भारत के शुष्क क्षेत्रों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बोई जाने वाली फसलों में रामतिल प्रमुख तिलहनी फसल है। रामतिल के बीजों में 37 से 47 प्रतिशत तेल तथा 20 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसका तेल हल्के पीले रंग का हल्का खुशबूदार होता है। रामतिल के तेल का उपयोग खाद्य तेल के रूप में होता है। इसके अलावा तेल का उपयोग साबुन, पेन्ट, वार्निश, आदि के बनाने में भी किया जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों (सूखा एवं अधिक वर्षा) में भी इसकी अच्छी उपज, सूखा प्रतिरोधक क्षमता, पशु पक्षियों कीटों व रोगों द्वारा कम नुकसान के कारण किसान रामतिल फसल की खेती करते हैं।फसलवृद्धि और विकास के लिए18 से 23 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है। अधिक तापक्रम (30 सेंटीग्रेड से ऊपर) पर पौध वृद्धि व पुष्पन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसकी खेती 100-125 सेमी. वर्षा वाले स्थानों में सफलतापूर्वक की जाती है। भारी वर्षा फसल के लिए हानिकारक होती है।
भारत में इसकी खेती आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक राज्यों में अधिक की जाती है।
रामतिल बीज तेल में खनिज और विटामिन की उच्च सामग्री कोशिकाओं के उपचार और फिर से विकास में मदद करती है। विटामिन सी, राइबोफ्लेविन, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, और नाइजर बीज तेल में संकुचित प्रोटीन उपचार प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है। नाइजर सीड ऑयल में जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम जैसे मिनरल्स की उच्च सामग्री हार्मोनल प्रक्रिया के लिए उपयोगी है। वे सर्कैडियन लय को स्थिर करते हैं और कुछ न्यूरोट्रांसमीटर की रिहाई को प्रेरित करते हैं जो शरीर को नींद रिसेप्टर्स को पर्याप्त आराम और आदेश लेने की अनुमति देता है। रामतिल बीज ऑयल का जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम की मात्रा नींद को प्रेरित करने में मदद करती है ।
आमतौर पर रामतिल की बुवाई छिटकवाँ विधि से की जाती है। इस विधि से वांछित उपज प्राप्त नहीं होती है। इस फसल की कतारों में बुआई करने से अधिक उत्पादन मिलता है। बीज को हल के पीछे या सीड ड्रिल की सहायता से बोया जा सकता है। बुवाई के समय जमीन में पर्याप्त नमी रहने से अंकुरण (3 से 5 दिन में) एवं पौध वृद्धि अच्छी होती है। कतार से कतार की दूरी 20-30 सेंटीमीटर तथा पौध से पौध की दूरी 10-20 सेंटीमीटर रखा जाना चाहिए।
इस फसल को भूमि की अल्प उपजाऊ परिस्थितियों (कांकरीली, पथरीली व समसीमान्त भूमियों) में उगाया जाता है। इसे हल्की भूमि से लेकर दोमट व भारी मृदाओं में उगाया जा सकता है। परंतु अच्छी पैदावार के लिए उत्तम जल-निकास वाली बलुई दोमट भूमि जिसकापी.एच. मान 5.5-6.5 होउपयुक्त रहती है।रामतिल का बीज छोटा होता है, अतः सही बीजांकुर के लिए ढीली एवं भुरभुरी मिट्टी का होना आवश्यक रहता है। तदनुसार 1-2 बार खड़ी तथा आड़ी जुताई करने के पश्चात पाटा चला कर खेत समतल कर लेना चाहिए।
ऊटकमंड, आई.जी.पी.-76 (सह्याद्री), जी.ए.-5 (भवानी), जी.ए.-10 (शिवा), न.-87, एन-5, जेएनसी-1, जेएनसी-6, बिरसा नाइजर-1, देवमाली (जीए-10), आरसीआर-317, पैयूर-1, केआरएन-1।
पंक्ति (कतार) में बुवाई करने हेतु 5-7 किग्रा बीज, तथा छिटकवाँ विधि से बुवाई करने पर 8,-10 किग्रा बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है।
बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
सामान्य तौर पर रामतिल फसल में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है। परंतु संतुलित उर्वरक उपयोग से रामतिल की अच्छी उपज ली जा सकती है। बुवाई के समय 10 किग्रा नाइट्रोजन एवं 20 किग्रा स्फुर प्रति हैक्टेयर देना चाहिए। बुवाई के 30-40 दिन बाद निंदाई के समय 10 किलो अतिरिक्त नाइट्रोजन देना लाभकारी पाया गया है। उर्वरकों को बीज के नीचे कतार में देना चाहिए।
रामतिल सूखा सहन करने वाली फसल है। खरीफ मौसम की फसल होने के कारण रामतिल को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। फसल में फूल व दाना बनते समय खेत में नमी के अभाव से उपज में कमी होती है। अतः लम्बे सूखे की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढोत्तरी होती है।
इस फसल पर प्रमुख रूप से रामतिल इल्ली, बिहारी इल्ली, आदि का प्रकोप होता है। रामतिल की कीट की सहनशील किस्में (आईजीपी-76 और एन-5) लगाना चाहिए। रस चूसने वाले कीटों की रोकथाम के लिए कार्बोरिल (0.15%) का छिड़काव करना प्रभावकारी पाया गया है। इस फसल के फूलों का रसपान मधुमक्खी करती है जो कि परागण में सहायक होती हैं। अतः कीटनाशकों का उपयोग सीमित एवं सावधानीपूर्वक करना चाहिए तथा छिड़काव शाम के समय करना अच्छा रहता है। फसल में पत्ती धब्बा तथा चूर्णी फफूंद रोग लगता है। चूर्णी फफूंद रोग में पत्तियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। इसके उपचार के लिए घुलनशील सल्फेक्स 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से या केराथेन एक ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु बुवाई के पूर्व थाइरम 3 ग्राम बीज की दर से बीज उपचार करना चाहिए।
खरीफ की फसल होने के कारण खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है। रामतिल की अधिक उपज लेने के लिए 1 - 2 बार आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण में रहते हैं। बोने के 15-20 दिन पश्चात और पौध विरलन के समय प्रथम निराई-गुड़ाई करना चाहिए। कतारों के बीच में देशी हल चलाकर यह कार्य जल्दी व कम लागत में किया जा सकता है। रामतिल में कहीं-कहीं अमरबेल खरपतवार की समस्या देखने को मिलती है। इसके लिए बीज को अच्छी तरह छानकर तथा सफाई करके बुवाई करना चाहिए।
हैरों, कल्टीवेटर, खुर्पी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।