अलसी समशीतोष्ण प्रदेशों का पौधा है। रेशेदार फसलों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके रेशे से मोटे कपड़े, डोरी, रस्सी और टाट बनाए जाते हैं। इसके बीज से तेल निकाला जाता है और तेल का प्रयोग वार्निश, रंग, साबुन, रोगन, पेन्ट तैयार करने में किया जाता है।
अलसी के मुख्य उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार पश्चिमी बंगाल, और महाराष्ट्र हैं।
अलसी में प्रोटीन, विटामिन B1, मैंगनीज़, मैग्नीशियम, फास्फोरस, सेलेनियम, विटामिन B6, आयरन, पोटेशियम, कॉपर और जिंक, आदि तत्व पाये जाते हैं।
इसकी बुवाई लाइनों में हल के पीछे कूंड में की जाती है। बीज उददेशीय हेतु लाइन से लाइन की दूरी 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। दो-उददेशीय प्रजातियों हेतु लाइन से लाइन की दूरी 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके 2-3 जुताई हैरों या कल्टीवेटर से करते हैं, बाद में पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।
नीलम, टा.397, गरिमा, लक्ष्मी, श्वेता, शुभ्रा, गौरव, हिमालिनी, पूसा-2, पूसा-3 शेखर, शिखा, रश्मि।
25 से 30 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
अलसी का बीज विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
सिंचित क्षेत्रों में - 100 किग्रा नाइट्रोजन, 60 किग्रा फास्फोरस तथा 40 पोटाश/है. की आवश्यकता होती है। असिंचित दशा में - 50 किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा फास्फोरस एवं 40 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फूल आने के ठीक पहले कर देना चाहिए।
(i) गेरुआ रस्ट - यह रोग मेलाम्पेसोरा लाईनाई कवक के कारण होता है। इसका प्रकोप जनवरी के अंतिम सप्ताह से शुरू हो जाता है तथा फरवरी तक इसका फैलाव स्पष्ट दिखाई देने लगता है। आरम्भ में रोग द्वारा चमकदार नारंगी रंग के धब्बे पत्तियों के दोनों ओर दिखाई देने लगते हैं। ये धब्बे लगभग 1-1.5 सेमी. व्यास के होते हैं। यह रोगजनक की यूरिडीयल अवस्था है। रोग की उग्र अवस्था में सभी पत्तियां सूखकर गिर जाती हैं। इसके नियंत्रण के लिए रोगरोधी किस्मों को उगाना चाहिये तथा फरवरी माह के प्रथम सप्ताह में केवल एक छिड़काव घुलनशील गंधक 0.2% का भुरकाव करना चाहिए। दूसरा छिड़काव या भुरकाव आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। (ii) उकठा या म्लानि - यह अलसी का प्रमुख हानिकारक मृदा जनित रोग है। इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अंदर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिये रोगरोधी किस्मों की बुवाई करना चाहिए।
खरपतवार प्रबन्धन के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निराई-गुड़ाई एवं 40 से 45 दिन पश्चात दूसरी निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु एलाक्लोर एक किग्रा सक्रिय तत्व को बुवाई के पश्चात एवं अंकुरण पूर्व 500 से 600 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिड़काव करने से खरपतवार उग नही पाते हैं।
देशी हल या हैरों, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा