चना की खेती

चना शुष्क एवं ठन्डे जलवायु की फसल है, जिसे रबी मौसम में उगाया जाता है। यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। चने का प्रयोग दाल एवं रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है, जिससे विविध व्यंजन बनाए जाते हैं। चने की हरी पत्तियाँ साग बनाने, हरा तथा सूखा दाना, सब्जी व दाल बनाने में प्रयुक्त होता है। दाल से अलग किया हुआ छिलका और भूसा पशु चाव से खाते है। चना एक बहुत महत्वपूर्ण दलहनी फसल है इसकी खेती रबी ऋतु में की जाती है। पूरे विश्व का 70 प्रतिशत चने की पैदावार अकेले भारत करता है।


चना

चना उगाने वाले क्षेत्र

भारत में चने की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा बिहार में की जाती है। देश के कुल चना क्षेत्रफल का लगभग 90 प्रतिशत भाग तथा कुल उत्पादन का लगभग 92 प्रतिशत इन्ही प्रदेशों से प्राप्त होता है। भारत की अनाज वाली फसलों में चने का क्षेत्रफल तथा पैदावार के हिसाब से क्रमशः पांचवा व चौथा स्थान है। चना क्षेत्रफल व पैदावार अन्य दलहनी फसलों की तुलना में सबसे अधिक है। इसमें पाये जाने वाली तत्वों ने इसका महत्व और भी बढ़ा दिया है।

चना की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्राम वसा, 61.5 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 149 मिग्रा. कैल्सियम, 7.2 मिग्रा. लोहा, 0.14 मिग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है।

बोने की विधि

बुआई की विधि:- समुचित नमी में सीडड्रिल से बुआई करें। खेत में नमी कम हो तो बीज को नमी के सम्पर्क में लाने के लिए बुआई गहराई में करें तथा पाटा लगाऐं। पौध संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से रखें। पंक्तियों (कूंड़ों) के बीच की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे । सिंचित अवस्था में काबुली चने में कूंड़ों के बीच की दूरी 45 से.मी. रखनी चाहिए। पछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर में 20-25 तक बढ़ाकर बोनी करें। देरी से बोनी की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 से.मी. रखें।बुवाई का समय :-देशी चने की बिजाई का उपयुक्त समय मध्य अक्तूबर है। अगेती बोई गई फसल की बिजाई के समय औसत 30 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक होने पर उखेड़ा रोग लग जाता है। अच्छी पैदावार लेने के लिए मध्य अक्तूबर से 30 अक्तूबर तक देशी चने की बुवाई हो जानी चाहिए तथा काबुली चने को बोने का समय अक्तूबर का आखिरी सप्ताह। बीज उपचार  :- चने की फसल में बहुत से कीट व बीमारियां लगती है। इसके बुरे प्रभाव से बचने के लिए बीज उपचार करके ही बोना चाहिए, बीज को कीटों के प्रभाव से बचाने के लिए सबसे पहले फफूंदनाशी उसके बाद कीटनाशी और इसके बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लें । कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब या थायरम की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा प्रति एक किलो बीज को उपचारित करने के लिए काफी है। भूमि में दीमक लगने से रोकने के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ई.सी. की 8 मिलीलीटर मात्रा से एक किलोग्राम बीज का उपचार कर लें। चने की अच्छी पैदावार के लिए बिजाई से पहले बीज को राइजोबियम एवं पी.स.बी. टीके से उपचारित करें। इस उपचार से जड़ों में ग्रन्थियां अच्छी बनती है। राइजोबियम का टीका करने का ढंग इस प्रकार है 50-60 ग्राम गुड़ को 2 कप पानी में घोल लें। फिर इस घोल को एक एकड़ के बीजों में मिला दें। गुड़ लगे बीजों पर चने के टीके को डालकर हाथ से मिलाएं ताकि द्रव्य बीजों पर अच्छी तरह से लग जाये। इसके बाद उपचारित बीज को छाया में सुखाकर बीजें। राइजोबियम का टीका हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय,हिसार से माइक्रोबायोलाजी विभाग एवं किसान सेवा केन्द्र से प्राप्त किया जा सकता है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

चने की फसल के लिए ज्यादा समतल बैडों की जरूरत नहीं होती। यदि इसे मिक्स फसल के तौर पर उगाया जाये तो खेत की अच्छी तरह से जुताई होनी चाहिए। चने की फसल के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 15 सेमी गहरी कर देनी चाहिए। इसके बाद 2-3 जुताई देशी हल या हैरों से करके पाटा लगाकर खेत को समतल कर देना चाहिए।

बीज की किस्में

चना के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

सिफारिश की गई देशी किस्में एवं विशेषताएं :- 1. सी-235 :- यह किस्म तराई व सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए, दर्मियानी ऊंचाई कुछ ऊपर बढ़ने वाली, मध्यम (145-150 दिनों में), भूरे-पीले रंग के दाने, औसत पैदावार 8.0 क़्वींटल/एकड़ । इस किस्म में अंगमारी (ब्लाईट) सहनशील परन्तु उखेड़ा रोग लगता है। 2. हरियाणा चना नं.-1 ( HC-1) :- बरानी, सिंचिंत व पछेती बिजाई के लिए। कपास व धान के बाद समस्त हरियाणा, बोना व हल्का-हरा तना, हल्की हरी पत्तियां, लम्बी प्रारम्भिक शाखाएं व शेष छोटी, अगेती (135-140 दिनों में), आकर्षक पीले रंग के दाने, औसत पैदावार 8-10 क़्वींटल /एकड़ । यह किस्म शीघ्र पकने वाली अपेक्षाकृत फली छेदक का कम आक्रमण, उखेड़ा सहनशील है। 3. हरियाणा चना नं.- 2,3,5 (Gram HC-2,3,5) :- हरियाणा के बारानी क्षेत्र को छोडकर सारे सिंचित क्षेत्रों में बोने के लिए सिफारिश, पौधे ऊंचे, कम फैलाव, लगभग सीधे बढ़ने वाले, इसकी पत्तियां चौडी व गहरे हरे रंग की, मध्यम (150-160 दिनों में) व दाना मध्यम से मोटा व भूरा-पीले का दाना औसत पैदावार 8-10 क़्वींटल/एकड़ । उखेड़ा व जड़ गलन के लिए रोगरोधी । 4. पी.बी.जी.7 (Gram PBG-7) :- सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए सिफारिश, पौधे ऊंचे व सीधे, मध्यम (159 दिनों में), दाना मध्यम व भूरे रंग का, औसत पैदावार 8.0 क़्वींटल/एकड़ । उखेड़ा व जड़ गलन के लिए हल्का रोगरोधी व अंगमारी के लिए रोग रोधी । 5. पी.बी.जी.4 व 3 (Gram PBG-4) :- ये किस्में बारानी व कम सिंचित क्षेत्रों के लिए, पौधे सीधे व गहरे हरे रंग के होते हैं। मध्यम (160 दिनों में) दाना मोटा व भूरे -पीले रंग का ! औसत पैदावार 7.2-7.8 क़्वींटल/एकड़ । उखेड़ा व जड़ गलन के लिए हल्का रोगरोधी व अंगमारी के लिए रोग रोधी । 6. जी.एन.जी. 1958: (GNG-1958) :- बारानी क्षेत्रों को छोड़कर सभी क्षेत्रों के लिए, सीधे व गहरे हरे रंग के होते हैं। मध्यम (145-150 दिनों में) दाने भूरे-पीले रंग के औसत पैदावार 8.0-10.5 क्विंटल/एकड़ । उखेड़ा रोग के प्रति रोगरोधी । पूसा 209 - चने की यह जाति 160 से 165 दिन में पककर तैयार हो जाती है इसके बीजों का रंग हल्का भूरा तथा उपज लगभग 28 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। पन्त जी 114 - इस जाति को पंतनगर विश्वविद्यालय में विकसित किया गया है। इसमें झुलसा रोग की रोधक क्षमता है। इसकी फसल 145 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है । सिफारिश की गई काबुली किस्में एवं विशेषताएं :- 1. हरियाणा काबली नं.1 :- राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में, अधिक शाखाएं व फली प्रति पौधा, पौधा फैलावदार, मध्यम, दाना मध्यम आकार, गुलाबी सफेद, पकने में अच्छे । औसत पैदावार 8-10 क्विंटल/एकड़। अन्य काबली किस्मों से अपेक्षाकृत उखेड़ा रोग नहीं लगता । 2. हरियाणा काबली नं.2 :- राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में, इस किस्म के पौधे बढ़वार में कम सीधे और हल्के हरे पत्ती वाले होते हैं, मध्यम, दाना मोटा आकार का सफेद होता है। औसत पैदावार 7-8 क़्वींटल/एकड।यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोग रोधी किस्म है । 3. एल.552 :-राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में इस किस्म के पौधे लम्बे व सीधे होते हैं। मध्यम, दाना मोटा व क्रीमी सफेद रहता है। औसत पैदावार 7-8 क्विंटल/एकड़ । यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोग रोधी किस्म है। 1. बी.जी.1053 :- हरियाणा राज्य के बारानी क्षेत्र छोड़कर सारे क्षेत्रों में, इस किस्म के पौधे कम सीधे रहते हैं। मध्यम दाना गोल व क्रिमीय सफेद रहता है। औसत पैदावार 8.0 क़्वींटल/एकड। यह किस्म चने की मुख्य बीमारियों की रोग रोधी किस्म है। के.4 - इस जाति की फसल 160 से 165 दिन में पकती है। इसके दानों का आकार गोल तथा रंग सफेद होता है इसके पैदावार 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है इसका उपयोग चाट बनाने में किया जाता है। के.5 - यह देर से पकने वाली जाति है। इसकी फसल लगभग 170 से 174 दिन में पक जाती है इसके दाने आकार में गोल चिकने तथा रंग हरा होता है। इसकी पैदावार लगभग 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका उपयोग छोले बनाने में किया जाता है। प्रगति - इस जाति के दाने चने सफेद रंग के होते हैं। इसकी फसल 150 से 160 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। नवीनतम किस्म - आराधना (सी एस जे के 54), करण चना 1 (आर एस जी 959)।

बीज की जानकारी

चना की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

देशी चने के लिए उपयक्त छोटे दाने बीज मात्रा 15-16 किलोग्राम प्रति एकड़ है। हरियाण चना नं.3 के दाने मोटे होने के कारण इसका बीज 30-32 किलोग्राम प्रति एकड़ पर्याप्त है। काबली चने के लिए 36 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ आवश्यकता होती है। 25 प्रतिशत बीज की मात्रा बढ़ाकर पछेती बिजाई के लिए उपयोग करें।

बीज कहाँ से लिया जाये?

चने का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

चना की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना चाहिए। खाद व उर्वरक  :- सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए सिफारिष की गई उर्वरक का अनुपात एनपीके 8:16:00 की मात्रा प्रति एकड़ प्रयोग करें। यूरिया:- 12 किलो/एकड़ आखिरी जुताई के समय खेत में मिलायें। सिंगल सुपर फॉस्फोरस :-100 किलो/एकड़ छिड़काव करें या डी.ए.पी. 35 किलो/एकड़ के हिसाब से बिजाई के समय या आखिरी जुताई के समय खेत में मिलायें। सिंचित अवस्था में उपयुक्त पोषक तत्वों के साथ 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ प्रयोग करें।

जलवायु और सिंचाई

चना की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

चने के खेत की सिंचाई फसल बोने के 35 से 40 दिन बाद फूल आने से पूर्व करनी चाहिए। तथा दूसरी सिंचाई दाना बनते समय करनी चाहिए। यदि खेत में वर्षा से अतिरिक्त जल भर जाए तो उसकी निकासी शीघ्र ही कर देना चाहिए।

रोग एवं उपचार

चना की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

चने के रोगों का एकीकृत प्रबन्धन :- खडी फसल पर प्रमुख रोग :- उकठा रोग, मूल विगलन, ग्रीवा गलन, तना विभाजन एवं एस्कोकाइटा ब्लाइट। गर्मियों में मिट्टी पलट हल से जुताई करने से मृदा जनित रोगों का नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। जिस खेत में उकठा रोग अधिक लगता हो उसमें 3-4 वर्ष तक चने की फसल नहीं लेनी चाहिए। बुवाई से पूर्व बीज को 4.0 ग्राम ट्राईकोडरमा पाउडर से शोधित कर लेना चाहिए। समय पर रोग रोधी/सहिष्णु प्रजातियों के प्रमाणित बीज की बुवाई करनी चाहिए। चने की उकठा रोधी प्रजातियों का ही चयन करें। ट्राईकोडरमा पाउडर की 2.5 कि.ग्रा. मात्रा को 60-75 कि.ग्रा., गोबर की खाद अथवा वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई करने से पूर्व खेत में मिलाने से मृदा जनित रोगों जैसे उकठा, ग्रीवागलन, मूल विगलन तथा तना विगलन आदि रोगों के प्रबन्धन करने में सहायता मिलती है। (i) झुलसा रोग (ब्लाइट) - यह बीमारी एक फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के कारण पौधें की जड़ों को छोड़कर तने, पत्तियों एवं फलियों पर छोटे गोल तथा भूरे रंग के धब्बे बन जाते है। पौधे की आरम्भिक अवस्था में जमीन के पास तने पर इसके लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। पहले प्रभावित पौधे पीले व फिर भूरे रंग के हो जाते है। अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोज़ेब नामक फफूंदनाशी की एक किग्रा या घुलनशील गन्धक की एक किग्रा या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 किग्रा मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अन्तर पर 3-4 छिड़काव करने चाहिए। (ii) उखटा रोग (विल्ट) - इस रोग के लक्षण जल्द बोयी गयी फसल में बुवाई के 20-25 दिनों बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। देर से बोयी गयी फसल में रोग के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। इस रोग के प्रारम्भ में पौधे पीले पड़ने लगते हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर पत्तियाँ सूखने लगती हैं, व अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के नियन्त्रण हेतु भूमि में नमी की कमी नही होनी चाहिये। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही सिंचाई कर देनी चाहिये। रोगरोधी किस्मों की बुवाई करनी चाहिए। (iii) किट्ट (रस्ट) - इस बीमारी के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह पर, फलियों, पर्णवृतों तथा टहनियों पर हल्के भूरे काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोज़ेब नामक फफूंदनाशी की एक किग्रा या घुलनशील गन्धक की एक किग्रा या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 किग्रा मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल से 2-3 छिड़काव करने चाहिए। चने के कीटों का एकीकृत प्रबन्धन :- समय से बुवाई करनी चाहिए। छिटपुट बुवाई नहीं करनी चाहिए। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सूखी घास के छोटे-छोटे ढेर को रख कर कटुआ कीट की छिपी हुई इंडियों को प्रातः खोजकर मार देना चाहिए। चने के साथ अलसी,सरसों, गेहूं या धनियों की सह फसली खेती करने से फली बेधक कीट से होने वाली हानि कम हो जाती है। 5 खेत के चारो ओर एवं लाइनों के मध्य अफ्रीकन जाइन्ट गेंदे को ट्रेप क्रॉप के रूप में प्रयोग करना चाहिए। प्रति हेक्टेयर की दर से 50-60 बर्ड पर्चर लगाना चाहिए। फूल एवं फलियां बनते समय सप्ताह के अन्तराल पर निरीक्षण अवश्य करना चाहिए। फली बेधक के लिए 2 गंधपाश प्रति एकड़ की दर से 50 मीटर की दूरी पर लगाकर भी निरीक्षण किया जा सकता है।निरीक्षण में (कटुआ कीट, फलीबेधक एवं कूबड़ कीट) किसी भी कीट के आर्थिक क्षति स्तर पर पहुंचने पर निम्नलिखित कीट नाशियों में से किसी एक को उनके सामने लिखित मात्रा को प्रति एकड़ की दर से बुरकाव अथवा 150 - 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। क्यूनालफास 25 ई.सी.का 1 लीटर या मैलाथियान 50 ई.सी. 1.0 लीटर या फेनवेलरेट 20 ई.सी. का 500 मिलीलीटर या फेनवेलरेट 0.4 प्रतिशत धूल 10 कि.ग्रा. या आवश्यकता पड़ने पर दूसरा छिड़काव / बुरकाव करें। एक ही कीटनाशी का दो बार प्रयोग न करें।

खरपतवार नियंत्रण

निराई - गुड़ाई :-चने की अच्छी पैदावार लेने के लिए 2 निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है। पहली गुड़ाई बिजाई से 25-30 दिन बाद तथा दूसरी 45-50 दिन पर करें। पछेती बिजाई में दूसरी गुड़ाई 55-60 दिन पर करें। खरपतवार नियंत्रण  - एलाक्लोर 50 ई.सी. की 1-1.5 लीटर प्रति एकड़बुवाई के तुरन्त बाद (तीन दिन के अन्दर) छिड़काव करें। फ्लूक्लोरोलिन 45 प्रतिशत ई.सी. की 1लीटर प्रति एकड़ बुवाई के पहले छिड़काव करें। पेंडीमिथलीन 30 ई.सी. की 1.5 लीटर प्रति एकड़ बुवाई के बाद (तीन दिन के अन्दर) छिड़काव करें।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी, फावड़ा, दराँती,आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।