सरसों की खेती

सरसों की फसल का मानव तथा पशुओं के जीवन में विशेष महत्व है। मानव इसके हरे कोमल भागों का शाक के रूप में प्रयोग करता है तथा इसके बीज का तेल खाने के काम आता है तथा इसके तेल से ग्रीस, साबुन, प्लास्टिक आदि बनाए जाते हैं। इसकी हरी फसल पशुओं के चारे में काम आती है तथा इसकी खली पशुओं के लिए बहुत लाभदायक होती हैं।


सरसों

सरसों उगाने वाले क्षेत्र

भारतवर्ष में सरसों की खेती उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, असम, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उड़ीसा आदि प्रदेशों में की जाती है।

सरसों की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

सरसों के तेल में 60 % मोनो अनसैचुरेटेड फैटी एसिड ( 42 % ईरूसिक एसिड तथा 12 % ओलेइक एसिड ) तथा पोली अनसैचुरेटेड फैटी एसिड (6 % ओमेगा-3 फैटी एसिड और 15 % ओमेगा-6 फटी एसिड) होते हैं।

बोने की विधि

सरसों की शुद्ध अकेली फसल को छिटकवाँ या लाइनों में बोया जाता है, वैसे अच्छी फसल लेने के लिए बुवाई पंक्तियों में करनी चाहिए। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-45 सेमी. पौध से पौध की दूरी 10-15 सेमी. एवं बीज की गहराई 4-5 सेमी रखनी चाहिए। बुवाई के तरीके :- शुष्क दशाओं में अच्छी फसल लेने के लिए पौधों की उचित एवं वांछित पौध संख्या बनाये रखना वांछित पौध संख्या बनाये रखना वास्तव में बाधा है। इस समस्या के निवारण हेतु जहाँ तक संभव हो बीज को रिजर सीडर द्वारा पंक्तियों में बोया जाये।बुवाई के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज उर्वरक के संपर्क में न आये अन्यथा अंकुरण प्रभावित होगा। इसके लिए बीज को 4-5 से भी गहरा तथा उर्वरक को 7-10 से.मी. गहरा डाला जाये। अच्छे अंकुरण एवं उचित पौध संख्या को सुनिश्चित करने के लिए बुवाई से पूर्व बीजों को पानी में भिगोकर बोया जाये। इसके लिए सही तरीका यह होगा कि भीगे बोरे में बीजों को रखकर रात भर ढक दिया जाये या गीली मिट्टी में रख सकते हैं। बुवाई के तुरंत बाद यदि वर्षा हो जाये तब ऐसी स्थिति में पुनः बुवाई कर देनी चाहिए। अच्छे अंकुरण के लिए भूमि में 10-12 प्रतिशत नमी होनी चाहिए। बीजोपचार :- बीज जनित रोगों से सुरक्षा के लिए उपचारित एवं प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए। इसके लिए 2.5 ग्राम थीरम प्रति किग्रा०बीज की दर से बीज को उपचारित करके ही बोयें। यदि थीरम उपलब्ध न हो तो मैकोजेब 75 % WP 3 ग्राम प्रति किग्रा०बीज की दर से उपचारित किया जा सकता है। मैटालेक्सिल 1.5 ग्राम प्रति किग्रा०बीज की दर से शोधन करके पर प्रारम्भिक अवस्था में सफेद गेरूई एवं तुलासिता रोग की रोकथाम हो जाती है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

इसकी खेती रेतीली भूमि से भारी मटियार तक की सभी भूमियों में की जा सकती है परंतु दोमट भूमि में इसकी अच्छी पैदावार होती है तथा क्षारीय भूमि में इसकी फसल अच्छी होती है। सरसों की फसल के लिए खेत तैयार करते समय पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 15 सेंटीमीटर गहरी करनी चाहिए। इसके बाद 2-3 जुताई हैरों से करनी चाहिए तथा जुताई के बाद, पाटा लगाना चाहिए जिससे भूमि भुरभुरी हो जाए और नमी बनी रहे।सरसों की फसलों के लिए फसल की बुवाई के एक माह पूर्व जुताई के समय 4 से 5 टन प्रति एकड़गोबर की खाद खेत में डालकर जुताई कर देनी चाहिए।

बीज की किस्में

सरसों के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

👉 आरएच 725 :- एचएयू में विकसित सरसों की नई किस्म आरएच 725 अधिक उपज के कारण किसानों के लिए बहुत लाभदायक हो सकती है। यह प्रजाति 136 से 143 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी फलियां लंबी होती हैं । फलियों में दानों की संख्या 17-18 तक है तथा दानों का आकार मोटा है। इसकी फलियों वाली शाखाएं लंबी होती हैं और उनमें फुटाव भी ज्यादा है। सरसों की ये वैरायटी किसानो द्वारा काफी पसंद भी की जा रही है। प्रति एकड़ पैदावार का अनुमान RH 0749 से ज्यादा का लगाया जा रहा है । 👉 आर एच 0749 :- इस किस्म की सन् 2013 में भारतवर्ष के जोन-2 (हरियाणा, पंजाब, दिल्ली व राजस्थान के कुछ क्षेत्र) के सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए सिफारिश की गई है। यह 145-148 दिनों में पकती है व इसकी मध्यम ऊँचाई होती है। इस किस्म की फलियां लंबी व मोटी होती हैं व दाने का आकार भी बड़ा (5.8 ग्राम/1000 बीज) होता है। इसमें तेल मी मात्रा 39-40 प्रतिशत व इसकी औसत पैदावार 10.0-11.5 क्विटल/एकड़ है। 👉 आर.एच 30 :- पछेती बिजाई में भी यह अन्य किस्मों से अधिक पैदावार देती है। इसको नवम्बर के अन्त तक बोया जा सकता है। इसका बीज मोटा होता है (5.5 से 6.0 ग्राम/1000 बीज। पकने के समय फलियां नहीं झड़तीं। मिश्रित खेती के लिए यह एक उत्तम किस्म है। यह 135 से 140 दिन में पकती हैं। इसकी औसत उपज 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ है तथा तेल अंश 40 प्रतिशत है। 👉 टी-59 (वरूणा) :- यह किस्म कानपुर (उ.प्र.) में विकसित की गई है। यह 140-142 दिन में पकती है। इसका बीज मोटा होता है (5 से 5.5 ग्राम प्रति 1000 बीज) और पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ है व तेल अंश 40 प्रतिशत है। 👉 आर एच 8113 (सौरभ) :- यह किस्म 150 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। यह लम्बी बढ़ने तथा घनी शाखाओं वाली किस्म है जिसके नीचे के पत्ते चौड़े, धारियां लम्बी तथा मध्य-शिरा चौड़ी होती है। इसकी औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति एकड है। बीज मध्यम आकार के (बीज भार 3.5 ग्राम/ 1000 दाने) तथा गहरा-भूरा रंग लिए होते हैं जिनमें 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। इस फिल्म की विशेषता यह है कि आल्टरनेरिया, सफेद रतुआ तथा डाऊनी मिल्ड्यू रोगों की मध्यम प्रतिरोधी है। 👉 आर.बी. 50 :- इस किस्म को 2009 में भारतवर्ष के जोन-2 (हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, राजस्थान के कुछ हिस्सों) में बारानी क्षेत्रों के लिए केन्द्रीय किस्म विमोचन समिति ने विमोचित किया है। इसकी फलियां लम्बी एवं मोटी है। यह अधिक बढ़ने वाल (194-207 सें. मी. मध्यम समय में पकने वाली (146 दिन) एवं मोटे दाने (5.5-6.0 ग्राम/1000 दाने) वाली किस्म है। समय पर बिजाई से बारानी क्षेत्रों में इसकी औसत पैदावार 7.2 क्विंटल प्रति एकड़ है। इसमें तेल अंश 39 प्रतिशत है। 👉 आर.एच. 8812 (लक्ष्मी) :- यह अधिक उपज देने वाली किस्म है इस किस्म की पत्तियां छोटी, शाखाओं का रुख ऊपर की ओर व तना एवं शाखायें चमक रहित होती है। फलियां मोटी, बीज मोटे तथा काले रंग के होते है। इसकी औसत पैदावार 9-10 क्विंटल प्रति एकड़ हैं यह किस्म 142-145 दिन में पकती है तथा तेल अंश 40 प्रतिशत है। 👉 आर एच 781 :- इस किस्म की मुख्य विशेषतायें इस प्रकार हैं पकने में 140 दिन, ऊँचाई मध्यम (180 सैंमी.) भरपूर फुटाव व टहनियां, मध्यम आकार का दाना (4.2 ग्राम/1000 बीज) तथा तेल अंश 40 प्रतिशत। इसकी औसत पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है तथा यह पाला व सर्दी की सहनशील है। 👉 आर एच 819 :- यह किस्म बारानी क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है। यह लम्बी (226 सैं.मी.) मध्यम समय (148 दिन) में पकने वाली व मध्यम आकार के दानों(4.5 ग्राम/1000 बीज) वाली किस्म है। इसका तेल अंश 40 प्रतिशत है। इसके पत्ते गहरे रंग के, टहनियां भरपूर व छोटी होती हैं। बारानी क्षेत्रों में इसकी औसत पैदावार 5.5 क्विंटल प्रति एकड़ है जो कि आर एच 30 व वरूणा से क्रमश: 10 तथा 30 प्रतिशत अधिक है। 👉 आर एच 9304 (वसुन्धरा):- इस किस्म को वर्ष 2002 में केन्द्र ने भारतवर्ष में जोन-3 (उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, मध्यप्रदेश व राजस्थान के कुछ हिस्सों) के लिए अनुमोदित किया है । इस किस्म की मुख्य विशेषतायें इस प्रकार हैं पकने में 130-135 दिन, ऊँचाई मध्यम (180-190 सै.मी.) भरपूर फुटाव व टहनियां, मोटे दानों वाली(5.6 ग्राम/1000 बीज) तथा तेल अंश 40 प्रतिशत। इसकी औसत पैदावार 9.5-10.5 क्विंटल प्रति एकड़ है तथा पकने के समय इसकी फलियां नहीं झड़ती तथा उच्च तापमान के प्रति मध्यम सहनशील है। 👉 आर एच 9801 (स्वर्ण ज्योति) :- इस किस्म को लाईन आर.सी. 1670 से विकसित किया गया है तथा केन्द्र ने देश के जोन-3 (उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश व राजस्थान के कुछ हिस्सों) के लिए वर्ष 2002 में अनुमोदित किया है। इसकी औसत उपज 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है व इसको नवम्बर के अन्त तक भी बीजा जा सकता है। यह 125-130 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तथा इसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत है। इसका दाना मध्यम आकार का (4.0 ग्राम/1000 बीज) है पकने के समय इसकी फलियां नहीं झड़ती। 👉 आर एच 0406 :- इस किस्म का भारतवर्ष के जोन-2 (हरियाणा, पंजाब, दिल्ली व राजस्थान के कुछ क्षेत्र) के बारानी क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए अनुमोदन सन् 2012 में किया गया है। इस किस्म की ऊँचाई मध्यम है व यह पकने के लिए 142-145 दिन लेती है। यह किस्म मोटे दानों वाली (5.5 ग्राम/1000 बीज) है एवं इसमें फलियों की स्थिति में झुकाव प्रतिरोधकता भी है। इस किस्म में तेल अंश 39 प्रतिशत व इसकी औसत उपज 8.5 -9.5 क्विंटल/एकड़ है। यह किस्म सिंचित अवस्था में भी अच्छी पैदावार दे देती है। 👉 पायोनियर 45S46 :-सरसों की ये एक संकर किस्म है. जिसको उत्तर भारत के मैदानी प्रदेशों में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के बीजों की रोपाई मध्य अक्टूबर में की जाती है. एक हेक्टेयर में इसकी खेती के लिए तीन से चार किलो बीज काफी होता है. इस किस्म के पौधों को विकास करने के लिए दो से तीन सिंचाई की ही जरूरत होती है. इसके पौधे की लम्बाई पांच फिट के आसपास पाई जाती है. इसमें बालियों की संख्या काफी ज्यादा होती है. इस किस्म के पौधे प्रति एकड़ 12 से 15 क्विंटल तक पैदावार दे सकते है। 👉पूसा जय किसान :-सरसों की इस इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 130 से 135 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते है. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 38 से 40 प्रतिशत के बीच पाई जाती है। 👉 श्रीराम 1666 :-सरसों की ये भी एक संकर किस्म है. इस किस्म का उत्पादन मध्य और उत्तर भारत में ही किया जाता है. इस किस्म के बीजों की रोपाई के लिए मध्य अक्टूबर का समय उपयुक्त माना जाता है. इस किस्म के पौधे पांच फिट के आसपास लम्बाई के पाए जाते है. इसके पौधों पर बालियों की संख्या ज्यादा पाई जाती है. इसके पौधे रोपाई के चार महीने बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 35 क्विंटल के आसपास पाया जाता है। 👉 प्रोएग्रो 5222 (बायर 5222) :-सरसों की ये एक संकर किस्म है. इस किस्म का उत्पादन राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और गुजरात में अधिक किया जाता है. एक एकड़ में इसकी खेती के लिए लगभग एक से सवा किलो के आसपास बीज की जरूरत होती है। इस किस्म के पौधों की लम्बाई पांच से सात फिट के बीच पाई जाती है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 37 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत तक पाई जाती है। 👉 माहिको MRR 8020 :-सरसों की इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 125 से 130 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसके पौधों की लम्बाई पांच फिट से ज्यादा पाई जाती है। जिस पर बालियों की मात्रा काफी ज्यादा होती है. इसकी एक बाली में 18 के आसपास दानो की संख्या पाई जाती है. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 25 से 30 क्विंटल तक पाया जाता है। इस किस्म की सरसों के दानो में तेल की मात्रा काफी ज्यादा पाई जाती है.पूसा जय किसान,आशीर्वाद, आए.एच.30, पूसा बोल्ड,लक्ष्मी (आर.एच.8812), क्रांति (पी.आर.15), आदि।

बीज की जानकारी

सरसों की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

सरसों की अकेली फसल 2 से 3 किलोग्राम प्रति एकड़, मिश्रित फसल 1 से 2किलोग्राम बीज प्रति एकड़।

बीज कहाँ से लिया जाये?

सरसों का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से  खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

सरसों की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

👉 उर्वरकों का प्रयोग भूमि परीक्षण के आधार पर करें। यदि परीक्षण न कराया गया हो तो उर्वरकों का अनुपात एनपीके 40:30:20 प्रति एकड़ प्रयोग करें। 👉यूरिया :- 44 किलों प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं। शेष 44 किलों खड़ी फ़सल खरपतवारों को निकालने के बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में डालें। 👉फॉस्फोरस :- 188 किलों एसएसपी प्रति एकड़ सम्पूर्ण मात्रा बुवाई केसमय खेत मिलाएं। 👉पोटास :- 34 किलों म्यूरेट ऑफ पोटास प्रति एकड़सम्पूर्ण मात्रा बुवाई केसमय खेत मिलाएं। 👉5 किग्रा सल्फर की मात्रा प्रति एकड़ खड़ी फ़सल में देनी चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

सरसों की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

सरसों वर्ग की फसलों के लिए पानी की आवश्यकता पड़ती है। तोरिया, पीली सरसों, सरसों लाहा में दो सिंचाई लाभदायक होती है जिन्हें बुवाई के बाद 15, 33, 50, 63, व 79 दिनों पर दिया जाये इसकी जल मांग 400 मिमी या 40 से.मी. है पहली दो सिंचाई हल्की होनी चाहिए तथा बाद की सिंचाई में 75 मि.मी. पानी प्रत्येक सिंचाई में हो यह प्रयोग द्वारा देखा गया है कि पहली सिंचाई देर से कि जाये जिससे शाखाएं फूल और फलियाँ अधिक बनती  है। पहली सिंचाई का सबसे अच्छा समय फूल लगने पर बुवाई के 25-30 दिन बाद होता है और दूसरी सिंचाई फली की अवस्था में दी जाये। सिंचाई पर्याप्त रहती है यदि जाड़ो में एक वर्षा हो जाये तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

रोग एवं उपचार

सरसों की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) झुलसा रोग - यह रोग फफूंद से लगता है। इस रोग के कारण पौधे पीले होकर सूख जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 का 0.02% का घोल बनाकर 4 से 5 बार 10 से 15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए। (ii) मृदु रोमिल फफूंद - यह रोग फफूंदी से उत्पन्न होता है। इस रोग से पत्तियों पर सफेद चुर्ण सा दिखाई देता है। इससे दानों में तेल की मात्रा कम हो जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए जिनेब डाइथेन जेड- 78 का 0.1% के घोल का फसल पर 10 से 15 दिन के अंतराल से छिड़काव करना चाहिए। (iii) सफेद गेरुई - यह रोग भी फफूंदी के द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग से पत्तियों के निचले भाग पर सफेद फफोले बन जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए जिनेब डाइथेन जेड- 78 का 0.2% के घोल का फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नष्ट करने के लिए एक निराई-गुड़ाई करनी चाहिए तथा पेन्डीमेथलीन 30 ई.सी. की 1 लीटर मात्रा प्रति एकड़ की दर से 200 - 300 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के बाद तथा जमाव से पहले छिड़काव करना चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, या हैरों, कल्टीवेटर, खुर्पी, फावड़ा, दराँती, थ्रेशर, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।