ककड़ी की खेती

ककड़ी की उत्पत्ति भारत से हुई। यह बेल पर लगने वाला फल है। इसकी खेती की रीति बिलकुल तरोई के समान है। इसकी बिजाई का समय फरवरी से मार्च तक है। यदि आप ककड़ी की अगेती फसल चाहें, तो पॉलिथीन की थैलियों में बीज की बिजाई जनवरी के महीने में भी की जा सकती है।


ककड़ी

ककड़ी उगाने वाले क्षेत्र

ककड़ी की खेती सामान्यतः भारत के सभी राज्यों में की जाती है।

ककड़ी की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

ककड़ी से विटामिन C , विटामिन K, विटामिन A, तथा पोटेशियम , फास्फोरस, मेग्नेशियम आदि खनिज तत्व पाए जाते हैं।

बोने की विधि

अच्छी पैदावार हेतु ककड़ी की बुवाई मेड़ पर की जानी चहिए। इसकी बुवाई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1 मीटर तथा पौध से पौध की दूरी 30 सेमी रखनी चाहिए।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

ककड़ी को लगभग सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है लेकिन इसके लिए दोमट भूमि सबसे उपयुक्त है, जिसमे जल निकास की सुविधा अच्छी हो। पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के बाद 2-3 जुताई देशी हल या हैरों से करते हैं।

बीज की किस्में

ककड़ी के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

निर्मल, चंद्रा, 708, आदि। ककड़ी की शीघ्र पकने वाली किस्म है।

बीज की जानकारी

ककड़ी की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 2.0-2.5 किग्रा बीज पर्याप्त होता है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

ककड़ी का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

ककड़ी की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

10 टन गोबर या कम्पोस्ट की खाद बुवाई के 15 दिन पूर्व खेत में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए। उर्वरक का प्रयोग सदैव मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। यदि किसी कारणवश मृदा परीक्षण न हो पाए तो 60 किग्रा नाइट्रोजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस तथा 30 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए। फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा व नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा खड़ी फसल में प्रयोग करनी चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

ककड़ी की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

खेत में नमी की मात्रा बनाये रखने के लिए 6-7 दिन के अन्तराल से सिंचाई करते रहना चाहिए।

रोग एवं उपचार

ककड़ी की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

1. चूर्णी फफूँद (चूर्णित आसिता) - यह रोग विशेष रूप से खरीफ वाली फसल पर लगता है। प्रथम लक्षण - पत्तियों और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धूसर धब्बे दिखाई देने लगते हैं। तत्पश्चात ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं। ये सफेद चूर्णिल पदार्थ अन्त में समूचे पौधे की सतह को ढँक लेते हैं जिसके कारण फलों का आकार छोटा हो जाता है तथा बीमारी की उग्र अवस्था में पौधों से पत्ते गिर जाते हैं। चूर्णी फफूँद रोग के नियंत्रण के लिए रोगग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देना चाहिए। हेक्साकोनाजोल रसायन की 1.5 मिली मात्रा पानी में घोलकर फसल पर 7 से 10 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़क देना चाहिए। 2. मोजैक वायरस - मोजैक वायरस रोग का फैलाव रोगी बीज के प्रयोग तथा कीट द्वारा होता है। इससे पौधों की नई पत्तियों में छोटे, हल्के पीले धब्बों का विकास सामान्यतः पत्तियों की शिराओं से शुरू होता है। पत्तियों में सिकुड़न शुरू हो जाती है, पौधे विकृत तथा छोटे रह जाते हैं, हल्के पीले चित्तीदार लक्षण फलों पर भी उत्पन्न हो जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए विषाणु-मुक्त बीज का प्रयोग करना चाहिए तथा रोगी पौधों को खेत से निकालकर नष्ट कर देना चाहिए। विषाणु-वाहक कीट के नियंत्रण के लिए डाइमेथोएट (Dimethoate) 0.05% रासायनिक दवा का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए। फल लगने के बाद रसायनिक दवा का छिड़काव न करें। 3. लाल कीडा - यह पत्तियों तथा फूलों को खाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु इण्डोसल्फान 4% चूर्ण 20-25 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से डालना चाहिए। 4. फ्यूजेरियम रूट रॉट - इस रोग के प्रकोप से तने का आधार काला हो जाता है और बाद में पौधा सूख जाता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु बीज पर गर्म पानी का उपचार (55 डिग्री सेल्सियस से 15 मिनट) करके, बीज को मरक्यूरिक क्लोराइड के 0.1 % घोल में डुबा लेना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खेत में खरपतवार नियंत्रण हेत 2-3 निकाई करना आवश्यक है। खरपतवार निकालने के बाद खेत की गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ाना चाहिए, जिससे पौधों का विकास तेजी से होता है।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।