अमरुद की खेती

अमरूद को अंग्रेजी में ग्वावा कहते हैं। वानस्पतिक नाम सीडियम ग्वायवा, प्रजाति सीडियम, जाति ग्वायवा, कुल मिटसी है।वैज्ञानिकों का विचार है कि अमरूद की उत्पत्ति अमरीका के उष्ण कटिबंधीय भाग तथा वेस्ट इंडीज़ से हुई है। भारत की जलवायु में यह इतना घुल मिल गया है कि इसकी खेती यहाँ अत्यंत सफलतापूर्वक की जाती है। बताया जाता है कि 17 वीं शताब्दी में यह भारतवर्ष में लाया गया। अधिक सहिष्ण होने के कारण इसकी सफल खेती अनेक प्रकार की मिट्टी तथा जलवायु में की जा सकती है। जाड़े की ऋतु मे यह इतना अधिक तथा सस्ता प्राप्त होता है कि लोग इसे निर्धन जनता का एक प्रमुख फल कहते हैं। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक फल है। इसमें विटामिन "सी' अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त विटामिन "ए' तथा "बी' भी पाए जाते हैं। इसमें लोहा, चूना तथा फास्फोरस अच्छी मात्रा में होते हैं। अमरूद की जेली तथा बर्फी (चीज) बनाई जाती है। इसे डिब्बों में बंद करके सुरक्षित भी रखा जा सकता है।


अमरुद

अमरुद उगाने वाले क्षेत्र

जलवायु तथा भूमि :- अमरूद कठोर प्रवर्ति वाला, उष्ण तथा उपोष्णीय क्षेत्र का प्रमुख फल है। इसके पेड़ों में वातावरण के अनुसार स्वयं को ढ़ालने की प्राकृतिक क्षमता होती है। इसका पौधा उच्च ताप, सूखा सहन करने वाला है, लेकिन यह पाले से प्रभावित हो सकता है। यह समुन्द्रतल से 1500 मीटर की ऊँचाई तक उगाया जा सकता है। इसके लिए वर्षा ऋतु में 100 से.मी. वर्षा काफी है। सर्दी के दिनों में रात्रि तापक्रम 10 डिग्री से.ग्रे. रहने पर अच्छी गुणवत्ता के फल प्राप्त होते है। फलों के पकने के समय वर्षा होने या अधिक सिंचाई करने पर फलों की गुणवत्ता घट जाती है।यह विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में उत्पन्न किया जा सकता है। अम्लीय एवं क्षारीय भूमि (पी.एच. 4.5 से 8.2 तक) तथा चिकनी से बलुई दोमट मिट्टी में भी इसकी खेती की जा सकती है। परन्तु गहरी उपजाऊ दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए सबसे उपयुक्त है। नदी के बेसिन में इसकी सबसे अच्छी खेती होती है। अमरूद की पोषक तत्व लेने वाली जड़े भूमि में 25 से.मी. गहराई तक होती है। अतः ऊपर की 25 से.मी. की गहराई की मृदा पोषक तत्वों से भरपूर होनी चाहिये।

अमरुद की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

अमरुद में विटामिन सी, विटामिन ई, विटामिन ए, विटामिन बी-6, आयरन और कैल्शियम जैसे पोषक तत्व पाए जाते है ।

बोने की विधि

✅पौधा रोपण - जुलाई, से सितम्बर माह पौधा रोपण का उपयुक्त समय है। लेकिन सिंचित क्षेत्रों में पौधा रोपण कार्य फरवरी, मार्च माह में भी किया जा सकता है। गर्मी के दिनों में खेत की जुताई समतलीकरण एवं खरपतवार रहित कर लेना चाहिये। गड्ढों की दूरी किस्म, मिट्टी की उर्वरता सिंचाई विधि पर निर्भर करती है। उच्च उर्वर मृदा एवं सिंचाई की पर्याप्तसुविधा होने पर पौध रोपण की दूरी अधिक होती है। राजस्थान की परिस्थिति में सामान्यतः पौधे लगाने हेतु गड्ढे 6x6 मी. अथवा 5x5 मीटर की दूरी पर खोदने चाहिए । पौधे लगाने के लिये 1x1x1 मीटर आकार के गड्ढे मई-जून के महीने में तैयार किये जाते है। यदि फरवरी-मार्च महीने में पौधे लगाने हों तो जनवरी माह में गड्ढे तैयार करें। गड्ढों को 15 दिन तक खुला रखने के बाद, इन गड्ढों में 25-30 किलो अच्छी सड़ी गोबर की खाद, 50 से 100 ग्राम क्यूनाल फॉस 1.5% चूर्ण 1.25 कि.ग्रा. सुपरफास्फेट, 50 ग्रा.कार्बोफ्यूरान खोदे गये गड्ढों की ऊपर की मिट्टी में मिलाकर भर देना चाहिये। गड्ढो में पानी भरकर मिट्टी को पूर्ण रूप से तर करने के बाद पौधों को गड्ढो में सायं के समय लगा देना चाहिए।सघन बागवानी अन्तर्गत पौधे 6x3, 3x3, 3x1.50 मीटर एवं मीडो बागवानी अन्तर्गत 2X1 मीटर की दूरी पर पौधों को रोपित किया जाता है। 👉गड्ढो का रेखांकन - (पंक्ति से पंक्ति एवं पौधे से पौधे की दूरी) :- 1. परम्परागत दूरी 6x6 मीटर 2. सघन बागवानी दूरी 6x3 मीटर या 3x3 मीटर या 3x1.5 मीटर 3. मीडो बागवानी दूरी 2×1 मीटर। 👉गड्ढो का आकार - 1. परम्परागत 1x1x1 मीटर 2. सघन बागवानी 75x75x75 से.मी. 3. मीडो बागवानी ५०×५०×५० से.मी.।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

अमरुद के पुराने एवं अनुत्पादक बगीचों का जीर्णोद्धार - वर्तमान समय में अमरूद के जो बगीचे पुराने हो गये है। इनके अधिक घने होने के कारण इनकी उत्पादकता में निरन्तर कमी हो रही है। ऐसे में इन बगीचों में कुछ वैज्ञानिक उपायों के प्रयोग करने की अत्यन्त आवश्यकता है, जिससे उत्पादन के उच्चतम स्तर को कम खर्च में प्राप्त किया जा सकता है एवं इन बगीचों से व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। जीर्णोद्वार तकनीक:- जीर्णोद्वार तकनीक को मुख्यतः उन बगीचों में अपनाना चाहिये जिनमें उत्पादन न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। इन बगीचों के वृक्षों की अत्यधिक बढ़वार के फलस्वरूप पूर्ण आच्छादन हो जाता है। इस कारण नीचे की शाखाओं पर सूर्य का प्रकाश प्रविष्ट न होने के कारण प्रकाश-संश्लेषण कि क्रिया अच्छी प्रकार से नहीं हो पाती है। इससे पेडों के निचले भाग पर कल्ले विकसित नहीं पाते तथा कीट एवं व्याधियों का अत्यधिक प्रकोप हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उत्पादन में कमी हो जाती है। इन बगीचों में व्यावसायिक गुणवत्तायुक्त उत्पादन के उद्देश्य से पेड़ों को जमीन से 1.0 से 1.5 मीटर की उँचाई पर चिन्हित कर किसी धारदार आरी की सहायता से मई-जून या दिसम्बरफरवरी के महीने में काटा जाता है। कटाई के समय वह सावधानी रखनी चाहिये कि, शाखायें फटनी नही चाहिये।अतः शाखाओं को पहले नीचे की तरफ से काटें, इसके पश्चात ऊपरी भाग को काटना चाहिये। काटने के पश्चात कटे भाग पर कॉपर आक्सीक्लोराइड का लेप लगाना आवश्यक है। कटाई के उपरान्त पौधों में थांवले बनाकर उसमें 50 कि.ग्रा. गोबर की सडी खाद डालकर सिंचाई की जाती है। कटाई के 4-5 माह बाद नयी फुटान होने लगती है। इन फुटानों का विरलीकरण कर प्रत्येक शाखा पर 4-5 स्वस्थ फुटान रखते है। जब इन फुटानों की लम्बाई 40-50 से.मी. हो जाये तब इनकी लम्बाई का 50 प्रतिशत भाग काटा जाता है। जिससे काटे गये स्थान के नीचे नयी फुटान हो सके। द्वितीय कटाई के फलस्वरूप विकसित शाखायें फूल कलिकाओं के विकास में सहायक होती है। वर्षा ऋतु की फसल सामान्यतः अधिक होती हैपरन्तु कीट व्याधियों के अधिक प्रकोप, शीघ्र पकने तथा कम स्वादिष्ट होने के कारण इनकी गुणवत्ता कम हो जाती है। अतः व्यापारिक एवं मूल्य की दृष्टि से इनका महत्व कम हो जाता है। अधिक से अधिक शुद्ध लाभ प्राप्ति हेतु शरद ऋतु में फसल लेनी चाहिए। इसके लिये मई माह में 50 प्रतिशत शाखाओं की पुनः कटाई-छटाई कर देनी चाहिये। इस तरह से नये फटान का सृजन होने से शरद ऋतु में भरपूर फसल प्राप्त की जा सकती है।सिंचाई प्रबन्धनः-जीर्णोद्धार वृक्षों में नियमित सिंचाई का विशेष महत्व अन्यथा नयी फुटान सूख सकती है। गर्मियों में 10-15 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिये।सिंचाई के विभिन्न तरीकों में ड्रिप सिंचाई द्वारा उत्साहजनक परिणाम मिलते हैं। इस विधि द्वारा सिंचाई करने से फलों की संख्या, उत्पादन, गुणवत्ता पर गुणात्मक वृद्धि होती है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली द्वारा पौधे की ऊँचाई एवं कैनोपी का फैलाव, तने की मोटाई एवं सक्रिय जडों का विकास आदि में अच्छी वृद्धि होती है तथा खरपतवार नियंत्रण में सहायता मिलती है। पोषक तत्व प्रबन्धन:-जीर्णोद्धार बगीचों में कटाई के उपरान्त 50 कि.ग्रा. सडी गोबर की खाद, 5कि.ग्रा. नीम की खली प्रति पौधा देना चाहिये। कटाई के 6 माह उपरान्त 50 कि.ग्रा. सडी गोबर की खाद, 3 कि.ग्रा. नीम की खली, 910 ग्रा. यूरिया तथा 500 ग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति पौधा जून माह में देना चाहिये। इसके उपरान्त 390 ग्रा. यूरिया एवं 1875 ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट प्रति पौधा सितम्बर माह में दी जाती है।जीर्णोद्धार बगीचों में मल्चिंग:-कटाई के उपरान्त बगीचों में वृक्षों के चारो तरफ प्लास्टिक मल्चिंग (पलवार) के प्रयोग से गुणवत्तायुक्त अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह उत्पादन लागत को भी कम करता है, जिससे शुद्ध लाभ में वृद्धि की जा सकती है।अन्तः फसल:- जीर्णोद्धार के तीन वर्ष पश्चात तक सब्जी एवं दलहनी फसलें आसानी से पैदा की जा सकती है। मटर, सेम, फूलगोभी, पत्तागोभी, ब्रोकली, मिर्च, बैंगन तथा आंशिक छाया चाहने वानी फसलें जैसे अदरक एवं हल्दी आदि बगीचे में अन्तः फसल के रूप में लेने से कैनोपी विकास की प्रारम्भिक अवस्था में अच्छा लाभ प्राप्त होता है।जीर्णोद्धार उपरान्त उपज:- जीर्णोद्धार उपरान्त पौधों से 30-35 कि.ग्रा. प्रति पौधा उपज मिलने लगती है जिससे आगे चलकर कैनोपी के फैलाव के अनुसार उपज में निरन्तर वृद्धि होती है।जीर्णोद्धार हेतु कटाई-छंटाई उपरान्त कृषकों द्वारा सावधानीपूर्वक की जाने वाली प्रबन्धन प्रक्रियाएँ 1. कटे भाग पर गोबर अथवा कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का लेप लगायें। 2. नियमित रूप से सिंचाई करने तथा रासायनिक खाद एवं गोबर की खाद डालने हेतु थावलों को बनायें। 3. रासायनिक खाद की सिफारिश की गयी मात्रा एवं 50 कि.ग्रा प्रति पौधा सडी गोबर की खाद का प्रयोग करें। 4.तेज धूप के कारण नुकसान से बचाने के लिए तने एवं शाखोओ पर कॉपर तथा चूने का लेप लगायें, इसके लिए बोर्डेक्स मिश्रण अधिक उपयुक्त पाया गया। 5. जीर्णोद्धार के पश्चात नयी फुटान के सृजन तथा समुचित वानस्पतिक वृद्धि के लिए सिचाईसुनिश्चित करें। 6. रूई के फाये को नुवान में भिगोकर छिद्रो में रखे तथा उन्हे गीली मिट्टी से बन्द कर दें। 7.जीर्णोद्धार के पश्चात मल्चिग के लिए (100 माइक्रान - 400 गेज) यू वी. स्टेविलाइज काली पॉलीथीन फिल्म का उपयोग करें। 8. एक मौसम पुरानी शाखा की 50 प्रतिशत लम्बाई में प्रति वर्ष मई-जून में कटाई-छंटाई करें, जिससे वृक्ष का आकार एवं फैलाव सही रहता है, साथ ही शरद ऋतु में गुणवत्ता युक्त उपज भी प्राप्त होती है। कैनोपी के अन्दर पर्याप्त धूप, रोशनी तथा वायु का आवागमन होने से फलों का उचित विकास होता है।

बीज की किस्में

अमरुद के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

1. इलाहाबादी सफेदा :- इसका पौधा सीधा लम्बा बढ़ने वाला, फल गोल, चिकने, सफेद गूदे वाले, मुलायम, मधुर सुगन्ध तथा मीठे, बीज, अधिक बड़े एवं कठोर व्यवसायिक रूप से इसकी खेती पूरे वर्ष भारतवर्ष में की जाती है। 2. लखनऊ 49(सरदार) :- पौधे ठिगने, अधिक फल देने वाले होते हैं, फल बड़े, गोल, सफेद, गूद वाले, स्वाद एवं सुंगध में उत्तम । फलों में बीजों की मात्रा कम। विटामिन सी. एवं टी.एस.एस. की मात्रा उच्च। 3. ललित :- फल गुलाबी एवं बाह्य रूप से केसरिया लाल आभायुक्त। पैदावार इलाहाबादी सफेदा से अधिक। फल खाने एवं प्रसंशकरण दोनों के लिए उपयुक्त । 4. श्वेता :- फल बडे, गोल, श्वेत एवं आभायुक्त पीले, कम बीज वाले मुलायम एवं सफेद गूदायुक्त। कभी-कभी फलों में लालिमा भी उभर आती है। स्वाद एवं सुगंध में उत्तमकिस्म व्यवसायिक बागवानी के लिए उपयुक्त हे। 5. अरका मृदुला :- इलाहाबादी सफेदा के चयन से विकसित पौधे फैलने वाले फल गोल, वजन 180 ग्राम, गूदा सफेद एवं मुलायम टी.एस.एस. 12 ब्रिक्स, बीज मुलायम होते है। भण्डारण क्षमता अच्छी है। 6. अरका अमूल्या :- इलाहाबादी सफेदा एवं ट्रिपलोयड की संकर किस्म है। पौधे मध्यम, फैलने वाले तथा ओजस्वी फल गोल, छिलका चिकना एवं पीला, गूदा सफेद वजन 180-200 ग्राम, टी.एस.एस. 12, बीज मुलायम। 7. एमपीयूएटी सलैक्शन-1 - पौधे मध्यम ऊँचाई (2 मीटर), फैलाव 1.4 मीटर फल का वजन 125 ग्राम, आकार 4.8 से.मी. रंग लाल टी.एस.एस. 14, उपज 30 किग्रा. प्रति पौधा। 8. एमपीयूएटी सलैक्शन- 2 फलों का रंग हरा पीला, वजन 200 ग्राम, आकार 5.5 से.मी. औसत उपज 50 कि.ग्रा. प्रति पौधा, टी.एस.एस. 12.5 पौधों की उंचाई 3 मीटर। 9. हिसार सफेदा :- इलाहाबादी सफेदा एवं सीडलेस का हाइब्रिड पौधे बड़े एवं फैलाव लिये हुए फल आकार में गोल, छिलका पतला एवं पीला सफेद, गूदा सफेद एवं ठोस, बीज कम, टी.एस.एस.-12.5-13.0 ब्रिक्सउपज 115 कि.ग्रा प्रति पेड़। 10. हिसार सुर्ख :- एपल कलर एवं बनारसी सुर्ख का हाइब्रिड पौध मध्यम आकार, फल गोल आकार के, छिलकार हल्का पीला गूदा, गुलाबी रंग का टी.एस.एस. -13.0-13.5 ब्रिक्स उपज - औसत 95 कि.ग्रा. प्रति पेड़।11. पंजाब पिंक :- यह एल49 X पोर्टूगल = एफ 1X एपल कलर का संकर है। फल मध्यम, बड़े आकार के, गूदा लाल रंग, टी.एस.एस. 10.5-12 शाखाएं झुकी हुई होती है।

बीज की जानकारी

अमरुद की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

132 पौधे प्रति एकड़ लगाए जाते हैं।

बीज कहाँ से लिया जाये?

"👉पौधे तैयार करने (प्रवर्धन) की विधियां - गुणवत्ता युक्त रोपण सामग्री उपलब्ध नहीं होने के कारण अमरूद का उत्पादन एवं उत्पादकता स्तर प्रभावित होता है। यद्यपि काफी संख्या में नर्सरीयां स्थापित हुई है, फिर भी गुणवत्तायुक्त पौध रोपण सामग्री मांग के अनुसार उपलब्ध नहीं हो पा रही है। उच्च उत्पादन एवं उत्पादकता हेतु उत्पादकता हेतु गुणवत्तायुक्त पौध सामग्री प्राथमिक आवश्यकता है। एक अच्छी नर्सरी जो वैज्ञानिक विधि द्वारा टू टू टाइप पौधे तैयार करती है, वह एक अच्छे बगीचे की आधार है। कम लागत एवं अधिक आय तथा प्रसंस्करण कीसम्भावनाओं के कारण भारत में अमरूद के क्षेत्र में वृद्धि की काफी सम्भावनायें है। इसलिये ऐसी तकनीक की आवश्यकता है। जिससे अमरूद के पौध वर्ष भर उपलब्ध हो सके।अमरूद का प्रवर्धन बीज तथा वानस्पतिक दोनों तरीकों से किया जाता है। बीज से प्रसारित पौधे फल आने में अधिक समय लेने के साथ-साथ इनके फलों की गुणवत्ता में भिन्नता आ जाती है। इसलिए यह जरूरी है कि, वानस्पतिक विधि द्वारा ही पौधे तैयार किये जाएं। 👉बीज द्वारा पौधे तैयार करना - बीज द्वारा तैयार पौधों से फल आने में अधिक समय लगता है। फलों की गुणवत्ता में भिन्नता आ जाती है। बीज द्वारा तैयार पौधों का उपयोग ग्राफटिंग/बडिंग हेतु रूटस्टोक (मूलवृन्त) के रूप में करते है। अमरूद के बीज अंकुरण में अधिक समय लेते है। पके हुए फलों से बीज निकाल कर बीजों को 12 घण्टे पानी में भिगोकर या 3 मिनट हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से उपचारित करके कोपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोयें। इस प्रकार बोने से 90 प्रतिशत अंकुरण होता है। एक वर्ष पुराने अमरूद के पौधे खेत में रोपने लायक एवं ग्राफटिंग/बडिंग हेतु तैयार हो जाते है। यदि बीजू पौधों से बीज तैयार करना है तो, अच्छी गुणवत्ता के फल एवं अधिक उत्पादन देने वाले पौधों के फलों से बीज लेवें। पौधे के अंकुरण के पश्चात् यदि किसी तरह की कीट एवं बीमारी का प्रकोप होता है, तो इनकी रोकथाम हेतु मेंकोजेब 2 ग्राम एवं डाइमेथोएट 1 मिली. प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें। 👉वानस्पतिक प्रसारण - इस विधि में बीज द्वारा तैयार पौधों पर विभिन्न विधियों द्वारा कलम चढ़ाई जाती है, जिससे नये पौधे तैयार है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ के मलिहाबाद क्षेत्र के इनाचिंग विधि द्वारा पौधे तैयार किये जाते है, जो 99 प्रतिशत सफल होते हैं, लेकिन एक मातृ पौधे से कम संख्या में पौधे तैयार होते है। जहां वायुमण्डल में आर्द्रता अधिक होती है, वहां बडिंग द्वारा पौधे तैयार किये। इस विधि में रूटस्टोक (मूलवृन्त) से बारबार होने वाली फुटान को तोड़ना पड़ता है जिससे श्रम अधिक लगता है, लेकिन एक मातृ पौधे से अधिक संख्या में पौधे तैयार होते है। अमरूद में शील्डद्व फोरकट एवं पैच बडिंग द्वारा पौधेतैयार किये जाते हैं। 👉मूलवृन्त किस्में - मूलवृन्त (रूटस्टोक) तैयार करना मूलवृन्त देशी अमरूद के बीजों से तैयार किये जाते है। आजकल कुछ रोग प्रतिरोधी (चाइनीज, अमरूद) विकसित की गई है। (मूलवृन्त) रूटस्टोक पोली बेग में तैयार करने से श्रम, खरपतवार, नियन्त्रण, पानी की बचत, जडतन्त्र को कम नुकसान, स्थान बदलने में सुविधा, पौधों में परिवहन आदि में सुविधा रहती है। बीज से पौधे तैयार करने की विधि के अनुसार पौधे तैयार किये जाते है ।वानस्पतिक प्रसारण की मुख्य विधियां निम्न प्रकार है: 1. इनार्चिग - इस विधि में मातृ पौधों को खेत में 1-2 मीटर की दूरी पर लगा दिया जाता है। जब पौधे 2-3 वर्ष हो जाते है तो इन पौधों को खेत के समानान्तर जमीन के सहारे झुका दिया जाता है। इन मातृ पौधों के आसपास एक वर्ष का बीज द्वारा तैयार पौधों (रूटस्टोक) को वर्षा ऋतु से पूर्व रोप दिया जाता है। अब मातृ पौधों की एक वर्ष पुरानी शाखा एवं रूटस्टोक पर 20-25 से.मी. की उंचाई पर 3-4 से.मी. लम्बाई का तिरछा कटान शाखा की छाल एवं कुछ भाग लकड़ी को काटते हुए लगाते है। मातृ पौधों की शाखा एवं रूटस्टोक के कटान को आपस में जोड़कर सूतली की सहायता से कसकर बांध देते है। 2-3 माह में दोनों शाखायें आपस में जुड़ जाती है। अब मातृ पौधों की शाखा को जुड़ाव के नीचे 2-3 से.मी. छोड़कर एव रूटस्टोक के जुड़ाव के ऊपर 2-3 से.मी. छोड़ कर काट देते है। इस प्रकार 1-2 माह बाद पौधे को मिट्टी की पिण्डी सहित निकाल कर नर्सरी में लगा देते है। 2. गूटी (एयर लेयरिंग) - इस विधि में रूटस्टोक की आवश्यकता नहीं होती है। इस विधि में मातृ पौधों की एक वर्ष पुरानी पेंसल के मोटाई की शाखा का चयन किया जाता है। जुलाई-अगस्त के महीने में चयन की शाखाओं पर गोलाई में चारों और छाल को काटते हुए एक कटान लगाते है, इस कटान से 3-4 से.मी. छोड़कर उसी प्रकार दूसरा कटान लगाते हैं। इस कटान के उपरी हिस्से के चारों तरफ आई.बी.ए. हारमोहन का 3000 पी.पी.एम. का लेनोलिन पेस्ट तैयार कर लगा देते है। अब मोस घास जो पूर्व में पानी में भिगी हुई है उसकी एक मुट्ठी के बराबर मात्रा लेकर कटान के चारों ओर फैलाकर 9-10 सेमी. चौड़ाई की 100 माइक्रोन की पारदर्शी प्लास्टिक फिल्म लेकर मोसघास के चारों ओर लपेटकर दोनों सिरों को सूतली/रस्सी की सहायता से बांध देते हैं। इस प्रकार कट लगाये गये भाग से 1 माह में जड़ें निकलना प्रारम्भ हो जाती है। इन जड़ों को प्लास्टिक फिल्म के अन्दर आसानी से देखा जा सकता है। जब मोसघास के चारों तरफ जड़ों का जाल फैल जाता है तब ऐसी शाखाओं को कटान के नीचे वाले हिस्से पर आधा कट लगाकर छोड़ देते है। 10-15 दिन बाद कट हुए भाग को पूरी तरफ काट कर अलग कर देते है तथा पोलीथीन को हटाकर मोसघास सहित पूर्व में तैयार थैलियों या जमीन में रोप देते हैं। 3. वैज ग्राफिटंग - वर्तमान में वेज ग्राफ्टिंग प्रवर्धन की सबसे उपयुक्त विधि है। इस विधि द्वारा ग्रीन हाउस परिस्थितियों में वर्ष भर पौधे तैयार किये जा सकते हैं। ग्राफ्टिंग की यह एक आसान विधि है। इसमें सफलता का प्रतिशत भी बडिंग विधि से अधिक है। वेज ग्राफ्टिंग में पौधा तैयार होने में कम समय लगता है। ग्राफ्टिंग के 10-15 दिन बाद पत्तियाँ निकलना प्रारम्भ हो जाती है तथा एक माह में पौधे तैयार हो जाते हैं। जिन पौधों में ग्राफ्टिंग असफल रहती है, उनमें पुनः ग्राफ्टिंग की जा सकती है। इस विधि में जिस किस्म के पौधे तैयार करने है, उस पौधे से पेंसिल के आकर की एक मौसम पुराना (3-4 माह पुरानी) शाखा 15-18 से.मी. लम्बी शाखा का चयन किया जाता है। इस प्रकार चयन की गयी शाखा की पत्तियों को ग्राफ्टिंग करने से 5-7 दिन हटा दिया जाता है। इसी समय लगभग एक वर्ष पुराने एवं पेंसिल के आकार के मूलवृंत को जमीन से 15-18 से.मी. की ऊँचाई से मूलवृंत के उपरी भाग को काट दिया जाता है। कटे हुए भाग के बीच में ग्राफ्टिंग चाकू की सहायता से 4-4.5 से.मी. लम्बाई के दो तिरछे वेज आकार के कटान लगाये जाते है। सायन में लगाये गये कटान को मूलवृंत वाले भाग में सीधा फंसा दिया जाता है। ग्राफ्ट किये भाग को पारदर्शी प्लास्टिक पट्टी से बांध दिया जाता है। जब ग्राफ्ट के उपरी भाग में फुटान प्रारम्भ हो जाती है, तो समझ लेना चाहिये कि ग्राफ्टिंग सफल हो गयी। ग्राफ्टिंग के नीचे वाले भाग से होने वाली फुटान को हटाते रहना चाहिये। इस प्रकार नया पौधा तैयार हो जाता है। 4. स्टूलिंग - यह पौधे तैयार करने का एक सरल एवं सस्ता तरीका है। कटिंग या लेयरिंग द्वारा तैयार पौधे को 50-50 से.मी. की दूरी पर रोपण कर दिया जाता है। 3 वर्ष तक इनको बढने दिया जाता है। 3 वर्ष पश्चात मार्च माह में इनको जमीन के लेवन से काट दिया जाता है। कटे हुए स्थान से नयी शाखायें निकलती है। मई माह में 3 से.मी. चौड़ाई में छाल उतार कर रिंग बना दी जाती है। ऐसी सभी शाखाओं को मिट्टी चढ़ाकर 90 से.मी. उंचाई। दिया जाता है। उपर से प्लास्टिक मल्च से मिट्टी को ढक दिया जाता है जिससे मिट्टी में नमी बनी तो माह बाद मानसून आने के बाद ऐसी शाखाओं को मातृ पौधे से अलग करके नर्सरी में रोपित कर दे इस तकनीक को पुनः उसी मा पोधे पर सितम्बर माह में दुहराते है। नवम्बर माह में पौधे तैयार हो जाते है। इस प्रकार वर्ष में दो बार नये पौधे तैयार हो जाते है। इस प्रक्रिया में किसी भी रुट हारमोन की जरुरत नहीं पड़ती है। "

उर्वरक की जानकारी

अमरुद की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

" खाद एवं उर्वरक :- अच्छी गुणवत्ता एवं अधिक उत्पादन हेतु आवश्यक है कि प्रत्येक वर्ष खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग किया जावे । खाद एवं उर्वरकों की मात्रा भूमि की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है।प्रति पौधा खाद एवं उर्वरक पौधे की आयु केअनुसार डाले। 👉 मात्रा किलोग्राम प्रति पौधा - पेड़ की आयु वर्ष में 1-3 वर्ष पर गोबर की खाद 10-20 किलो और यूरिया 0.05-0.25 किलो, सुपर फास्फेट 0.15-1.50 किलो, म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.20-0.40 किलोपेड़ की आयु वर्ष में 4-6 वर्ष पर गोबर की खाद 25-40 किलो और यूरिया 0.30-0.60 किलो, सुपर फास्फेट 0.50-2.00 किलो, म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.40-0.80 किलोपेड़ की आयु वर्ष में 7-10 वर्ष पर गोबर की खाद 40-50 किलो और यूरिया 0.75-1.00किलो, सुपर फास्फेट 2.00 किलो, म्यूरेट ऑफ पोटाश 0.80-1.20 किलोपेड़ की आयु वर्ष में 10 वर्ष से अधिक पर गोबर की खाद 50 किलो और यूरिया 1.00 किलो, सुपर फास्फेट 2.50 किलो, म्यूरेट ऑफ पोटाश 1.20 किलोकेन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान लखनऊ द्वारा खाद एवं उर्वरकों की निम्नानुसार सिफारिश की गयी है। 👉 सघन बागवानी मेंपौध रोपण दूरी 3x1.5, 3x3, 6x3 मीटर पर -यूरिया प्रति पौधा - जून में प्रथम वर्ष यूरिया 182 ग्राम, सितम्बर में यूरिया 78 ग्राम कुल 260 ग्रामयूरिया प्रति पौधा - जून में द्वितीय वर्ष यूरिया 364 ग्राम, सितम्बर में यूरिया 156 ग्राम कुल 520 ग्रामयूरिया प्रति पौधा - जून में तृतीय वर्ष यूरिया 546 ग्राम, सितम्बर में यूरिया 234 ग्राम कुल 780 ग्रामयूरिया प्रति पौधा - जून में चतुर्थ वर्ष यूरिया 728 ग्राम, सितम्बर में यूरिया 312 ग्राम कुल 1040 ग्रामयूरिया प्रति पौधा - जून में पाँच एवं अधिक वर्ष यूरिया 910 ग्राम, सितम्बर में यूरिया 390 ग्राम कुल 1300 ग्राम 👉 सुपर फास्फेट (एसएसपी) प्रति पौधा - जून में प्रथम वर्ष एसएसपी 375 ग्रामजून में द्वितीय वर्ष एसएसपी 750 ग्रामजून में तृतीय वर्ष एसएसपी 1125 ग्रामजून में चतुर्थ वर्ष एसएसपी 1500 ग्रामजून में पाँच एवं अधिक वर्ष एसएसपी 1875 ग्राम। 👉 एम.ओ.पी. प्रति पौधा - जून में प्रथम वर्ष एम.ओ.पी. 100 ग्रामजून में द्वितीय वर्ष एम.ओ.पी. 200 ग्रामजून में तृतीय वर्ष एम.ओ.पी. 300 ग्रामजून में चतुर्थ वर्ष एम.ओ.पी. 400 ग्रामजून में पाँच एवं अधिक वर्ष एम.ओ.पी. 500 ग्राम। 👉 खाद देने का समय एवं विधि - खाद एवं उर्वरकों के देने का समय क्षेत्र विशेष में कौन सी बहार की फसल ले रहे है उस पर निर्भर करता है।अमरुद में पौषक तत्व लेने वाली 48 प्रतिशत जड़ें 25 से.मी. गहराई तक तथा मुख्य तने से 1 मीटर की दूरी पर होती है। अतः खाद एवं उर्वरक मुख्य तने से 1 मीटर की दूरी पर चारों तरफ 25 से.मी. गहराई में ट्रेन्च खोदकर देवें। वर्षा ऋतु की फसल लेने के लिए गोबर की खाद, सुपर फॉस्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा तथा यूरिया की आधी मात्रा दिसम्बर माह में तथा बची हुई यूरिया की आधी मात्रा मार्च-अप्रैल में देनी चाहिए। सर्दी की फसल के लिये गोबर की खाद, सुपर फॉस्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश व यूरिया की आधी मात्रा जून माह में तथा यूरिया की शेष मात्रा सितम्बर माह में देनी चाहिए। वर्षा ऋतु की उपेक्षा सर्दी की फसल लेना अधिक लाभप्रद है। क्योंकि इस फसल में फल मीठे व कीट/व्याधि से मुक्त होते हैं।बलुई एवं कम उर्वरक मृदाओं में कभी-कभी जिंक, बोरोन एवं नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पौटाश की कमी से पत्तियों का छोटा, तांबीय एवं शिराओं का पीला होना, फलों का विकास रूकना, डाइबैक आदि लक्षण दिखाई देते हैं। इसके लिये उपरोक्तानुसार नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पौटाश की मात्रा के साथ-साथ 5 ग्राम जिंक सल्फेट, 5 ग्राम बोरेक्स तथा 3 ग्राम चूना प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। 👉 फर्टीगेशन -जब बगीचा ड्रिप सिंचाई विधि के साथ लगाया गया है तो आवश्यक है, कि जल विलेय उर्वरकों का प्रयोग ड्रिप के माध्यम से किया जावे। जल विलेय उर्वरकों की प्रतिवर्ष निम्नानुसार मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। उर्वरक NPK 12:61:00 प्रतिवर्ष 430 ग्राम प्रति पौधा NPK 19:19:19 प्रतिवर्ष 600 ग्राम प्रति पौधा NPK 13:00:45 प्रतिवर्ष 410 ग्राम प्रति पौधा 00:00::50+18% प्रतिवर्ष 540 ग्राम प्रति पौधा Calcium Nitrate प्रतिवर्ष 70 ग्राम प्रति पौधा। "

जलवायु और सिंचाई

अमरुद की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

✅ सिंचाई - अमरुद मुख्यतः वर्षा आधारित फसल है, लेकिन जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है वहां सिंचाई की जाती है, जिससे उपज एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है। पौध रोपण के बाद लगातार सिंचाई करें जिससे पौधों की । मृत्यु दर कम की जा सके। 2-3 वर्ष तक पौधों की अच्छी वृद्धि के लिये सिंचाई आवश्यक है। पौधों की वृद्धि के लिये गर्मियों में 7 से 10 दिन एवं सर्दियों में 15 से 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए।जब सर्दी की फसल ले रहे हैं, तो जून माह से सिंचाई प्रारम्भ करें तथा वर्षा ऋतु में आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। अक्टूबर-नवम्बर माह में 10-15 दिन के अन्तराल पर हल्की सिंचाई अवश्य करें।वर्षा ऋतु की फसल के लिये फरवरी-मार्च से सिंचाई प्रारम्भ करनी चाहिए। गर्मियों में 8-10 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें। फल पकने क समय खेत में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए। अधिक नमी होने से फलों की गुणवत्ता घट जाती है।ड्रिप द्वारा सिंचाई करने पर पानी की बचत एवं फलों की गुणवत्ता एवं उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। बूंद-बूंद सिंचाई के उपयोग से लगभग 40-50 प्रतिशत तक पानी की बचत तथा ड्रिप का मल्च के साथ उपयोग करने पर लगभग 50-60 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है।पौधे दोनों ओर जड़ों के भली प्रकार विकास हेतु पौधों की कतार के दोनों ओर ड्रिप लाइन (इन लाइन) लगाया जाना उचित रहता है। 👉ड्रिप द्वारा निम्नानुसार सिंचाई करनी चाहिये।प्रथम वर्ष में 4-6 लीटर पानी प्रति पौधा प्रति दिनद्वितीय वर्ष में 8-12 लीटर पानी प्रति पौधा प्रति दिनतृतीय वर्ष में 15-20 लीटर पानी प्रति पौधा प्रति दिनचतुर्थ वर्ष में 25-30 लीटर पानी प्रति पौधा प्रति दिनपंचम एवं आगे वर्ष में 35-40 लीटर पानी प्रति पौधा प्रति दिन ।

रोग एवं उपचार

अमरुद की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

"फल मक्खी:- यह मक्खी बरसात के फलों को विशेष हानि पहुंचाती है। यह फलों के उपर अण्डे देती है, जिससे बाद में लटे (मैगटस) पैदा होकर फल के अन्दर के गूदे को खाने लगते है, जिससे फल काने होकर सड़ने लगते है। प्रभावित फल अन्त में नीचे गिर जाते हैं। नियंत्रण:- 1. प्रभावित फलों को इकट्ठा कर भूमि में गहरा गाड़ देवे अथवा नष्ट कर देवें। 2. वर्षा की फसल न लें। 3. सीरा या शक्कर 100 ग्राम में एक लीटर पानी के घोल में 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी मिलाकर प्रलोभन तैयार करें। इस प्रलोभन की 50 से 100 मि.ली. मात्रा प्रति मिट्टी के प्याले की दर से प्याले में डालकर जगह-जगह पेड़ों पर टांग देवें। 4. मैलाथियान 50 ईसी एक मिली लीटर या डाईमिथोएट 30 ई.सी. 1.5 मि.ली. का प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें। 10-15 दिन के अन्तराल पर कम से कम दो छिड़काव करें। प्रमुख व्याधियां - अ. म्लानी रोग (मुरझान, उखटा, सूखा या विल्ट) :- लक्षण - रोग के लक्षण दो प्रकार के होते हैं। पहला आंशिकमुरझान जिसमें पेड की एक शाखा या एक से अधिक शाखाएं रोगग्रस्त होती हैं, अन्य शाखाएं स्वस्थ दिखाई पड़ती हैं। ऐसे पेड़ों की पत्तियां पीली एवं भूरी पड़कर झडने लगती है। रोगग्रस्त शाखाओं पर फल छोटे व भूरे व सख्त हो जाते हैं। दुसरी अवस्था में रोग का प्रकोप पूरे पेड पर होता है और पेड शीघ्र ही सुख जाता है। रोग अगस्त से अक्टूबर माह में उग्र रूप धारणकर लेता है। रोग कारक- रोग मुख्य रूप से जडों में निमेटोड का प्रकोप होने से फयूजेरियम ऑक्सीस्पोरम/फयूजेरियम सिडी/राइजोक्टोनिया कवक के प्रकोप से होता है। नियंत्रण:- 1. रोग का प्रभावी नियंत्रण कठिन है। बाविस्टीन एक ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल कर 20 से 30 लीटर घोल प्रति पेड़ या आवश्यकतानुसार भूमि का मंजन (ड्रेन्च) करने में लाभ होता है। 2. रोग को फैलाने से बचाने के लिए व खेत की स्वस्थता के लिए रोगी पेडा को जड़ सहित उखाडकर जला देना चाहिए व उस स्थान की मिट्टी को बाविस्टीन 1 ग्राम लीटर पानी की दर से दूसरा पौधा लगाने से पूर्व उपचारित करना चाहिए। 3. पेड़ो को अधिक पानी नही देवें एवं खेत में जल निकास की व्यवस्था करनी चाहिये। 4. हरी खाद एवं कार्बनिक खाद का अधिक प्रयोग करें। ट्राइकोडरमा विरीडी की एक कि.ग्रा. मात्रा को 10 क्वि. गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट में मिलाकर पानी का छिडकाव करते हुए 15-20 दिन तक छाया में रखें। इस प्रकार तैयार कल्चर की 1-2 कि. ग्रा. मात्रा प्रति पेड गोबर की खाद के साथ मिट्टी में मिलाये। ब. श्यामवर्ण (एन्छेक्नोज):- लक्षण - रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक होता है। ग्रसित फलों पर काली गहरे भूरे धब्बे पड़ जाते है और उनकी वृद्धि रूक जाती है। ऐसे फल पेड पर लगे रहते है और सड जाते है। रोगी कच्चे फल सख्त व कार्कनुमा हो जाते है, ऐसी शाखाओं की पत्तियों पर लाल रंग के दाने उभर आते है और पत्तियों का रंग भूरा हो जाता है। रोगकारक:- रोग कोलेटोट्राइकम नामक कवक से होता है। नियंत्रण:- 1. सूखी टहनियों को काट देना चाहिए। 2. मैन्कोजेव दवा 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर फल आने तक 10 से 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिए। स. फल सड़न :- यह रोग वर्षाऋतु में ली जाने वाली फसल में होता है। आरम्भ में फलों पर भूरे रंग के धब्बे बनते है जो बाद में बढकर फलों को सडा देते है वातावरण में अधिक नमी होने पर ऐसे फलों पर कवक की सफेद वृद्धि दिखाई देती है। नियंत्रण :- 1. मैन्कोजेव या जाइनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर कम से कम 2. छिडकाव 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए। रोगग्रस्त पौधों पर इन कवक-नाशियों का छिडकाव वर्षा आने से पूर्व दो बार करना चाहिए। "

खरपतवार नियंत्रण

रोपित बाग में 10-15 दिन के अंतर पर थालों की निराई-गुडाई करके खरपतवार को निकलते रहते हैं। जब पौधे बड़े हो जायें। तब वर्षा ऋतु में बाग की जुताई कर देते हैं। जिससे खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।अन्तराशस्य क्रियायें -अमरुद में रोपण के बाद हल्की गहराई तक निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकालते रहें। प्रारम्भ में वर्षा ऋतु में हरी खाद वाली फसल (ढेंचा) बोकर 1-1.5 माह की फसल को जमीन में जुताई करके दबायें। बाकी वर्ष भर बगीचे साफ सुथरा रखें। आरम्भ के तीन वर्ष तक कुष्माण्ड कुल की सब्जियों को छोड़कर सभी प्रकार की सब्जियों, दलहनी फसलें, गाजर, चोला, मिर्ची, बेंगन आदि ली जा सकती है। मल्चिंग :- 1.शुष्क क्षेत्रों में पौधों के चारों ओर प्लास्टिक मल्च अथवा घास-पूस, पुआल आदि से भी मृदा की सतह को ढक कर नमी को संरक्षित किया जा सकता है। इससे 25-30 प्रतिशत जल आवश्यकता कम हो जाती है। 2.यह खरपतवारों की वृद्धि रोकने में भी सहायक होता है। एन्टी बर्ड नेट :- 1.पक्षियों द्वारा अमरुद के फलों को काफी नुकसान पहुंचता है। यदि इनसे बचाव नहीं किया जाये तो सम्पूर्ण फसल इनके द्वारा नष्ट की जा सकती है। 2.पक्षियों से बचाव के लिए सम्पूर्ण खेत को एन्टी बर्ड नेट से ढककर रखना आवश्यक है।

सहायक मशीनें

ट्रेनिंग एवं पूनिंग - आरम्भ में ट्रेनिंग एवं पूनिंग पौधों के उत्पादन में वृद्धि, सुन्दर और मजबूत ढांचा प्रदान करने के लिये की जाती है। ट्रेनिंग एवं पूनिंग द्वारा पौधों का आकार छोटा एवं शाखाओं का एक मजबूत छत्र (कैनोपी) तैयार होता है, जिस पर फलों की हाथ से तुड़ाई एवं छिड़काव आदि आसानी से किये जा सकते है। मुख्य तने पर जमीन से 90 से.मी. तक कोई शाखा नहीं होनी चाहिये। इस ऊंचाई के बाद 3-4 शाखायें चारों तरफ बढ़ने दें। इसके लिये जब पौधा लगभग 1.25 मीटर का हो जावे तो मुख्य तने को उपर से काट देना चाहिये। इस प्रकार 3-4 शाखायें चारों तरफ बढ़ने देते हैं, शेष फुटान को हटाते रहना चाहिये। जब नई शाखाओं की लम्बाई 50 से.मी. की हो जावे तो आधी दूरी रखते हुए काट देना चाहिये। इसके बाद प्रति दूसरे या तीसरे वर्ष ऊपर से आधी लम्बाई में टहनियों को काटते रहना चाहिये। इस प्रकार एक मजबूत ढांचा तैयार होता है।जड़ से निकलने वाली शाखायें एवं जलांकुर (Water Shoot) को हटाते रहना चाहिये। अमरुद में फूल तथा फल नई वृद्धि पर ही लगते हैं। अतः कृन्तन में ऐसी क्रियाएँ अपनाई जानी चाहिए, जिससे नई वृद्धि अधिक मात्रा में हो। ज्यादा घनी शाखाओं से कुछ साखाएं निकाल देनी चाहिए।