भारत में सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला फल कटहल विश्व में सबसे बड़े आकर का कृषि उत्पाद है। इसका प्रयोग सब्जी में ही नहीं बल्कि आचार, पकौड़े, कोफ्ते बनाने में भी किया जाता है। जब यह पक जाता है तब इसके अंदर के मीठे फल को खाया जाता है जो कि बडा़ ही स्वादिष्ट लगता है। इसका स्वास्थ्य लाभ आंखों तथा त्वचा पर भी देखने को मिलता है। इस फल में विटामिन ए पाया जाता है जिससे आंखों की रौशनी बढती है और त्वचा अच्छी होती है। यह रतौंधी को भी ठीक करता है।
इसकी सर्वाधिक खेती असम में होती है। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत के राज्यों में भी इसकी बागवानी बड़े पैमाने पर की जाती है।
कटहल में कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, तेल, रेशे, विटामिन बी, सोडियम, लोहा, फॉस्फोरस, पोटाशियम, जिंक आदि तत्व पाए जाते हैं।
कटहल का पौधा आकार में बड़ा तथा अधिक फैलावदार होता है। अत: इसे 10x 10 मी. की दूरी पर लगाया जाता है। पौध रोपण के लिए समुचित रेखांकन के बाद निर्धारित स्थान पर मई-जून के महीने में 1 x 1 x 1 मीटर आकार के गड्ढे तैयार किये जाने चाहिए।
कटहल की खेती के लिए उचित जल निकास वाली गहरी उपजाऊ दोमट भूमि अच्छी रहती है। भूमि की अच्छी तरह से जुताई करने के बाद पाटा लगाकर भूमि को समतल कर लेना चाहिए।
(i) स्वर्ण पूर्ति - यह सब्जी के लिए उपयुक्त किस्म है। इसका फल छोटा (3-4 किग्रा.), रंग गहरा हरा, रेशा कम, बीज छोटा एवं पतले आवरण वाला तथा बीच का भाग मुलायम होता है। इस किस्म के फल देर से पकने के कारण लंबे समय तक सब्जी के रूप में उपयोग किये जा सकते हैं। इसके वृक्ष छोटे तथा मध्यम फैलावदार होते हैं जिसमें 80 से 90 फल प्रति वर्ष लगते हैं।
कटहल मुख्य रुप से बीज द्वारा प्रसारित किया जाता है, एक समान पेड़ तैयार करने के लिए वानस्पतिक विधि द्वारा पौधा तैयार करना चाहिए| वानस्पतिक विधि में कलिकायन तथा ग्राफ्टिंग अधिक सफल पायी गयी है| इस विधि से पौधा तैयार करने के लिए मूल वृन्त की आवश्यकता होती है| जिसके लिए कटहल के बीजू पौधों का प्रयोग किया जाता है| चूंकि कटहल का बीज जल्दी सूख जाता है, अत: उसे फल से निकालने के तुरन्त बाद थैलियों में 4 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बुआई कर देना चाहिए|
कटहल का पौध (बीज) किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए
कटहल के प्रत्येक पौधे को 20-25 किलो गोबर की सड़ी हुई खाद, 100 ग्राम यूरिया, 200 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष की दर से जुलाई माह में देना चाहिए। पौधे की बढ़वार के साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते रहना चाहिए। जब पौधे 10 वर्ष के हो जाये तब उसमें 80-100 किलो गोबर की खाद, 1 किलो यूरिया, 2 किलो सिंगल सुपर फास्फेट तथा 1 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष देते रहना चाहिए।
पौधे रोपने के बाद कुछ दिन तक बराबर पानी देते रहना चाहिए। गर्मियों में प्रति सप्ताह और जाड़े में 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। बड़े पेड़ों की गर्मी में 15 दिन और जाड़े में एक महीने के अंतर से सिंचाई करनी चाहिए। नवम्बर-दिसम्बर माह में फूल आते हैं। इसलिए इस समय सिंचाई नहीं करना चाहिए।
(i) फल सड़न रोग - यह रोग राइजोपस आर्टोकार्पी नामक फफूँद के कारण होता है। इस रोग के प्रकोप से छोटे फल डंठल के पास से धीरे-धीरे सड़ने लगते हैं। कभी-कभी विकसित फल भी सड़ जाते हैं। रोग के नियंत्रण हेतु रोग के लक्षण दिखते ही कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% WP 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। 2 छिड़काव 15 से 20 दिनों के अंतराल पर करना चाहिये।
निकाई-गुड़ाई करके पौधे के थाले साफ़ रखने चाहिए। बड़े पेड़ों के बागों की वर्ष में दो बार जुताई करनी चाहिए।
मिट्टी पलट हल, देशी हल, हैरों, खुर्पी, कुदाल,फावड़ा, हसियाँ इत्यादि यंत्रों की आवश्यकता होती है।