जूट एक द्विबीज पत्री, रेशेदार पौधा है। इसका तना पतला और बेलनाकार होता है। इसके रेशे बोरे, दरी, तम्बू, तिरपाल, टाट, रस्सियाँ, निम्नकोटि के कपड़े तथा कागज बनाने के काम में आते हैं। जूट की खेती नकदी खेती कहलाती है क्यूंकि इससे लोगों को नकद पैसा हासिल होता है। जूट की खेती हेतु गर्म तथा नम जलवायु की आवश्यकता होती है। 100 से 200 सेमी वर्षा तथा 24 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम उपयुक्त है।
भारत के बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम और उत्तर प्रदेश के कुछ तराई भागों में जूट की खेती होती है।
बीटा-कैरोटीन: अत्यधिक उच्च; विटामिन ई: मध्यम; राइबोफ्लेविन: उच्च; फोलिक एसिड: अत्यधिक उच्च; एस्कॉर्बिक एसिड: अत्यधिक उच्च; कैल्शियम: मध्यम से उच्च; लोहा: उच्च से अत्यंत उच्च; प्रोटीन: 4.5%। पत्तियों में म्यूसिलेज और कई फेनोलिक यौगिक होते हैं।
जूट की बुवाई हल के पीछे करनी चाहिए, लाइनों से लाइनों का दूरी 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 7 से 8 सेंटीमीटर तथा गहराई 2 से 3 सेंटीमीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए| मल्टीरो जूट सीड ड्रिल के प्रयोग से 4 लाइनों की बुआई एक बार में हो जाती है तथा एक व्यक्ति एक दिन में एक एकड़ की बुआई कर सकता है|
हल्की बलुई, डेल्टा की दोमट मिट्टी में खेती अच्छी होती है।
पद्मा, रेशमा, श्यामली, सबुज सोना (जेआरसी-212), बलदेव (जेआरसी-4444), सोनाली (जेआरसी-321) इत्यादि, की बुआई करनी चाहिए
जे आर सी 321- जूट की यह शीघ्र पकने वाली किस्म है| जल्दी वर्षा होने और निचली भूमि के लिए सर्वोत्तम पाई गई है| जूट के बाद लेट पैडी (अगहनी घान) की खेती की जा सकती है| इसकी बुआई फरवरी दे मार्च में करके जुलाई में इसकी कटाई की जा सकती है|
बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
खेत तैयार करते समय 5-10 टन गोबर की खाद भूमि में अच्छी तरह मिलाना चाहिए। उर्वरक में 60-80 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फॉस्फोरस एवं 40 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
समतल भूमि पे बुवाई पर एक सिंचाई देने के 4-5 दिनो के बाद नेल वीडर का उपयोग कर मिट्टी का पलवार बनाने से मिट्टी से वाष्पीकरण कम होता है और फसल की वृद्धि भी अच्छी होती है।
1. जूट का कुबड़ा कीट - यह कीट मध्य जून से मध्य अगस्त तक देखा जा सकता है जो फसल की कोमल पत्तियों को खा जाता है। इस वजह से पौधों की कोमल शाखाएँ निकल आती है और पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है। इससे रेशे की उपज घट जाती है। इसके रोकथाम के लिए इण्डोसल्फान 35 ईसी. की 425 मिली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 2. बिहार की बालदार सूंड़ी - यह कीट फसल की पकती अवस्था में रेशे और पत्तियों को खाकर फसल को क्षति पंहुचाती है। इसकी रोकथाम के लिए इण्डोसल्फान 35ईसी. की 1.5 मिली. मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए। 3. तना और जड़ विगलन - यह बीज व भूमिजनित फफूँदी रोग है जो महामारी की तरह फैलता है। इसकी रोकथाम के लिए बुवाई से पूर्व बीज को कैप्टान (3 ग्राम दवा प्रति किग्रा बीज) से उपचारित करना चाहिए। फसल पर ब्लाइटाक्स का 0.2% के घोल का छिड़काव लाभप्रद रहता है। 4. श्यामवर्ण रोग - यह जीवाणु जनित रोग है जिसका प्रभाव अगस्त के अन्त में कैप्सुलेरिस किस्मों में अधिक दिखता है। तने पर भूरे काले रंग के छोटे-छोटे चकत्ते दिखाई देते हैं जो कि बाद में बड़े हो जाते हैं और तना टूट जाता है। रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाना चाहिए। प्रभावित फसलब्लाइटाक्स या डाइथेन एम-45 के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
बुवाई के 20 से 25 दिन बाद खरपतवार निराई करके निकाल देना चाहिए तथा विरलीकरण करके पौधे से पौधे की दूरी 6 से 8 सेंटीमीटर कर देना चाहिए| खरपतवार का नियन्त्रण खरपतवार नाशी रसायनों से भी किया जा सकता है| अंकुरण होने से पूर्व पेन्डीमेथिलीन ई सी, 3.3 लीटर या फ्लूक्लोरोलिन 1.50 से 2.50 किलोग्राम प्रति हेक्टर 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने के बाद खरपतवार नहीं उगते है| खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु 30 से 35 दिन के अन्दर क्यूनालफास इथाइल 5 प्रतिशत की एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना प्रभावी होता है
मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।