मटर की खेती

मटर एक दलहनी फसल है। लैग्यूमिन सीड परिवार से संबंध रखती है। यह ठंडे मौसम वाली फसल है। इसकी हरी फलियां सब्जी बनाने और सूखी फलियां दालें बनाने के लिए प्रयोग की जाती हैं। यह प्रोटीन और अमीनो एसिड का अच्छा स्त्रोत है। यह फसल पशुओं के लिए चारे के तौर पर भी प्रयोग की जाती है।


मटर

मटर उगाने वाले क्षेत्र

भारतवर्ष में मटर की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब और लगभग सभी जगहों पर उगाई जाती है। जलवायु और तापमान :- फसल की उचित वृद्धि तथा अच्छी पैदावार के लिए बुवाई के समय 22-25 डिग्री सें.ग्रेड तथा फूल व फलियां बनने के समय 15-18 सें.ग्रेड तापमान अच्छा पाया गया है। फूल आने की अवस्था में भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। मिट्टी :- मटर (Pea) प्रायः सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है। परन्तु दोमट से लेकर बलुई दोमट भूमि अच्छी मानी गई है। पहली जुताई गहरी करने के पश्चात् पाटा लगाकर खेत में डले न रहने दें व बिजाई से पहले पलेवा करें। खेत समतल तथा उसमें जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।

मटर की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

मटर में 22% प्रोटीन 65% कार्बोहाइड्रेट 1.8% वसा तथा अन्य पदार्थ पाए जाते हैं ।

बोने की विधि

मटर की बुवाई हल के पीछे कूँड़ों में करनी चाहिए। कूँड़ों के बीच 30 सेंटीमीटर का अंतर तथा कूँड़ में बीज 4.5 सेंटीमीटर गहराई पर डालना चाहिए। दो पौधों के बीच का अंतर 5 से 7 सेंटीमीटर रखना चाहिए।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

मटर की बुवाई के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 15 सेंटीमीटर गहरी करनी चाहिए। फिर 2 से 3 जुताई देशी हल या हैरो से करके पाटा लगा देना चाहिए। मटर एक दलहनी फसल है अतः इसे विशेष खाद की आवश्यकता नहीं होती फिर भी 4-5 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद फसल बोने से 1 माह पूर्व खेत में मिला देनी चाहिए।

बीज की किस्में

मटर के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

अर्कल :- यह एक अगेती किस्म है और बुवाई के 60-65 दिन बाद फलिया तुड़ाई योग्य हो जाती हैं। पौधे बौने, बीज सिकुड़े हुए तथा फलियां हरी, लम्बी (8-10 सें.मी.) होती हैं। इसकी हरी फलियों की औसत पैदावार 25-३५ क्विंटल प्रति एकड़ होती है। पूसा प्रभात (DDR-23) :- यह वैरायटी 2001 में इजाद की गई थी। यह बिहार, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है। पूसा प्रभात सिंचित व् बारानी दोनों स्थितियों के लिए अच्छी है। यह किस्म बोनी और जल्दी पकने वाली है और चुर्निय फफूंद के प्रतिरोधी है।इसकी हरी फलियों की औसत पैदावार 30-35 क्विंटल प्रति एकड़ होती है ! पूसा पन्ना (DDR-27) :- यह वैरायटी 2001 में इजाद की गई थी। यह उत्तर प्रदेश, हरियाणा राजस्थान व पंजाब के लिए उपयुक्त है। पूसा प्रभात सिंचित व बारानी दोनों स्थितियों के लिए अच्छी है। यह किस्म बोनी और 90 दिन में पकने वाली किस्म है और चुर्निय फफूंद रोग के प्रतिरोधी हैं। औसत पैदावार 17.7 क्विंटल प्रति एकड़ है। पूसा श्री :- ये अगेती बिजाई वाली किस्म है। ये किस्म करीब 25 से 27 क्विंटल प्रति एकड़ की पैदावार देती है और उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। ये किस्म सितम्बर अंत से अक्टूबर शुरुआत तक बुवाई के लिए अच्छी है। इसकी फलियां गहरी हरी होती हैं और एक फली में 6 से 7 दाने होते है। फलियां तुड़ाई के लिए 50 से 55 दिन में तैयार हो जाती है। हिसार हरित (पी.एच.-1) :- यह भी अगेती किस्म है। बिजाई के 70 दिन बाद पहली तुड़ाई की जाती है। फलियां लम्बी, हरी व अच्छी भरी हुई होती हैं। बीज हरा व सूखने पर थोड़ा सिकुड़ा हुआ होता है। इसकी पैदावार 30-35 क्विंटल प्रति एकड़ है। बोनविले :- यह एक अर्द्ध-पछेती किस्म है। इसके दाने मीठे, सिकुड़े हुए होते हैं। यह अक्टूबर के मध्य में बिजाई के लिए उपयुक्त है और 100 दिन में पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार 30 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाती है। बायोसीड पी10 (Bioseed P10) :- बिजाई के 65 से 75 दिन बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी फली में 9 से 11 दाने होते है। ये वैरायटी ज्यादा उत्पादन देती है और क्वालिटी भी अच्छी है। काशी उदय :- 2005 में विकसित की गई इस किस्म की यह विशेषता है, कि इसकी फली की लंबाई 9 से लेकर 10 सेंटीमीटर होती है। इसकी उपज प्रति हेक्टेयर 40 क्विंटल प्रति एकड़ है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के लिए उपयुक्त है। मधु :- मटर की यह मध्यम अवधि वाली किस्म है। इसकी फलियां 75 से 80 दिन में तोड़ने योग्य हो जाती हैं। इसकी फलियों की उपज 35 से 40 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। काशी अगेती :- मटर की यह किस्म 2015 में विकसित की गई। यह 50 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी फलियां सीधी और गहरी होती हैं। पौधे की लंबाई 58 से 61 सेंटीमीटर होती है। एक पौधे में 9 से लेकर 10 फलियां लगती हैं। प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 35 से 40 क़्वींटल प्रति एकड़ होता है। असौजी :-आई ए आर आई की तरफ से तैयार की गई किस्म है। अगेती सुपर्ब :- यह इंग्लैंड की तरफ से तैयार की गई छोटे कद की किस्म है। लिटिल मार्वेल:- यह छोटे कद की इंग्लैंड की किस्म है। जवाहर मटर 3 :- इस किस्म की पैदावार 16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। जवाहर मटर 4 : -इस किस्म की पैदावार 28 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। बोनविल्ले :- यह अमरीका की किस्म है जिसकी औसतन पैदावार 36 क्विंटल प्रति एकड़ है। पंत उपहार:-इसकी औसतन पैदावार 40 क्विंटल प्रति एकड़ है। ऊटी 1 :- इसकी औसतन पैदावार 48 क्विंटल प्रति एकड़ है। मटर अगेता 6 :-यह पी ए यू लुधियाणा की तरफ से तैयार की गई अगेती और छोटे कद की किस्म है। इसके दाने मुलायम और हरे रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 24 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। फ़ील्ड पी 48 :- यह अगेती पकने वाली दरमियानी किस्म है। इसके दाने हल्के हरे रंग के मोटे और झुरड़ियों वाले होते हैं। यह 135 दिनों में पकती है। यह सब्जी बनाने के लिए अच्छी मानी जाती है। इसकी औसतन पैदावार 27 क्विंटल प्रति एकड़ है।

बीज की जानकारी

मटर की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

एक एकड़ क्षेत्र के लिए 35-40 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। बीज का उपचार :- बुवाई से पहले बीजों को कप्तान या थीरम 3 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 2.5 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। रासायनिक तरीके से उपचार के बाद बीजों से अच्छी पैदावार लेने के लिए उन्हें एक बार राइज़ोबियम लैगूमीनोसोरम से उपचार करें। इसमें 10 प्रतिशत चीनी या गुड़ का घोल होता है। इस घोल को बीजों पर लगाएं और फिर बीज को छांव में सुखाएं। इससे 8-10 प्रतिशत पैदावार में वृद्धि होती है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

मटर का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से खरीदें।

उर्वरक की जानकारी

मटर की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

मटर की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। मटर मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद की सिफारिश की गयी। उर्वरकों का अनुपात - एनपीके 15:30:10 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करें। नत्रजन :- 16 किलो यूरिया प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं और 17 किलो यूरिया बुवाई के 30 से 35 दिन बाद खड़ी फ़सल में डालें। फॉस्फोरस :- 188 किलो एसएसपी प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाएं। पोटाश :- 17 किलो म्यूरेट ऑफ पोटाश (mop) प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाएं। जड़ों के अच्छे विकास के लिए पोटाश की जरूरत होती है।

जलवायु और सिंचाई

मटर की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

आवश्यकता पड़ने पर पहली सिंचाई फूल आने से पूर्व तथा फसल बोने के 40 से 45 दिन बाद करनी चाहिए तथा दूसरी सिंचाई फलियाँ बनते समय फसल बोने के लगभग 60 दिन बाद करनी चाहिए। मटर की फसल में यदि वर्षा के कारण अतिरिक्त जल भर जाए तो अतिरिक्त जल की निकासी अवश्य कर देनी चाहिए।

रोग एवं उपचार

मटर की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

चूर्णी फफूंदी रोग - यह रोग फफूंदी के द्वारा फैलता है। इस रोग के कारण पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसी रचना दिखाई देती है। इससे फसल को काफी हानि होती है। इसके उपचार हेतु1 किलोग्राम घुलनशील गंधक; सल्फेक्स को 300 लीटर जल में घोलकर एक एकड़ फसल पर छिड़काव करना चाहिए। गेरुई रोग - यह रोग फफूंदी के द्वारा लगता है। इस रोग के कारण पौधे की पत्तियों तथा तनों पर पीले धब्बे पड़ जाते हैं, तथा बाद में इनका रंग भूरा तथा काला पड़ जाता है। इस रोग की रोकथाम के लिए जिनेब (डाइथेन एम-45) के 1 किग्रा प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करना चाहिए। मटर का थ्रिप और चेपा :- यह पत्तों का रस चुसते हैं जिस कारण पत्ता पीला हो जाता है और पैदावार कम हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिए डाइमैथोएट 30 ई सी 400 मि.ली. को 80-100 लीटर पानी में डालकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। जरूरत पड़ने पर 15 दिनों के बाद दोबारा छिड़काव करें। फली छेदक :-यह मटर की फसल का खतरनाक कीट है। यदि इस कीड़े की रोकथाम जल्दी ना की जाये तो यह फूलों और फलियों को 10 से 90 प्रतिशत नुकसान पहुंचाता है। शुरूआती नुकसान के समय कार्बरिल 900 ग्राम को प्रति 100 लीटर पानी में डालकर प्रति एकड़ पर स्प्रे करें। जरूरत के अनुसार 15 दिनों के फासले पर दोबारा स्प्रे करें। ज्यादा नुकसान के समय क्लोरोन्टिनीपोल18.5 SC (कोराजन) 50ML प्रति एकड़ साथ प्रोफेनोफास 50EC 200 ML प्रति एकड़ पानी में घोलकर छिड़काव करें। पत्तों पर सफेद धब्बे :- पत्तों के निचली तरफ, शाखाओं और फलियों पर सफेद रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इसके कीट पौधे को अपने भोजन के रूप में लेते हैं। ये फसल की किसी भी अवस्था में विकसित हो सकते हैं। ज्यादा हमले के कारण पत्ते गिर भी जाते हैं। यदि इसका हमला दिखे तो कैराथेन 40 ई सी 80 मि.ली. को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। 10 दिनों के अंतराल पर कैराथेन की तीन स्प्रे करें।

खरपतवार नियंत्रण

फसल को खरपतवारों से बचाने के लिए फसल बोने के 25 से 30 दिन बाद एक निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर दूसरी निराई-गुड़ाई फसल बोने के 40 से 45 दिन बाद कर लेनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए बेसालीन के एक किलोग्राम को 1,000 लीटर जल में घोलकर बुवाई से पूर्व भूमि में छिड़काव करके हैरो द्वारा जुताई करनी चाहिए ।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, या हैरों, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है।