाई के समय 2 लीटर क्लोरपाइरीफॉस 20 ई० सी० 25 कि० ग्रा० सूखी रेत में मिलाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालें।

खरपतवार नियंत्रण

हल्दी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो भूमि से पोषक तत्वों, नमी, स्थान, धूप आदि के लिए फसल से प्रतिस्पर्धा करते हैं अतः इनकी रोकथाम के लिए दो-तीन बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए साथ ही साथ मिट्टी भी चढ़ा देनी चाहिए ताकि प्रकन्दों का विकास अच्छी तरह से हो सके।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।