पान एक ऊष्ण कटिबंधीय पौधा है। इसकी बढ़वार नम, ठंडे व छायादार वातावरण में अच्छी होती है। पान एक बहुवर्षीय बेल है, जिसका उपयोग हमारे देश में पूजा-पाठ के साथ-साथ खाने में भी होता है। खाने के लिये पान पत्ते के साथ चूना, कत्था तथा सुपारी का प्रयोग किया जाता है। ऐसा लोक मत है कि पान खाने से मुख शुद्ध होता है, वहीं पान से निकली लार पाचन क्रिया को तेज करती है, जिससे भोजन आसानी से पचता है। साथ ही शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है।
पान की खेती मुंबई का बसीन क्षेत्र, असम, मेघालय, त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्र, केरल के तटवर्ती इलाकों के साथ साथ उत्तर भारत के गरम व शुष्क इलाकों, कम बारिश वाले कडप्पा, चित्तुर, अनंतपुर, पुणे, सतारा, अहमदनगर, उत्तर प्रदेश के बांदा, ललितपुर, महोबा व छतरपुर (मध्य प्रदेश) आदि इलाकों में सफलतापूर्वक की जाती है।
पान के पत्ते विटामिन सी, थायमिन, नियासिन, राइबोफ्लेविन और कैरोटीन जैसे विटामिन से भरे हुए हैं और कैल्शियम का एक बड़ा स्रोत हैं। चूंकि पान एक सुगंधित लता है, आप इसे आसानी से अपने घरों में सजावटी पौधे के रूप में उगा सकते हैं और इससे अधिकतम स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
अच्छी खेती के लिये पंक्ति से पंक्ति की उचित दूरी रखना आवश्यक है। इसके लिये आवश्यकतानुसार पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30×30 सेमी या 45×45 सेमी रखी जानी चाहिए।
पान की अच्छी खेती के लिये जमीन की गहरी जुताई कर भूमि को खुला छोड दिया जाता है। उसके बाद उसकी दो उथली जुताई करके, बरेजा का निर्माण किया जाना चाहिए।
उत्तर भारत में मुख्य रूप से जिन प्रजातियों का प्रयोग किया जाता है, वे निम्न है - देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई, बनारसी आदि।
एक हेक्टेयर के खेत में तक़रीबन 60 हज़ार तक पौधे लगाए जा सकते है ।
पान के बीज (नर्सरी) किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
पान के बेलों को अच्छा पोषक तत्व प्राप्त हो इसके लिये प्रायः पान की खेती में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। पान की खेती में प्रायः कार्बनिक तत्वों का प्रयोग करते हैं। उत्तर भारत में सरसों ,तिल,नीम या अण्डी की खली का प्रयोग किया जाता है, जो जुलाई-अक्टूबर में 15दिन के अन्तराल पर दिया जाता है। वर्षाकाल के दिनों में खली के साथ थोडी मात्रा में यूरिया का प्रयोग भी किया जाता है।
पान फसल में सिंचाई के साथ-साथ जल निकास का प्रबंधन भी जरूरी है| इसमें मौसम के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए| गर्मी के मौसम में 5 से 7 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है, वहीं सर्दी में 10 से 15 दिन के अंतराल पर, जबकि बरसात में सिंचाई की विशेष आवश्यकता नहीं रहती है| फिर भी जरूरत पड़े तो हल्की सिंचाई देनी चाहिए|
पर्ण/गलन रोगयह फंफूद जनित रोग है, जिसका मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका” है। इसके प्रयोग से पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो वर्षाकाल के समाप्त होने पर भी बने रहते हैं। ये फलस को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।रोकथाम के उपाय1 रोग जनित पौधों को उखाड़कर पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिये।2 ब्लाइटैक्स 50 % WP का प्रयोग करना चाहिये।लीफ ब्लाईटइस प्रकोप से पत्तियों पर भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं, जो पत्तियों को झुलसा देते हैं।रोकथाम के उपाय1 इसके नियंत्रण के लिये स्ट्रेप्टोसाईक्लिन 200 पी0पी0एम0 या 0.25 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण का छिडकाव करना चाहिये।
पान की खेती में अच्छे उत्पादन के लिये समय-समय पर उसमें निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। बरेजों से अनावश्यक खरपतवार को समय-समय पर निकालते रहना चाहिये। इसी प्रकार सितम्बर, अक्टूबर में पारियों के बीच मिटटी की कुदाल से गुड़ाई करके 40-50 सेमी0 की दूरी पर मेड़ बनाते हैं व आवश्यकतानुसार मिटटी चढ़ाते हैं।
मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।