आलू की खेती

आलु को सब्जियों का राजा कहा जाता है। भारत की हर रसोई में आलु की खास जगह है। इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी, चाट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च, और विटामिन सी के अलावा आलु में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है। इसे तमिलनाडु छोड़ हर राज्य में चाव से उगाया जाता है।


आलू

आलू उगाने वाले क्षेत्र

भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, पंजाब तथा असम प्रमुख आलु उत्पादक प्रदेश है। अकेला उत्तर प्रदेश ही आलु के कुल उत्पादन का लगभग 48% पैदा करता है। जलवायु व तापमान :- आलु को उन क्षेत्रों में पसंद किया जाता है जहाँ बढ़ते मौसम के दौरान तापमान ठंडा रहता है। वानस्पतिक विकास 24°C पर तथा कंद का विकास 20°C पर सर्वोत्तम होता है। 20-25°C तापमान आलु का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए अनुकूल रहता है।

आलू की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

इसमें पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। 100 ग्राम आलु में 1.6 से 2.0 ग्राम तक प्रोटीन, 18 से 22 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 0.1 ग्राम चिकनाई, 10 मिलीग्राम कैल्शियम, 20 मिलीग्राम मैग्नीशियम, 0.7 मिलीग्राम लोहा होता है। इसके साथ ही विटामिन बी तथा सी पाये जाते हैं। आलु विटामिन सी का एक अच्छा स्रोत है। आधा किलो आलु से विटामिन सी की दैनिक जरूरत पूरी हो जाती है। आलु में आवश्यक अमीनो अम्ल, जैसे- ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन, ट्रिप्टोफेन आदि पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं।

बोने की विधि

आलु बोने की कई विधियां प्रचलित हैं जो कि भूमि की किस्में, खेत में नमी की मात्रा, मजदूर एवं यंत्रों की उपलब्धता आदि बातों पर निर्भर करती है। साधारणत: आलु की बुवाई तीन प्रकार से करते हैं- (i) समतल भूमि में आलु बोना _ इस विधि में खेत को अच्छी प्रकार से तैयार करके रस्सी से खेत में सीधी कतारें डाल ली जाती हैं। इसके बाद इन लकीरों पर हैण्ड-हो या प्लेनेट जूनियर की सहायता से उथले कूँड़ बना लिये जाते हैं। इन कूंड़ो में आलु बोने के बाद ऊपर से मिट्टी को ढककर खेत को समतल कर लिया जाता है। (ii) मेड़ों पर आलु बोना_ इस विधि में खेत को तैयार करने के बाद उचित दूरी पर मेंड़ बनाने वाले यंत्र से मेंड़े बना ली जाती है। इसके बाद आलु के बीज को 20-25 सेमी की दूरी और लगभग 8-10 सेमी गहराई पर बो दिया जाता है। (iii) बोने के बाद मिट्टी चढ़ाना_ इस विधि से पहले खेत में 60 सेमी की दूरी पर लाइनें खींच ली जाती हैं। उसके बाद इन लाइनों पर 20-25 सेमी की दूरी पर आलु के बीज रख दिये जाते हैं। इसके बाद फावड़े की सहायता से बीजों पर दोनों तरफ से मिट्टी चढ़ा दी जाती है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

आलु का आर्थिक लाभ वाला भाग कंद होता है जो कि जमीन में बढ़ता है। इसलिए भूमि का वातावरण बहुत ही महत्वपूर्ण है। भूमि का अधिकतम वातावरण प्राप्त करने के लिए सही समय पर जुताई, निराई करके उसमें घास फूस, कीट एवं बीमारियों से रोका जा सकता है। खेत को एक बार 20-25 सैं.मी. गहरा जोतकर अच्छे ढंग से बैड बनाएं। जोताई के बाद 2-3 बार हैरो से करें व खेत में गोबर की खाद 4 -5 टन मात्रा समान रूप से खेत में फैलाये और फिर 2-3 बार सुहागा फेरें। बुवाई से पहले खेत में नमी की मात्रा बनाकर रखें। बुवाई के लिए दो विधि मुख्य तौर पर प्रयोग किए जाते हैं।

बीज की किस्में

आलू के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

कुफरी अलंकार :- इस फसल को पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्यों में उगाने के लिए सिफारिश की जाती है। यह लंबे कद की और मोटे तने वाली किस्म है। यह फसल मैदानी इलाकों में 75 दिनों में और पहाड़ी इलाकों में 140 दिनों में पकती है। इसके आलु गोलाकार होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 120 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। कुफरी अशोका :- यह लंबे कद की और मोटे तने वाली किस्म है। यह किस्म 70-80 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके आलु बड़े, गोलाकार, सफेद और नर्म छिल्के वाले होते हैं। यह पिछेती झुलस रोग को सहने योग्य किस्म है। कुफरी बादशाह :- इसके पौधे लंबे और 4-5 तने प्रति पौधा होते हैं। इसके आलु गोल, बड़े से दरमियाने, गोलाकार और हल्के सफेद रंग के होते हैं। इसके आलु स्वाद होते हैं। यह किस्म 90-100 दिनों में पक जाती है। यह किस्म कोहरे को सहनेयोग्य है और पिछेती, अगेती झुलस रोग की प्रतिरोधक है। कुफरी बहार:- इस किस्म के पौधे लंबे और तने मोटे होते हैं। तनों की संख्या 4-5 प्रति पौधा होती है। इसके आलु बड़े, सफेद रंग के, गोलाकार से अंडाकार होते हैं। यह किस्म 90-100 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 100-120 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसे ज्यादा देर तक स्टोर करके रखा जा सकता है। यह पिछेती और अगेती झुलस रोग और पत्ता मरोड़ रोग की रोधक है। कुफरी चमत्कार:- इस किस्म के पौधे दरमियाने कद के, फैलने वाले और ज्यादा तनों वाले होते हैं। यह किस्म मैदानी इलाकों में 110-120 दिनों में और पहाड़ी इलाकों में 150 दिनों में पकती है। इस किस्म के आलु गोलाकार और हल्के पीले रंग के होते हैं। मैदानी इलाकों में इसकी औसतन पैदावार 100 क्विंटल और पहाड़ी इलाकों में 30 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह पिछेती झुलस रोग, गलन रोग और सूखे की रोधक किस्म है। कुफरी चिप्सोना2:-इस किस्म के पौधे दरमियाने कद के और कम तनों वाले होते हैं। इसके पत्ते गहरे हरे और फूल सफेद रंग के होते हैं। आलु सफेद, दरमियाने आकार के, गोलाकार, अंडाकार और नर्म होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह पिछेती झुलस रोग की रोधक किस्म है। यह किस्म चिपस और फ्रेंच फ्राइज़ बनाने के लिए उचित है। कुफरी चंद्रमुखी :- पौधे दरमियाने कद के होते हैं आलु अंडाकार, सफेद और हल्के सफेद रंग के गुद्दे वाले होते हैं। यह किस्म अधिक समय के लिए स्टोर करके रखी जा सकती है। यह किस्म मैदानी इलाकों में 80-90 दिनों और पहाड़ी इलाकों में 120 दिनों में पकती है। मैदानी इलाकों में इसकी औसतन पैदावार 100 क्विंटल और पहाड़ी इलाकों में 30 क्विंटल प्रति एकड़ है। यह पिछेती झुलसा रोग, गलन रोग और सूखे की रोधक किस्म है। कुफरी जवाहर :- इसके बूटे छोटे, सीधे, मोटे और कम तनों वाले होते हैं। इसके पत्ते हल्के हरे रंग के होते हैं। आलु दरमियाने आकार के, गोलाकार से अंडाकार और नर्म छिल्के वाले होते हैं यह जल्दी पकने वाली किस्म है और पकने के लिए 80-90 दिनों का समय लेती है। इसकी औसतन पैदावार 160 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह नए उत्पाद बनाने के लिए उचित किस्म नहीं है। यह पिछेती झुलस रोग की रोधक किस्म है। कुफरी पुखराज :-इसके बूटे लंबे और तने संख्या में कम और दरमियाने मोटे होते हैं। आलु सफेद, बड़े, गोलाकार और नर्म छिल्के वाले होते हैं यह किस्म 70-80 दिनों में पकती है। इसकी औसतन पैदावार 160 क्विंटल प्रति एकड़ है। यह अगेती झुलस रोग की रोधक किस्म है और नए उत्पाद बनाने के लिए उचित नहीं है। कुफरी सतलज़:-इस किस्म के पौधे घने और मोटे तने वाले होते हैं। पत्ते हल्के हरे रंग के होते हैं। आलु बड़े आकार के, गोलाकार और नर्म छिल्के वाले होते हैं। यह किस्म 90-100 दिनों में पकती है। इसकी औसतन पैदावार 160 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म खाने के लिए अच्छी और स्वादिष्ट होती है। इन आलुओं को पकाना आसान होता है। यह नए उत्पाद बनाने के लिए उचित किस्म नहीं है। कुफरी सिंधुरी :-इस किस्म के पौधे लंबे और मोटे तने वाले होते हैं। आलु गोल और हल्के लाल रंग के दिखाई देते हैं। इसका गुद्दा हल्के सफेद रंग का होता हैं इसे ज्यादा देर तक स्टोर नहीं किया जा सकता। मैदानी इलाकों में यह 120 दिनों में और पहाड़ी इलाकों में 145 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 120 क्विंटल प्रति एकड़ है। यह किस्म कोहरे, पिछेती झुलस रोग, गलन रोग और सूखे की रोधक है। कुफरी सूर्य :- यह किस्म गर्मियों के मौसम के प्रतिरोधक है और यह सूखे की बीमारी के प्रतिरोधक है। यह किस्म 90-100 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। कुफरी पुष्कर :- यह मध्यम पकने वाली किस्म है जो कि 90-100 दिनों में पकती है। देरी से होने वाली सूखा इस किस्म को प्रभावित नहीं करता और इस किस्म के आलु सामान्य स्थितियों में भंडारण किए जा सकते हैं। इसकी औसतन उपज 160-170 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। कुफरी ज्योति :- यह किस्म पिछेती अवस्था में लगने वाले सूखे के प्रतिरोधक है। इसकी औसतन उपज 80-120 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। कुफरी चिप्सोना 1:- पिछेती अवस्था में लगने वाली सूखे की बीमारी इस किस्म को प्रभावित नहीं करती। इसकी औसतन उपज 170-180 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म चिप्स बनाने के लिए उपयुक्त है। कुफरी चिप्सोना 3 :- पिछेती अवस्था में लगने वाली सूखे की बीमारी इस किस्म को प्रभावित नहीं करती। इस किस्म में सुक्रॉस की मात्रा कम होती है। यह किस्म चिप्स बनाने के लिए उपयुक्त है। इसकी औसतन उपज 165-175 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। कुफरी फरीसोना :-इस किस्म के आलु 75 मि.मी. आकार के होते हैं जो कि फ्रैंच फ्राइज़ बनाने के लिए उपयुक्त है।इसकी औसतन उपज 160-170 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। कुफरी चन्द्रमुखी (ए-2708), कुफरी अलंकार, कुफरी ज्योति, कुफरी बहार, कुफरी कुंदन, कुफरी मेघा, कुफरी चिप्सोना।

बीज की जानकारी

आलू की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज की मात्रा:- बुवाई के लिए छोटे आकार के आलु 8-10 क्विंटल / एकड़ मध्यमआकार के 10-12 क्विंटल और बड़े आकार के 12-18 क्विंटल प्रति एकड़ के लिए प्रयोग करें। आलु 55-60 सेमी की दूरी पर बनी कतारों में बोना चाहिये और कतारों में पौधों से पौधों की दूरी 20-25 सेमी रखनी चाहिये। यदि किसी कारणवश बड़े आकार के आलु बोने पड़े तो पौधों से पौधों की दूरी बढ़ाकर 30 सेमी भी कर सकते हैं। बीज का उपचार :- बुवाईके लिए सेहतमंद आलु ही चुने। बीज के तौर पर दरमियाने आकार वाले आलु, जिनका भार 25-125 ग्राम हो, प्रयोग करें। बुवाई से पहले आलुओं को कोल्ड स्टोर से निकालकर 1-2 सप्ताह के लिए छांव वाले स्थान पर रखें ताकि वे अंकुरित हो जायें। आलु के सही अंकुरन के लिए उन्हें जिबरैलिक एसिड 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर एक घंटे के लिए उपचार करें। फिर छांव में सुखाएं और 10 दिनों के लिए हवादार कमरे में रखें। फिर काटकर आलु को मेंकोजेब 0.5 प्रतिशत घोल (5 ग्राम प्रति लीटर पानी) में 10 मिनट के लिए भिगो दें। इससे आलु को शुरूआती समय में गलने से बचाया जा सकता है।आलु को गलने और जड़ों में कालापन रोग से बचाने के लिए साबुत और काटे हुए आलु को 6 प्रतिशत मरकरी के घोल (टैफासन) 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) में डालें। बिजाई का समय :- अधिक पैदावार के लिए बुवाई सही समय पर करनी जरूरी है। बुवाई के लिए सही तापमान अधिक से अधिक 30-32 सैल्सियस और कम से कम 18-20 सैल्सियस होता है। अगेती बुवाई 25 सितंबर से 10 अक्तूबर तक, मध्यम समय वाली बुवाई अक्तूबर के पहले से तीसरे सप्ताह तक और पिछेती बुवाई अक्तूबर के तीसरे सप्ताह से नवंबर के पहले सप्ताह तक करें। बसंत ऋतु के लिए जनवरी का दूसरा पखवाड़ा बिजाई का सही समय है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

आलु के उत्पादन के लिए बीज का सही चुनाव करना एक महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि पूरे उत्पादन खर्च का सबसे महंगा अंश है तथा इसी पर उपज निर्भर करती है।अच्छी किस्म के स्वस्थ बीज विश्वसनीय स्थानों से ही खरीदनी चाहिये। अधिक उपज के लिए सदैव प्रमाणित बीज ही बोना चाहिये। अधिक छोटे आकार के बीज नहीं बोना चाहिये क्योंकि छोटे आकार के बीज रोगग्रस्त होते हैं। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हुआ है कि छोटा आलु देर से और कम अंकुरित होता है जबकि बड़ा आलु 5-6 दिन पूर्व ही अंकुरित हो जाता है। इससे फसल जल्दी तैयार हो जाती है। कम से कम 2.5-3.3 व्यास वाले आलु जिनका वजन लगभग 30-50 ग्राम हो, बोने चाहियें।

उर्वरक की जानकारी

आलू की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना चाहिए। मृदा विश्लेषण के आधार पर यह मात्रा घट-बढ़ सकती है। उर्वरको का अनुपात एन-पी-के 70:30:40 मात्रा प्रति एकड़ खेत में मिलाये। यूरिया :- 77 किलों प्रति एकड़ खेत में अंतिम जुताई के समय मिलाएं और आधी मात्रा बुवाई के 30 से 35 दिन बाद 38.5 किलो यूरिया और बुवाई के 45 से 50 दिन बाद 38.5 किलो यूरिया टॉप ड्रेसिंग के रूप में फ़सल को दें। फॉस्फोरस :- 188 किलों एसएसपी प्रति एकड़ खेत में सम्पूर्ण मात्रा खेत तैयारी के समय मिलाएं या 66 किलो डीएपी प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं। पोटाश :- 68 किलो mop प्रति एकड़ खेत में सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय मिलाएं। मिट्टी परीक्षण की संस्तुति के अनुसार अथवा 10 किग्रा० जिंक सल्फेट एवं 20 किग्रा० फेरस सल्फेट प्रति एकड़ की दर से बुआई से पहले कम वाले क्षेत्रों में प्रयोग करना चाहिए तथा आवश्यक जिंक सल्फेट का छिड़काव भी किया जा सकता है। पानी में घुलनशील खादें :- मोटे आलुओं की पैदावार के लिए 13:0:45 की 2 किलो और मैगनीश्यिम ई डी टी ए 100 ग्राम प्रति एकड़ की स्प्रे करें। बीमारियों के हमले को रोकने के लिए फंगसनाशी प्रॉपीनेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी डालें। आलुओं का आकार और संख्या बढ़ाने के लिए हयूमिक एसिड (12 प्रतिशत) 3 ग्राम + एम ए पी 12:61:0 की 8 ग्राम या डी ए पी 15 ग्राम प्रति लीटर की स्प्रे पौधे की वृद्धि के समय करें।

जलवायु और सिंचाई

आलू की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

आलु का पलेवा करके बोना चाहिये। पहली सिंचाई आलु बोने के 25 दिन बाद करते हैं, जब पौधे लगभग 7-10 सेमी ऊंचे हो जाते हैं। यदि खेत में नमी हो तो पहली सिंचाई इससे पहले भी की जा सकती है, परन्तु इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि मेंड़े पानी में न डूब पायें। इसके बाद से आवश्यकतानुसार 8-15 दिन के अंतर से सिंचाई करते रहना चाहिए। प्रत्येक सिंचाई में केवल इतना ही पानी लगावें ताकि मेंड़ों का केवल दो तिहाई भाग ही पानी में डूबने पाये। मेंड़े पानी में पूर्ण रुप से डूब जाने से आलु की पैदावार घट जाती है। हल्की भूमि में 6 से 10 तथा भारी भूमि में 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। यदि खेत में सिंचाई या वर्षा का पानी अधिक हो जाये तो उसका अच्छी तरह से जल निकास कर देना चाहिये। खुदाई से 18-20 दिन पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिये।

रोग एवं उपचार

आलू की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) अगेती झुलसा - यह रोग अल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंदी से पैदा होता है। यह फसल के कंद बनने प्रारंभ होने से पहले भी लग सकता है। नीचे वाली पत्तियां सबसे पहले संक्रमित होती हैं जहां से रोग बाद में ऊपर की ओर बढ़ता है। पतियों पर जहां-तहां छोटे हल्के रंग के धब्बे उभरते हैं जो बाद में भूरे काले रंग के हो जाते हैं और मृत ऊतकों पर उभरे हुए घेरे बनते हैं फलस्वरुप नीचे की पत्तियां सूख कर गिरने लगती हैं। रोकथाम _ डायथेन एम - 45 की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के घोल के हिसाब से घोलकर बुवाई से 25-30 दिन बाद पहला छिड़काव करना चाहिये। घोल की यह मात्रा 10 - 15 दिन के अन्तर से 3 - 4 छिड़काव करने पर रोग से फसल को बचाया जा सकता है। (ii) पछेती झुलसा _ यह रोग फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टैन्स नमक फफूंदी से पैदा होती है। इस रोग में पत्तियों की नसों, तनों और डंठलों पर छोटे भूरे रंग के धब्बे उभरते हैं जो बाद में काले पड़ जाते हैं और पौधों का पूरा भाग सड़ - गल जाता है। रोकथाम देरी से होने पर आलु के कन्द भूरे बैंगनी रंग में बदलकर गलने लगते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डायथेन एम-45 की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के घोल के हिसाब से घोलकर बुवाई से 25-30 दिन बाद पहला छिड़काव करना चाहिये। घोल की यह मात्रा 10 - 15 दिन के अन्तर से 3-4 छिड़काव करने पर रोग से फसल को बचाया जा सकता है। (iii) मोजेक रोग _ इस यह रोग विषाणुओं द्वारा फैलता है। इसमें पत्तियों पर नसें उभरती हैं और बाद में पीली पड़ जाती है। पत्तियों का रंग हल्का होने लगता है। बाद में पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है तथा रोगग्रस्त पौधों में आलु भी छोटे आकार के लगते हैं। रोकथाम _ स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही बोने चाहिये। रोगग्रस्त पौधों को खेत से निकाल कर जला देना चाहिये। प्रायः यह रोग माहू द्वारा फैलता है। अतः माहू की रोकथाम के लिये फसल पर एक लीटर मेटासिस्टॉक्स 25 ई.सी. को 1,000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

खरपतवार नियंत्रण

आलु के अंकुरन से पहले मेट्रिब्यूजिन 70 डब्लयु पी 200 ग्राम या एलाकलोर 2 लीटर प्रति एकड़ डालें। यदि खरपतवारों का प्रकोप कम हो तो बुवाई के 25 दिन बाद मैदानी इलाकों में और 40-45 दिनों के बाद पहाड़ी इलाकों में जब फसल 8-10 सैं.मी. कद की हो जाये तो खरपतवारों को हाथों से उखाड़ दें। आमतौर पर आलु की फसल में खरपतवारनाशक की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि जड़ों को मिट्टी लगाने से सारे खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार दिखाई पड़ते ही उन्हें खेत से बाहर निकाल देना चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलटने वाला हल, देशी हल, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा।