भारतीय संस्कृति और इतिहास में केसर का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका केसरिया रंग और सुगंध न सिर्फ इसकी सुंदरता को दर्शाते हैं पर दुर्लभ केसर की उपयोगिता एवं गुणवत्ता, केसर का वजूद एवं विशिष्टता स्वतः बताती है। केसर दुनिया में पाये जाने वाले पौधों में सबसे मंहगा है। यह सुगन्ध देने वाला बहुवर्षीय पौधा होता है। महंगा होने के कारण इसे लाल सोना भी कहा जाता है।
केसर ठंडी जलवायु में उगने वाली फसल है। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में इसकी खेती बहुत अधिक होती है।
एक शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट-केसर में पौधों के यौगिकों की एक प्रभावशाली विविधता होती है जो एंटीऑक्सिडेंट के रूप में कार्य करती है - अणु जो आपकी कोशिकाओं को मुक्त कणों और ऑक्सीडेटिव तनाव से बचाते हैं। केसर एंटीऑक्सिडेंट में क्रोकिन,क्रोसेटिन, सफ़रनल और केम्पफेरोल शामिल हैं
केसर को बोने का सही समय है अगस्त-सितंबर का महीना व कटाई के लिए <p>घनकप्रकन्दों के रोपण का समय जुलाई के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर अगस्त के आखिरी सप्ताह तक करनी चाहिए।</p> के महीने को उपयुक्त माना जाता है।
केसर के घनकन्दों के बीच 5 सेमी और पंक्ति (कतार) के बीच 15 सेमी का अंतराल रखा जाता हैं तथा7 से 10 सेमी की गहराई उचित रहती है।
दोमट भूमि जिसमे जलनिकास की उचित व्यवस्था हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 3-4 जुताई हैरों या कल्टीवेटर से करके मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिए।
केसर का पौधा सुगंध देनेवाला बहुवर्षीय होता है और क्षुप 15 से 25 सेमी (आधा गज) ऊंचा, परंतु कांडहीन होता है। इसमें घास की तरह लंबे, पतले व नोकदार पत्ते निकलते हैं। जो मूलोभ्दव (radical), सँकरी, लंबी और नालीदार होती हैं। इनके बीच से पुष्पदंड (scapre) निकलता है, जिस पर नीललोहित वर्ण के एकाकी अथवा एकाधिक पुष्प होते हैं।
इसकी बुवाई के लिए 10-15 क्विंटल बीज पर्याप्त रहता है।
केसर के बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए
एक माह पूर्व गोबर की सड़ी खाद खेत में डालकर अच्छी तरह मिला देना चाहिये। उर्वरकों में 60-90 किग्रा नाइट्रोजन, 40-60 फॉस्फोरस व पोटाश की 50 किग्रा मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में देना चाहिए।
बुवाई के बाद वर्षा हो तो खेत में सिंचाई करने की आवश्कता नहीं होती है ! लेकिन वर्षा नहीं होने पर पन्द्रह दिन के अंतराल पर दो से तीन बार सिंचाई करे लेकिन ध्यान रहे खेत में पानी का ठहराव ना हो ! ड्रिप सिंचाई के द्वारा
केसर के पौधों में बहुत ही कम रोग लगते है, इसके पौधों में सिर्फ दो तरह के रोग देखने को मिलते है | जिनकी जानकारी इस प्रकार है:-बीज सडन रोग यह रोग पौधों की रोपाई के बाद ज्यादा देखने को मिलता है, इस रोग को सड़ांध नाम से भी जाना जाता है | यह रोग बीज को पूरी तरह से सड़ा देता है, जिससे पौधा अंकुरित होने से पहले ही पूरी तरह से नष्ट हो जाता है | सस्पेंशन कार्बेन्डाजिम दवा से उपचारित कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है | इसके बावजूद अगर यह रोग पौधों पर दिखाई दे तो पौधे की जड़ों पर 0.2 प्रतिशत सस्पेंशन कार्बेन्डाजिम का छिड़काव कर उपचारित करना चाहिए |मकड़ी जाल रोग यह रोग पौधों की वृद्धि को पूरी तरह से रोक देता है. यह रोग पौधों के अंकुरित होने के कुछ समय बाद दिखाई देता है. इस तरह का रोग पैदावार को प्रभावित करता है, तथा इससे बचाव के लिए 8 से 10 दिन पुरानी छाछ की पर्याप्त मात्रा को पानी में मिलाकर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए |
केसर के पौधो को खरपतवार से बचाने के लिए इसकी शुरुआती देखरेख जरूरी होती है | जब खेत में बीच अंकुरित होने लगे तब उसके कुछ दिन बाद पौधों की निराई – गुड़ाई कर देनी चाहिए | इसके बाद 20 दिन के अंतराल में दो से तीन और गुड़ाई कर देनी चाहिए, इससे पौधे अच्छे से विकास करते है |
मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।
<p>घनकप्रकन्दों के रोपण का समय जुलाई के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर अगस्त के आखिरी सप्ताह तक करनी चाहिए।</p>