कुसुम की खेती

कुसुम की फसल मुख्यत: तेल के लिए उगाई जाती है। कपड़े व खाने के रंगों में कुसुम का प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में कृत्रिम रंगों का स्थान, कुसुम से तैयार रंग के द्वारा ले लिया गया है। इसके दानों में 32% तक तेल पाया जाता है। तेल खाने, पकाने व प्रकाश के लिए जलाने के काम आता है। यह साबुन, पेण्ट, वार्निश, लिनोलियम तथा इनसे संबंधित पदार्थों को तैयार करने के काम में भी लिया जाता है। कुसुम के तेल का प्रयोग विभिन्न दवाइयों के रूप में भी किया जाता है। इसे उत्तेजक दवाई व दस्तावर दवाई के रूप में काम में लेते हैं। हरे पौधों को पशुओं के लिए चारे के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इससे साइलेज भी तैयार की जाती है। इसके हरे भागों से सब्जी भी तैयार की जाती है। इसकी खली पशुओं को खिलाने या खाद के रूप में खेती में प्रयोग की जा सकती है।


कुसुम

कुसुम उगाने वाले क्षेत्र

भारतवर्ष में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ कुसुम उगाने वाले प्रमुख प्रांत हैं।

कुसुम की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

वसा, कार्बोहाइड्रेट, रेशा, प्रोटीन, नाइट्रोजन, पोटाश, फास्फोरिक एसिड, आदि तत्व पाये जाते हैं।

बोने की विधि

शुद्ध फसल पंक्तियों में हल के द्वारा बोई जाती है। बुवाई के लिए सीडड्रिल का प्रयोग भी किया जा सकता है। मिश्रित फसल में बुवाई ऐच्छिक अन्तर पर हल से कूँड़ तैयार करके की जाती है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

कुसुम की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। कुसुम की फसल शुद्ध एवं मिश्रित फसल (गेहूं, जौं, चना व रबी ज्वार के साथ) के रूप में उगाई जाती है। शुद्ध फसल के लिए एक जुताई गहरी व 2-3 जुताई देशी हल या हीरों, कल्टीवेटर से करते हैं।

बीज की किस्में

कुसुम के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

के.65 टा. 56, तारा, नाग-7, जे.एस.एफ.-1,2,5 मालवीय 305।

बीज की जानकारी

कुसुम की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

15 से 20 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

बीज कहाँ से लिया जाये?

चमेली के बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

कुसुम की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

असिंचित क्षेत्र में - 30-40 किग्रा नाइट्रोजन, 30 किग्रा फॉस्फोरस तथा 20 किग्रा पोटाश देना लाभदायक है। सिंचित क्षेत्र में - 40-60 किग्रा नाइट्रोजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस एवं 30 किग्रा पोटाश देना लाभदायक है।

जलवायु और सिंचाई

कुसुम की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

कुसुम की खेती वर्षा के आधार पर की जाती है। परंतु दो सिंचाई; पहली बोने के 30 दिन बाद व दूसरी फूल आते समय देने पर असिंचित खेतों की तुलना में काफी उपज प्राप्त होती है।

रोग एवं उपचार

कुसुम की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

01. उकठा _ यह बीमारी स्क्लेरोटिनिया स्क्लेरोटिनम नामक फफूंदी से लगती है। सिंचित एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल निकास उचित नहीं होता, इसीलिए ऐसे क्षेत्रों में इसका प्रभाव अधिक पाया जाता है। प्रभावित पौधे मृदा आधार या मृदा में नीचे सफेद मोटी रचना प्रदर्शित करते हैं। रोगरोधी किस्में उगाई जानी चाहिए तथा खेतों को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए। रोगग्रसित पौधे उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। 02. गेरुई _ यह पक्सीनिया कार्थेमी नामक फफूंद से लगता है। पत्तियों पर धब्बे दिखाई पड़ते हैं। रोगरोधी किस्मों को उगाना चाहिए। बीज को सदैव एग्रोसन जी. एन. या कैप्टान या थीरम से उपचारित करके बोना चाहिए। रोग का फसल पर प्रभाव होते ही डाइथेन एम-45 या डाइथेन जैड 78 के 0.25% घोल का छिड़काव 8-10 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। खेत की सफाई रखना भी इस रोग के फैलाव को रोकता है। 03. आल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट_ फसल में इस रोग से कभी-कभी 25-42% तक कमी आ जाती है। इस बीमारी से फसल को बचाने के लिए डाइथेन एम 45 की 2 किग्रा मात्रा 1,000 लीटर पानी में घोलकर 10-15 दिन के अन्तर पर छिड़काव करना चाहिए। सहनशील जाति HUS-305 उगना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

एक या दो बार आवश्यकतानुसार निकाई-गुड़ाई करना चाहिए। निकाई-गुड़ाई करने से जमीन की ऊपरी सतह की पपड़ी टूट जायेगी, यदि दरारे पड़ रहीं हो तो वह भर जायेगी और नमीं के हास की बचत होगी। निकाई-गुड़ाई अंकुरण के 15-20 दिनों के बाद करनी चाहिये।

सहायक मशीनें

फसल की किस्म के अनुसार 120-180 दिन बाद फसल पक कर तैयार हो जाती है। कटाई हंसिया की सहायता से सुबह के समय करनी चाहिए। इससे पौधे टूटने से बचते हैं तथा काँटे भी इस समय में अपना प्रभाव अधिक नहीं दिखाते। मड़ाई बैलों की दाँय चलाकर या गेहूं थ्रेशर द्वारा की जा सकती है।