मसूर की खेती

मसूर की खेती दाने के लिए की जाती है तथा दाने का प्रयोग प्रमुख रूप से दाल के लिए किया जाता है। दाल के अतिरिक्त मसूर के दाने का प्रयोग अन्य व्यंजन बनाने के लिए भी किया जाता है। मसूर की दाल अन्य दालों की अपेक्षा अधिक पौष्टिक तो होती ही है, साथ ही रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यंत लाभदायक होती है। पेट की बीमारियों तथा अन्य बीमारियों के मरीजों को हल्का भोजन प्रदान करने के उद्देश्य से मसूर की दाल का प्रयोग किया जाता है। मसूर के पौधे को हरे चारे के रूप में जानवरों को खिलाया जाता है। इसके अतिरिक्त मसूर का भूसा अत्यंत पोष्टिक होता है तथा जानवर इसे बहुत चाव से खाते हैं।


मसूर

मसूर उगाने वाले क्षेत्र

भारत में मुख्य रूप से मसूर की खेती मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, तथा पश्चिमी बंगाल में की जाती है। क्षेत्रफल व उत्पादन की द्रिष्टि  से भारत में उत्तर प्रदेश का स्थान प्रथम है।

मसूर की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

केवल एक कप मसूर दाल में 230 कैलोरी, लगभग 15 ग्राम आहार फाइबर और लगभग 17 ग्राम प्रोटीन होता है। मसूर दाल में आहार फाइबर का एक बड़ा हिस्सा होता है। यह ग्लाइसेमिक इंडेक्स में कम स्कोर करता है और उस दर को रोकता है जिस पर रक्त द्वारा छोटी आंत में भोजन अवशोषित होता है। इस प्रकार, यह प्रभावी रूप से पाचन की दर को धीमा कर देता है और रक्त शर्करा के स्तर में अचानक या अप्रत्याशित वृद्धि को रोकता है। यह वजन घटाने के खिलाफ प्रभावी उपाय है|

बोने की विधि

उचित अंतरण पर देशी हल की सहायता से कूँड़ निकालकर मसूर की बुवाई की जाती है। मृदा में कम नमी होने पर यह विधि सर्वोत्तम है। मृदा में नमी पर्याप्त मात्रा में होने पर बुवाई छिटकवाँ विधि से भी करते हैं। यह वैज्ञानिक विधि नहीं है। बुवाई के लिए सीडड्रिल या फर्टीसीडड्रिल का प्रयोग भी किया जा सकता है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

फलीदार फसल होने के कारण मसूर की खेती सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमि पर की जा सकती है। यद्यपि मसूर की फसल क्षारीय एवं खराब जल निकास वाली मृदाओं में भी उगाई जा सकती है, परन्तु इन अवस्थाओं में अच्छी उपज प्राप्त नहीं होती है। बलुई दोमट तथा मध्यम दोमट मिट्टी, मसूर की खेती के लिए सबसे उत्तम होती है। प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके 2-3 जुताई देशी हल या हैरो से करके पाटा लगा देना चाहिए।

बीज की किस्में

मसूर के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

एल-4076, पन्त मसूर-693, पन्त मसूर-406, पन्त मसूर-234, मलिका (के-75), पन्त मसूर-4, नरेंद्र मसूर-1, डी.पी.एल.-62, पन्त मसूर-5, डी.पी.एल-15 (प्रिया)।

बीज की जानकारी

मसूर की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज दर, बोने के समय, बीज का आकार, भूमि की उर्वरता व बुवाई की विधि आदि बातों पर निर्भर करती है। छोटे दाने वाली किस्म अक्टूबर-नवंबर में बोई जाती है। तराई क्षेत्र में 25 - 30 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर काफी होते हैं। बड़े दाने वाली किस्म, अक्टूबर-नवंबर में बोई जाती है तथा इसकी बीज दर 35 - 40 किग्रा प्रति हेक्टेयर उचित रहती है। देर से बुवाई करने के लिए या कमजोर भूमियों में बीज दर 50-60 किग्रा/ हैक्टेयर तक रखना चाहिए।

बीज कहाँ से लिया जाये?

मसूर के  बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

मसूर की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

मृदा में पोषक तत्व (खाद-उर्वरक) डालने से पूर्व मृदा का परीक्षण करना आवश्यक है। मध्यम व कम उर्वर वाली भूमि में 20-30 किग्रा नाइट्रोजन, 50-60 किग्रा फास्फोरस आवश्यकतानुसार पोटाश (20-30 किग्रा) प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय ही खेत में संस्थापन विधि द्वारा दे दिया जाना चाहिए। मसूर के पौधों की वृद्धि जस्ते की कमी से भी प्रभावित होती है। जस्ते की कमी दूर करने के लिए 0.5% जिंक सल्फेट +0.25% चूने के घोल का छिड़काव खड़ी फसल में आवश्यकतानुसार करना चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

मसूर की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

पहली सिंचाई शाखायें बनने पर (बोने के 40-45 दिन बाद), दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय करना आवश्यक है। फालतू पानी खेत में ठहरने पर उपज में कमी आती है, क्योंकि नाइट्रोजन स्थिरीकरण अवरुद्ध होने के कारण पौधे पीले पड़ जाते हैं।

रोग एवं उपचार

मसूर की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

गेरुआ या रस्ट रोग - यह रोग यूरोमायसिस फेबी नामक फफूँद से होता है। जनवरी-फरवरी मे, वर्षा एवं वातावरण में अधिक नमी होने पर रोग के बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। रोग के लक्षण पर्णवृंत तथा पत्तियों की ऊपरी व निचली सतहों पर हल्के पीले रंग के उठे हुए चूर्ण युक्त धब्बो (स्पोट) के रूप में प्रकट होते हैं, जो बाद में क्रीम या भूरे रंग के हो जाते हैं। फसल के पकने पर पत्तियों व तने पर भूरे काले रंग के चूर्ण युक्त ध्ब्बे दिखाई पड़ते है। रोग का आक्रमण प्रायः खेत के निचले क्षेत्र से प्रारंभ होकर ऊपर की तरफ फैलता है। इसकी रोकथाम के लिए रोगी फसल के अवशेष जलाकर नष्ट कर देना चाहिए और उससे प्राप्त बीज को बोने के काम में नहीं लेना चाहिए। रोगरोधी प्रजातियों की ही बुवाई करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण करने के लिए फ्लूक्लोरेलिन (बेसालीन) 1 किग्रा सक्रिय अवयव 800-1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, या हैरों, सीडड्रिल, खुर्पी, थ्रैशर, आदि यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है।