सोयाबीन की खेती

परिचयसोयाबीन एक दलहनी फसल है,इसके पौधों की ऊँचाई 140-160 सेंटीमीटर तक होती  है।सोयाबीन के बीज पोषक तत्वों से भरपूर होते है, इसके बीजों से तेल निकाला जाता है और इनका उपयोग दाल के रूप में भी किया जाता है । जलवायु सोयाबीन की खेती के लिए शुष्क व गरम मौसम तथा कम-वर्षा वाले क्षेत्र अनुकूलतम  होते है।सोयाबीन की बुआई के समय 25-38 डिग्री सेल्सियसऔर कटाई के समय 18-25 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूलतम होता हैं।फसल की वृद्धि के लिए वार्षिक वर्षा 30- 60 मि.मी. होनी चाहिए। खेती का समयसोयाबीन के बीजों की बुआई जून के दूसरे सप्ताह तक कर लेनी चाहिए।  


सोयाबीन

सोयाबीन उगाने वाले क्षेत्र

प्रमुख क्षेत्र:- भारत में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटका और तेलंगाना आदि सोयाबीन उगाने वाले प्रमुख राज्य हैं।

सोयाबीन की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

पोषण मूल्य:- सोयाबीन में भरपूर मात्रा में प्रोटीन और फाइबर पाए जाते है।इसके बीज कई प्रकार से भोजन में उपयोग किए जाते है।  इसके तेल में थोड़ी-मात्रा में संतृप्त वसा पाई जाती है।सोयाबीन के पौधों का पशु-चारे में रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है।

बोने की विधि

बुआई:-  बीज बुआई  के लिए खेत को  तैयार करने  व  खरपतवार मुक्त बनाने के लिए भूमि की दो से तीन बार जुताई करनी चाहिए। जुताई के बाद खेत में पाटा लगाकर जमीन को समतल बनाना चाहिए।बीज की बुआई  के समय दो पंक्तियों के बीच 45 से.मी. की दूरी और बीजों के बीच 4– 7 से.मी. की दूरी बनाए रखे ।बीज की बुआई  के समय बीज को 2.5- 5 से.मी. की गहराई पर बोए।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

मिट्टी:-सोयाबीन के बेहतर वृद्धि और अधिक उपज के लिए, उचित मिट्टी का चयन किया जाना चाहिए।सोयाबीन की फसल को 6.0 से 7.5 पी.एच.मान वाली उपजाऊ दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है।सोयाबीन की खेती के लिए अच्छी नमी धारण क्षमता व जल निकासी वाली उपजाऊ मिट्टी  सर्वोपयुक्त मानी जाती  है।सोयाबीन के पौधे पानी के ठहराव के प्रति संवेदनशील होते हैं, इसलिए इसकी  मिट्टी में आंतरिक रूप से जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिए । सोयाबीन की खेती लवणीय व क्षारीय मिट्टी में नहीं करनी चाहिए । खेत की तैयारी:- पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के बाद 2-3 जुताई देशी हल या हैरों से करके पाटा लगा देते हैं।मिट्टी का शोधन जैविक विधि जैविक विधि से मिट्टी का शोधन करने के लिए ट्राईकोडर्मा विरडी नामक जैविक फफूंद नाशक से उपचार किया जाता है। इसे प्रयोग करने  के लिए 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में 1 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा विरडी को मिला देते हैं साथ ही मिश्रण में नमी भी बनाए रखते हैं । 4-5 दिन पश्चात् फफूंद का अंकुरण हो जाता है तब इसे तैयार खेत में  प्रति एकड़ बीज बुआई से पहले अच्छी तरह मिला देते हैं। रसायनिक विधि:- रसायनिक विधि के तहत उपचार हेतु कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब नामक दवा की 500  ग्राम मात्रा प्रति एकड़ खाद में मिलाकर भुरकाव करें। 

बीज की किस्में

सोयाबीन के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

प्रजातियाँ:-एस.एल. 525:- सोयाबीन की यह किस्म 144 दिनों मे कटाई के लिए तैयार होती है। इसकी खासियत यह हैं कि इसके बीज एक समान और मोटे होते हैं। यह किस्म पीले मोज़ेक वायरस की प्रतिरोधक और तना गलन व जड़ गाँठ नेमाटोड्स के प्रति सहिष्णु होती है।औसत उपज -  6  क्विंटल/ एकड़फसल की अवधि- 144 दिनएस.एल.958:- सोयाबीन की यह किस्म बीज बुआई  के 142 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। औसत उपज -  7.3  क्विंटल/ एकड़ फसल की अवधि- 142 दिनएस.एल.744:- सोयाबीन की यह किस्म 139 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है ।इसके बीज हल्के पीले रंग के होते हैं।यह किस्म पीले मोज़ेक वायरस की  प्रतिरोधक है।औसत उपज - 7.3 क्विंटल/ एकड़फसल की अवधि- 139 दिनपी.के.1024:-यह किस्म 110-220 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं।औसत उपज -  12-15 क्विंटल/ एकड़ 

बीज की जानकारी

सोयाबीन की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज दर सोयाबीन की बुआई  के लिए 25-30 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की आवश्यकता होती हैं।बीज उपचारसोयाबीन के बीजो को सीधे खेत में बोया जाता है।  बुआई  से पहले बीजों को थीरम या कैप्टन 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।

बीज कहाँ से लिया जाये?

सोयाबीन का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

सोयाबीन की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

खाद और उर्वरक प्रबंधन -उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है । संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के लिए 1:2:1 में एनपीके 30:60:30 की मात्रा का प्रयोग करें।नत्रजन की पूर्ति के लिए 66 किलो यूरिया, फास्फोरस के लिए  (सिंगल सुपर फास्फेट) का उपयोग अधिक लाभकारी होगा। एसएसपी 375 किलो और म्यूरेट ऑफ़ पोटास 50 किलों प्रति एकड़ की दर से काम में ले उर्वरक की मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंअनुशंसित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के साथ जिंक सल्फेट 10 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी परीक्षण के अनुसार डालें।नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 20 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।सूक्ष्म पोषक तत्व प्रबंधन:-सोयाबीन के पौधों में सूक्ष्मपोषक तत्वों  की पूर्ति के लिए बीज बुआई  से पहले मिट्टी की जाँच करवा ले फिर आवश्यकतानुसार पोषक तत्व मिट्टी में मिलाए  | 

जलवायु और सिंचाई

सोयाबीन की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

सिंचाईसोयाबीन के पौधों को तीन से चार बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। अच्छी वर्षा वाले इलाकों में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती।विशेष रूप से फली बनने की अवस्था में सोयाबीन के खेत में सिंचाई की आवश्यकता होती है अगर इस समय पानी की कमी हो, तो उत्पादन में कमी आ जाती है ।

रोग एवं उपचार

सोयाबीन की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

रोग प्रबंधन और उपचार :1) पीली शिरा वाला मोज़ेक वायरस:-नुकसान के लक्षण पत्तियाँ आकार में छोटी व मोटी रह जाती हैं। पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है जिससे पौधे की वृद्धि रुक ​​जाती है।पौधे फूल पैदा नहीं कर पाते हैं ।नियंत्रण:- इसको नियंत्रित के लिए सफेद मक्खी का नियंत्रित करें।फसल के शुरुआती विकास के दौरान संक्रमण होने पर संक्रमित पौधों को हटाकर नष्ट कर दें। नीम के तेल या नीम के बीज की गिरी के अर्क के साथ पौधों पर छिड़काव करें।यदि उपलब्ध हो तो रोग सहिष्णु या प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें। पौधों पर  इमिडाक्लोप्रिड 60 मि.ली./एकड़ पानी में घोलकर छिड़काव करें।2 ). तना झुलस:नुकसान के लक्षण पत्तियों पर पीले रंग के घेरे में पानी के निशान दिखने लगते है यही संक्रमित स्राव पत्तियों के अंदर जा कर सूखने लगता है,इस करण पत्तियाँ फट जाती है । बाद में यही संक्रमण तने पर विकसित होने लगता है जिससे तना हल्के भूरे रंग का हो जाता है । नियंत्रण:-बीज बोने से पहले कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें।पौधों पर क्लोरोथालानिल 75%, डब्ल्यू.पी.2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।4) चूर्णी फफूंद रोगनुकसान के लक्षण इस रोग में पौधों की निचली पत्तियों पर गहरे धब्बे पड़ जाते हैं और बाद में पत्तों पर छोटे-छोटे सफेद बिंदु दिखाई देने लगते हैं. बाद में ये छोटे सफेद बिंदु बड़े सफेद धब्बे बन जाते हैं. आपको बता दें कि यह रोग गर्म या शुष्क वातावरण में तेजी से फैलता है.नियंत्रण:-इस रोग के प्रकोप से पौधों को बचाने के लिए घुलनशील गंधक का इस्तेमाल करें. रोग का प्रकोप ज्यादा होने पर आवश्यकतानुसार कार्बेन्डाजिम या हेक्सकोनाज़ोल 300 ML प्रति एकड़ 150 लीटर पानी में घोलकर छिड़क दें। 5) बैक्टीरियल ब्लाइटनुकसान के लक्षण  इस बैक्टीरिया का प्रकोप ठंड में ज्यादा देखने को मिलता है. पत्तियों, तनों, डंठलों और फलियों पर धब्बे पड़ जाते हैं. पत्तियों पर कोणीय गीले धब्बे बनने लगते हैं. नियंत्रण:-रोग प्रतिरोधक पीके 472, जेएस 335 आदि का चुनाव करें.कार्बेन्डाजिम नामक दवा 120 ग्राम प्रति एकड़ 150 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करें। फसल चक्र अपनाएं जिनमें दाल वाली फसलें ना हों.कीट  प्रबंधन और उपचार 1) तम्बाकू इल्ली : नुकसान के लक्षण युवा इल्लियाँ पहले समूह में पौधों की पत्तियों को खुरेद कर खाती हैं और बाद में पूरे  खेत में फैलकर सारी पत्तियों को क्षति पहुँचाती हैं जिसके परिणामस्वरूप पौधों की वृद्धि रुक जाती है।नियंत्रण:गरमी के दिनों में खेत की जुताई करें।फसल की बुआई  से पहले, खेत की सीमाओं पर अरंडी के पौधों को ट्रैप फसल के रूप में उगाएँ। बाढ़ विधि से खेत की सिंचाई करें। क्विनलफास @ 300 मि.ली./एकड़ के साथ पौधों पर छिड़काव करें।2) थ्रिप्स:  नुकसान के लक्षण निम्फ पीले रंग के अंडाकार होते हैं और वयस्क भी पीले रंग के होते हैं जो सफेद मोम के फूल जैसे पदार्थ से ढके रहते हैं। वे पत्तियों से रस चूसते हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया खराब हो जाती है। अत्यधिक संक्रमण होने पर पत्तों का झड़ना, गूलर का गिरना और गूलर का खराब खुलना देखा जाता है।  नियंत्रण: नीम के तेल या नीम के बीज की गिरी के अर्क के साथ पौधों पर छिड़काव करें। सफेद मक्खी से बचाने के लिए पीले चिपचिपे जाल (2 ट्रैप/एकड़) लगाए। इसके नियंत्रण के लिए एसिटामिप्रिड 4 ग्राम या 75 WP एसीफेट 800 ग्राम/200 लीटर पानी या इमिडाक्लोप्रिड 40 मि.ली./एकड़ या थियामेथोक्सम 40 ग्राम 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें। 3) गर्डल बीटल (चक्रभृंग एवं पत्ती छेदक)नुकसान के लक्षण शाखा या तने पर दो वृत्ताकार कटाव.पत्तियों का नीचे की ओर लटक जाना और सूखना.तरुण पौधों का मुरझाना और मृत्यु.भृंग का सिर और धड़ पीले-लाल रंग का जबकि पंख आवरण भूरा होता है.लार्वा गहरे काले सिर वाले और सफ़ेद होते हैं।नियंत्रण: -थायक्लोप्रिड 21.7 % एससी @ 750 मि.ली./ हैक्टर या प्रोफेनोफोस 50% ईसी @ 1000 मि.ली./हैक्टर . या क्लोरएंट्रानिलिप्रोल 18.5 %एससी @ 150 मि.ली./या बीटासायफ्लूथ्रिन 8.49% + इमिडाक्लोप्रिड 19.81%ओडी @ 350 मि.ली./हैक्टर  की दर से फसलों पर छिड़काव करें ।4) तना मक्खी नुक्सान के लक्षण:-इस कीट का प्रकोप फसल की प्रारंभिक अवस्था में ही शुरू हो जाता हैं | मादा कीट की द्वारा अंडे पत्तियों पर दिए जाते हैं​ और जिनमें से मैगट निकलकर तने को खाकर सुरंग बनाती है | जिस इस प्रभावित पौधे मुरझाकर सूखने लगते है | यह किट फूल एवं फल्लिया बनाने की अवस्था में आक्रमन करती हैं।नियंत्रण: -इसकी रोकथाम के लिए क्लोरेंट्रानिलिप्रोल 18.5 % एससी 60 से 80 मिलीलीटर 150 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करें।या लैम्ब्डा साइहलोथ्रिन 5 % एससी 300 मिलीलीटर प्रति एकड़ 150 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करें।5) सेमीलूपर यानि अर्धकुण्डलाकर सुन्डियानुक्सान के लक्षण :-इसकी सुन्डिया पतियों पर निर्भर रहता है ज्यादा मात्रा में कीट सारी पत्तियां खा जाती हैं और सिर्फ तना रह जाता हैं फलिया बनते समय फल्लियो में छेद बनाकर दाना खा लेती हैनियंत्रण :-इसकी  रोकथाम के लिए इमामेक्टिन बेंजोएट 5 % SG 100 ग्राम प्रति एकड़ 150 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करें। या (नोवलुरॉन 5.25% + एमामेक्टिन बेंजोएट 0.9%) 400 मिलीलीटर प्रति एकड़ 150 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें ।​​​​​​ 

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण:- सोयाबीन के खेत में खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए 2 बार  निराई व गुड़ाई की आवश्यकता होती हैं। पहली निराई व गुड़ाई बीज बुआई  के 20 दिन बाद करनी चाहिए।दूसरी निराई व गुड़ाई बीज बुआई  के 40 दिन बाद करनी चाहिए।रासायनिक विधि:- सोयाबीन की फसल में खरपतवार की रोकथाम के लिए 15 से 20 दिन की फसल में खेत में पर्याप्त नमी होने परएमेजाथेपर 10% SL 400 मिलीलीटर प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें या एमेजाथेपर 35% + इमाजमोक्स 35% WG 40 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करेंया प्रोपाकिझाफोप 2.5%+ एमेजाथेपर 3.75%ME ( सकेद) 800 मिली लीलीटर प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, या हैरों, सीडड्रिल, कुदाल और फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्कता पड़ती है।