इसबगोल की खेती

इसबगोल का सबसे ज्यादा उत्पादन और निर्यात भारत में होता है। इसके सेवन से पेट के रोगों से मुक्ति मिलती है। इसके अंकुरण के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियस तथा फसल की परिपक्वता के समय 30-35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त है।


इसबगोल

इसबगोल उगाने वाले क्षेत्र

भारत में इसका उत्पादन प्रमुख रूप से गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश में करीब 50 हजार हेक्टयर में हो रहा हैं।

इसबगोल की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

पेट की सफाई, कब्जियत, अल्सर, बवासीर, दस्त तथा आंव पेचिस जैसी शारीरिक बिमारियों को दूर करने में आयुर्वेदिक औषधि के रूप में किया जाता।

बोने की विधि

ईसबगोल की छिटकाव पद्धति से बुवाई करना प्रचलित है। परंतु इस विधि से अंतः सस्य किय्राएं करने में कठिनाई आती हैं। परिणामस्वरुप उत्पादन प्रभावित हो जाता है। ईसबगोल की बुवाई कतारों में करते हुए कतार से कतार की दूरी 30 से. मी. एवं पौधे की दूरी 5 सेमी रखे। बुवाई करते समय बीज में महीन बालू रेत अथवा छनी हुई गोबर की खाद मिलाकर बुवाई करें जिससे वांछित बीज दर का प्रयोग हो सके। बीज की गहराई 2-3 से.मी. रखे। इससे ज्यादा गहरा बीज न बोयें । छिटकाव पद्धति से बोने पर मिट्टी में ज्यादा गहरा न मिलावें।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

ईसबगोल की फसल उगाने से पहले उसके खेत को ठीक तरह से तैयार कर ले | इसके लिए सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हलो से खेत की गहरी जुताई कर दे | इससे खेत में मौजूद पुरानी फसल के अवशेष पूरी तरह से नष्ट हो जाते है | खेत की जुताई के बाद उसमे 10 से 12 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद डाल कर जुताई कर दे, इससे खेत की मिट्टी में गोबर की खाद ठीक तरह से मिल जाएगी | खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है | पलेव के बाद जब खेत की मिट्टी सूखी दिखाई देने लगती है, उस दौरान रोटावेटर लगाकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है |इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है, मिट्टी को भुरभुरा करने के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर दे | इससे खेत में जलभराव नहीं होता है | ईसबगोल के बीज की रोपाई मेड़ और समतल भूमि दोनों ही तरह से कर सकते है | यदि आप मेड़ पर बीजो की रोपाई करना चाहते है, तो उसके लिए आपको उचित दूरी पर मेड़ तैयार करनी होती है |

बीज की किस्में

इसबगोल के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

ईसबगोल-1(जी.आई.-1) गुजरात ईसबगोल-2(जी.आई.-2) हरियाणा ईसबगोल-5(एच.आई.-5) और जवाहर ईसबगोल-4(जे.आई.-4) ट्राम्बे सेलेक्शन (1-10) और इ.सी. 124 एवं 385।

बीज की जानकारी

इसबगोल की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

4 किग्रा बीज प्रति हेक्टयर की दर से पर्याप्त रहता है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

इसबगोल के बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

इसबगोल की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

इसबगोल फसल को मुख्यता बिना रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग करना चाहिए। क्योकि ये एक औषधीय फसल है, जैविक खाद जैसे, फार्म यार्ड खाद (FYM), वर्मी-कम्पोस्ट, हरी खाद आदि का उपयोग किया जा सकता है। रासायनिक उर्वरक का प्रयोग आवश्यकता अनुसार करना चाहिये, 30 किलो/ प्रतिएकड़ और 25 किलोग्राम/ प्रतिएकड़ यूरिया डाला जाता है।

जलवायु और सिंचाई

इसबगोल की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। अंकुरण कमज़ोर होने पर दूसरी सिंचाई 5-6 दिन बाद देवें। इसके बाद प्रथम सिंचाई 30 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई 70 दिन बाद देवें। फूल एवं दाना भरने की अवस्था पर सिंचाई न दें। इनमें दो से ज्यादा सिंचाई देने पर रोगों का प्रकोप बढ जाता हैं तथा उपज में कमी आ जाती हैं। पुश्पक्रम / बाली आने के बाद स्प्रिकंलर से सिचाई ना करें।

रोग एवं उपचार

इसबगोल की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

तुलासिता रोग के लक्षण और उपचार - फसल बुवाई के 50 से 60 दिन बाद इस रोग का प्रकोप बाली के निकलने पर दिखाई देता है.सबसे पहले पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफेद या कत्थई रंग के धब्बे बन जाते है और पत्ती के ठीक नीचे वाली सतह पर सफेद चूर्ण जैसा कवक जाल दिखाई देने लगता है.आगे की अवस्था में ये पत्तियां धीरे-धीरे मुड़कर काली होने लगती है. रोग से प्रभावित पौधों से फूलों और बीजों की संख्या कम होने लगती है.बीज छोटा, लाल और काले रंग का हो जाता है.रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैनकोज़ेब 75% WP की 500 ग्राम या मेटालेक्सिल 8% + मैनकोज़ेब 64% WP दवा की 400 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% WP की 600 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर देना चाहिए.आवश्यकता पड़ने पर यह छिड़काव 15 दिन बाद दोहरा सकते हैं.उकठा या विल्ट रोग के लक्षण और उपचार इस रोग का प्रकोप फसल की किसी भी अवस्था में हो सकता है.इस रोग से प्रभावित पौधे मुरझाकर सुख जाते है.रोग से बचाव के लिए 2 ग्राम कार्बेंडाजिम 50% WP प्रति किलो बीज की दर से बीजों को उपचारित करना चाहिए.बुवाई से पहले 1 किलो ट्राइकोडरमा कल्चर को 2 टन गोबर की खाद में अच्छी तरह मिलाकर अन्तिम जुताई के समय जमीन में मिला देना चाहिए.एफीड या मोला कीट के लक्षण और उपचार इस कीट का प्रकोप सामान्यता बुवाई के 60-70 दिन बाद फूल आने और बीज बनते समय होता है.यह कीट पौधे के कोमल भागों पर झुंडों में चिपक कर रस चूसने लगता है. जिससे प्रभावित पौधे कमजोर हो जाते हैं तथा उत्पादन में कमी आ जाती है.ये छोटे छोटे कीट पौधे के फूलों, बीजों, कोमल टहनियों, पत्तियों से रस चुसकट गोंद जैसा पदार्थ छोड़ते है, जिससे पूरा पौधा ही चिपचिपा हो जाता है.इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 5 मिली प्रति 15 लीटर पानी या थायोमेथोक्सोम 25 डब्लू जी  5 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. कीटनाशकों का बदल-बदल कर छिड़काव करना चाहिए ताकि कीट कीटनाशकों के विरुद्ध प्रतिरोध शक्ति उत्पन्न न हो सके.जैविक माध्यम से बवेरिया बेसियाना 500 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़ककाव करें.

खरपतवार नियंत्रण

रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए सल्फोसल्फुरोन की 25 ग्राम मात्रा अथवा आइसोप्रोटूरोंन की 500-750 ग्राम सक्रिय तत्व की मात्रा 500 लीटर पानी में घोलकर बने के 20 दिन पर छिड़काव करें।

सहायक मशीनें

देशी हल या हैरों, खुर्पी, फावड़ा, कुदाल