आँवला की खेती

आँवला  की खेती ऊसर, बंजर परती एवं बेकार पड़ी भूमियों पर भी सुगमता से उगाया जा सकता है। जिससे किसान भाई खाली या बेकार पड़ी भूमि से लाभ कमा सकते हैं। यह 0 - 46 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान सहन करने की क्षमता रखता है। पुष्पन के समय गर्म वातावरण अनुकूल होता है।


आँवला

आँवला उगाने वाले क्षेत्र

भारत में आवँले की खेती उत्तर प्रदेश, आगरा, मथुरा, इटावा एवं फतेहपुर एवं बुन्देलखण्ड, राज्यों में होती है।

आँवला की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

इसके फल विटामिन सी के साथ साथ लवण, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस, कैल्शियम, लोहा, रेशा एवं अन्य विटामिनों के भी धनी होते हैं। एक चम्मच आँवले को शहद के साथ लेने पर कई प्रकार के विकार जैसे क्षय रोग, दमा, खून का बहना, स्कर्वी, मधुमेह, खून की कमी, स्मरण शक्ति की दुर्बलता, कैंसर अवसाद एवं पहले बुढ़ापा एवं बालों का झड़ना एवं सफेद होने से बचा जा सकता है।

बोने की विधि

पौध रोपण के लिए गड्ढे जून में खोदना चाहिए। गड्ढे का आकार 1 x 1 x 1 मीटर रखना चाहिए। गड्ढे के अंदर कंकर की कठोर पर्त को तोड़ देना चाहिए। गड्ढे से गड्ढे की दूरी किस्म के अनुसार 8 से 10 मीटर रखते हैं। पौधे वर्गाकार विधि से लगाते हैं। गड्ढे की भराई के समय प्रति गड्ढा 25 किग्रा गोबर की सड़ी हुई खाद तथा 100 ग्राम क्यूनालफॉस धूल को मिलाकर जमीन से 10 सेमी ऊंचाई तक भरकर सिंचाई कर देना चाहिए ताकि गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह से बैठ जाए। इन्हीं गड्ढों में जुलाई से सितंबर के बीच या उचित सिंचाई का प्रबंध होने पर जनवरी से मार्च के बीच पौध रोपण का कार्य किया जाता है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

आँवला  को लगभग सभी प्रकार की (लवणीय तथा क्षारीय ) भूमि में उगाया जा सकता है। पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करके 2-3 बार देशी हल या हैरों से जुताई करके खेत को समतल बना लेना चाहिए।

बीज की किस्में

आँवला के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

(i) एन. ए. 7 (NA-7)- यह फ्रांसिस किस्म के चयन से विकसित की गयी है। इसके वृक्ष ओजस्वी और सीधे बढ़ने वाले होते हैं। फल बड़े, चिकनी त्वचा वाले तथा आकार में चपटे अंडाकार होते हैं। प्रति शाखा अधिक मादा पुष्प होने के कारण फलत अच्छी होती है और आंतरिक ऊतक क्षय रोग से प्रभावित न होने के कारण व्यावसायिक उत्पादन हेतु एक आदर्श किस्म है। (ii) एन.ए.6 (NA-6) - इस प्रजाति के वृक्ष फैलने वाले होते हैं। फल आकार में छोटे व चपटे श्वेताभ पीले होते होते हैं। इसकी फलत अच्छी होती है। फलों में रेशा बहुत कम होने के कारण यह मुरब्बा, जैम तथा कैंडी बनाने के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। (iii) चकैया - इसके वृक्ष सीधे बढ़ने वाले होते हैं। तथा फलत अच्छी होती है। फल छोटे से मध्यम आकार के चपटे, सफेदी लिए हरे रंग के होते हैं। गूदे में रेशे की मात्रा अधिक होती है। फल कम गिरते हैं। यह अचार और लच्छे बनाने के लिए उत्तम किस्म है।

उर्वरक की जानकारी

आँवला की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

1. आँवला  के 1 वर्ष के पौधे में - 10 किग्रा गोबर की खाद, 100 ग्राम नाइट्रोजन , 50 ग्राम फॉस्फोरस ग्राम, 75 ग्राम पोटाश देना चाहिए। 2. आंवले के 2-9 वर्ष के पौधे में - 20 किग्रा गोबर की खाद, 200 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस,150 ग्राम पोटाश देना चाहिए। 3. 10 वर्ष और उससे अधिक वर्ष के पौधे में - 100 किग्रा गोबर की खाद, 1 किग्रा नाइट्रोजन, 500 ग्राम फॉस्फोरस, 750 ग्राम पोटाश देना चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

आँवला की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

शीत ऋतु में 10 से 15 दिन के अन्तर पर तथा ग्रीष्म ऋतु में 7-10 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए। फूल आने के समय (फरवरी-मार्च) में सिंचाई कम करनी चाहिए। अप्रैल से जून तक सिंचाई का विशेष महत्त्व है। टपक सिंचाई से आंवले में अच्छी उपज प्राप्त होती है तथा खरपतवार भी कम उगते हैं।

रोग एवं उपचार

आँवला की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) आँवला  का रतुआ - इस रोग में पत्तियों, पुष्प शाखाओं तथा तने पर नारंगी रंग के फफोले दिखाई देते हैं। इसके नियंत्रण के लिए जुलाई-सितंबर माह के दौरान डाईथेन - जेड 78 (0.2%) की वेटएबल सल्फर (0.4%) के तीन छिड़काव आवश्यक है। इस रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब (0.25%), कन्टाफ (0.1%) का छिड़काव भी प्रभावी होता है। (ii) आँवले का टहनी झुलसा रोग - इस रोग का संक्रमण बरसात के मौसम के दौरान आंवले के पौधों पर दिखाई देता हैं। इस रोग के मुख्य लक्षण टहनियों का झुलसना और ऊपर से नीचे की तरफ तने का सूखना है। अक्सर नर्सरी में इस रोग का 50% संक्रमण देखा गया है। इस रोग के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम (0.1%) या मैंकोजेब या जिनेब @ 0.25% के 2 - 3 छिड़काव के साथ बगीचे में साफ-सफाई का ध्यान रखें।

खरपतवार नियंत्रण

अच्छी उपज प्राप्त हेतु निराई-गुड़ाई करते रहना अती आवश्यक है। थाले की सफाई के लिए अच्छी तरह से गुड़ाई कर खरपतवार निकालते रहना चाहिए। थाले के चारों ओर पलवार (mulch) बिछा देने से खरपतवार कम हो जाते हैं, तथा नमी संरक्षित रहती है।

सहायक मशीनें

देशी हल या हैरों, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा, आदि यंत्रो की आवश्यकता होती है।