तिल की खेती

तिल, तिलहन फसलो में भारत की सबसे पुरानी और मुख्य फसल है। तिल तीन तरह की होती है- लाल ,सफ़ेद,और काली। भारत में सफ़ेद और काली तिल की बुवाई की जाती है, काली तिल का उपयोग ज्यदातर पूजा में किया जाता है और सफ़ेद तिल व्यंजन, मिठाई बनाने में प्रयोग की जाती है।


तिल

तिल उगाने वाले क्षेत्र

भारत में तिल की खेती राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक आदि राज्यों में की जाती है।

तिल की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

तिल में कई तरह के पोषक तत्व जैसे, प्रोटीन कैल्शियम, बी काम्प्लेक्स और कार्बोहाइट्रेड, आयरन, जिंक, कॉपर, मैग्नीशियम आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।

बोने की विधि

 बुआई का उचित समय जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई का दूसरा पखवारा है। इससे पूर्व बुआई करने से फाइलोडी रोग लगने का भय रहता है।  बुवाई हल के पीछे लाइनों में 30 से 45 से.मी. की दूरी पर करें।  शाखा रहित किस्मों में कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. रखें क्योंकि शाखा रहित किस्मों के पौधे अधिक नहीं फैलते हैं। अतः इनके बीच में कम फासला रखा है।  बीज को कम गहराई पर बोयें। बीज का आकार छोटा होने के कारण बीज को रेत,राख या सूखी हल्की बलुई मिट्टी में मिलाकर बोयें। बीज दर :-एक एकड़ क्षेत्र के लिये 1.5 से 2 किग्रा. स्वच्छ एवं स्वस्थ बीज का प्रयोग करें। बीजोपचार :-बुवाई से पूर्व एक किलो तिल के बीज को 3 ग्राम थाइरम या कैप्टान से उपचारित करें। जीवाणु अंगमारी रोग के प्रकोप से बचाव के लिये बीजों को 2.50 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल में 2 घण्टे डुबोकर बीजोपचार करें।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

हल्की रेतीली, दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है। अच्छी पैदावार के लिए उत्तम जल निकास वाली भुमि की आवश्यकता होती है। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व 2-3 जुताईयां कल्टीवेटर अथवा देशी हल से करना चाहिए। जुताई के समय 2 टन गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति एकड़ खेत में मिलाना चाहिए।

बीज की किस्में

तिल के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

 आर टी 346 (चेतक) :- कृषि अनुसंधान केन्द्र, मण्डोर द्वारा विकसित तिल की इस किस्म में सूखा सहनशील की क्षमता एवं 83 दिन में पकने वाली है। पर्ण कुंचन, फिलोडी के लिए प्रतिरोधी तथा तना व जड़ गलन, अल्टरनेरिया व सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा रोगों तथा फलीछेदक कीड़े के लिये मध्यम प्रतिरोधी है।इसमें तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत उपज 7 से 9 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। इस किस्म के बीज चमकीले सफेद रंग के होते हैं। आर टी 351 तिल :-सफेद चमकीले बीज वाली तिल की इस किस्म के पौधों पर फलियां चौगर्धी लगती है तथा फसल लगभग 85 दिन में पक जाती है।इसके बीजों में तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत उपज 7-10 क्विटल प्रति हैक्टर होती है यह किस्म पर्ण कुंचन, फिलोडी तथा तना, जड़ गलन रोगों के लिए प्रतिरोधी तथा सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा व फली छेदक कीड़े के प्रति मध्यम प्रतिरोधी होती है।  आर.टी. 127 तिल :-इसके बीज सफेद, चमकदार, सुडौल, जिसमें 49.5 प्रतिशत तेल होता हैं। इस किस्म में गाल मक्खी व वरूथी (माइट्स) का प्रकोप अन्य किस्मों की तुलना मे अपेक्षाकृत कम होता हैं। इसमें तना गलन रोग, फिलोडी एवं जीवाणु पत्ती धब्बा रोग के प्रति सहनशीलता हैं। इस किस्म की निर्यात गुणवत्ता उच्च हैं। आर.टी. 46 तिल :-यह एक सामान्य ऊँचाई 100- 120 सें.मी. के पौधों वाली किस्म है। इसमें 3-4 शाखाएं पाई जाती हैं। इसके बीज का रंग सफेद होता है तथा यह 85-90 दिन में पककर तैयार होती है। इसकी उपज 10-12 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।  आर.टी. 125 तिल :- यह एक सामान्य ऊँचाई 100-120 सें.मी. के पौधों वाली किस्म है। इसमें 2-3 शाखायें व फलियाँ चार कक्षीय होती हैं। इसके बीजों का रंग सफेद होता है तथा औसत 1000 दानों का वजन 3.14 ग्राम होता है। इसकी सभी फलियाँ लगभग एक साथ पकती हैं। इसलिये झड़ने से नुकसान कम होता है। इसके पकने की अवधि 80-85 दिन तथा उपज 10-12 क्विंटल प्रति हैक्टर मिलती है। टी.सी. 25 तिल :- यह सामान्य ऊँचाई 90 से 100 सें.मी. के पौधों वाली किस्म है। जल्दी पकने वाली इस किस्म में फूल 30 से 35 दिन में आने लगते हैं तथा फसल 90 से 100 दिन में पककर तैयार हो जाती है।हर पौधे पर औसतन 4-6 शाखाएँ होती हैं जिन पर 65-75 फलियाँ लगती हैं। फलियों में बीज की चार कतारें होती हैं। फलियाँ 2.6 से 2.9 सें.मी. लम्बी एवं 2.7 से 3.00 सें.मी. गोलाई की होती हैं।एक फली में बीजों की संख्या 65-75 होती है। इस किस्म की एक विशेषता यह है कि नीचे से ऊपर तक सभी फलियाँ एक साथ पकती हैं जिससे फसल काटते समय बीजों के बिखरने का खतरा नहीं रहता है।इस किस्म की औसत उपज 425 किलो प्रति हैक्टर है। इस किस्म के बीजों का रंग सफेद तथा तेल की मात्रा 49 प्रतिशत होती है।टाइप-4, टाइप-10, टाइप 12, टाइप-13 टाइप-22, प्रगति, आदि।

बीज की जानकारी

तिल की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

1.5 -2 किग्रा / एकड़ बीज पर्याप्त होता है

बीज कहाँ से लिया जाये?

बीज विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

तिल की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

उर्वरकों का प्रयोग भूमि परीक्षण के आधार पर करें। यदि परीक्षण न कराया गया हो तोउर्वरकों का अनुपात 30:20:00 प्रति एकड़ प्रयोग करें। यूरिया :- 33 किलों प्रति एकड़ बुवाई के समय और 33 किलो यूरिया खड़ी फ़सल में 30 -35 दिन के बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में दें।  फॉस्फोरस :- 125 गन्धक युक्तएसएसपी प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं।  फसल में पुष्पावस्था तथा फली बनते समय 2 प्रतिशत यूरिया का घोल बनाकर छिड़काव करने से पैदावार में आशातीत वृद्धि होगी।

जलवायु और सिंचाई

तिल की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

खेत में नमी बनाये रखने के लिए आवश्यकता अनुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।

रोग एवं उपचार

तिल की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) जीवाणु अंगमारी - इस रोग के प्रकोप से पत्तियों पर जल-कण जैसे छोटे बिखरे हुए धब्बे बनते हैं, जो बाद में बढ़कर भूरे हो जाते हैं। यह बीमारी 4-6 पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती है। इस रोग के नियंत्रण हेतु स्ट्रेप्टोसायक्लिन (500 P.P.M.) पत्तियों पर 15 दिन के अन्तर पर दो बार छिडकाव करना चाहिए। (ii) तना व मूल विगलन - इस रोग से ग्रसित पौधे की जड़ व तने भूरे रंग के हो जाते हैं। जब जमीन की सतह के पास इसका संक्रमण होता है, तब अचानक पौधे मुरझाने लगते हैं। पौधे का संक्रमण वाला भाग काले रंग का हो जाता है और कोयले जैसा दिखाई देने लगता है। रोगी पौधे को ध्यान से देखने पर फली में काले दाने दिखाई देते हैं। रोगी पौधे जल्दी पक जाते हैं और उत्पादन घट जाता है। इसके नियंत्रण हेतु कम से कम 2-3 साल का फसल-चक्र अपनाएं जिसमें धान, मक्का, गेहूं आदि फसलें शामिल करें। एवं बुवाई से पूर्व बीजों को कार्बेन्डाजिम 0.1% एवं थीरम 0.2% या ट्राइकोडर्मा विरिडी 0.4% से उपचारित करना चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण

प्रारम्भिक अवस्था में खरपतवारों का अधिक प्रकोप होता है। खरपतवारों का यान्त्रिक एवं रासायनिक दवाओं द्वारा नियंत्रण किया जा सकता है।रासायनिक विधि से नियंत्रण हेतु एलाक्लोर 50 EC. की 700 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ 200से 300 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल बुवाई के दो दिन बाद तक नमी वाली भूमि में कर सकते है।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों फावड़ा, खुर्पी हँसिया या दराँती, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।