जिमीकन्द (सूरन) की खेती

सूरन जमीन में होने वाली कन्द है जिस वजह से उसे जिमीकंद भी कहा जाता है। इसकी खेती भारत में प्राचीन काल से होती आ रही है। अपने गुणों के कारण यह सब्जियों में एक विशेष स्थान रखती है। बिहार में इसकी खेती गृह वाटिका से लेकर बड़े पैमाने पर हो रही है तथा यहाँ के किसान इसकी खेती आज नगदी फसल के रूप में कर रहे हैं। सूरन में पोषक तत्वों के साथ ही अनेक औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनके कारण इसका आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है।


जिमीकन्द (सूरन)

जिमीकन्द (सूरन) उगाने वाले क्षेत्र

जिमीकन्द या ओल की खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती है

जिमीकन्द (सूरन) की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

इसमें फाइबर, विटामिन सी, बी 6, बी 1 और फोलिक एसिड होता है, साथ ही पोटाशियम, लोहा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, और फास्फोरस भी पाया जाता है

बोने की विधि

01. चौरस खेत में - ओल की बुवाई करने के लिए अंतिम जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद एवं रसायनिक उर्वरक में नाइट्रोजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा को खेत में मिलाकर जुताई कर देना चाहिए। उसके बाद कंदों के आकार के अनुसार 75 से 90 सेंमी की दूरी पर कुदाल की सहायता से 20-30 सेंमी गहरी नाली बनाकर कंदों की बुवाई कर देनी चाहिए और नाली को मिटटी से ढक देना चाहिए। 02. गड्ढों में - इस विधि से अधिकांशत: जिमीकन्द (सूरन) की बुवाई की जाती है। इस विधि में 75 x 75 x 30 सेंमी या 1.0 x 1.0 मी. x 30 सेंमी चौड़ा एवं गहरा गड्ढा खोद कर कंदों की रोपाई की जानी चाहिए। रोपाई के पूर्व निर्धारित मात्रा में खाद एवं उर्वरक मिलाकर गड्ढे में दाल देना चाहिए। कंदों को बुआई के बाद मिट्टी से पिरामिड के आकार में 15 सेंमी ऊँचा कर देना चाहिए। कंद की बुवाई इस प्रकार करना चाहिए कि कंद का कलिका युक्त भाग ऊपर की ओर सीधा रहे।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश पदार्थ की प्रचुर मात्रा हो, उपयुक्त होती है। पहली जुताई मिट्टी पलट वाले हल से करने के बाद 3-4 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करना चाहिए।

बीज की किस्में

जिमीकन्द (सूरन) के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

अधिक उपज देने वाली किस्मों में हैदराबादी और त्रिवेन्द्रमी उपयुक्त पायी गयी हैं। (i) संतरा गाची - भारत में इस किस्म को पूर्वी भागों में उगाया जाता है। इस किस्म के कन्द हल्के कड़वे तथा मखनी रंग के होते हैं। इस किस्म के पौधों की वृद्धि बहुत ही तीव्रता से होती है। इसके कन्द खाने में स्वादिष्ट लगते हैं। इस किस्म से लगभग 50 से 75 टन की उपज मिल जाती है। (ii) गजेंद्र-1- इस किस्म के कन्दों के गूदे का रंग हल्का गुलाबी रंग का होता है। इसका स्वाद बहुत अच्छा होता है क्योंकि यह चरपराहट से रहित होता है। इसकी बुवाई मई के महीने में की जाती है और ये अक्टूबर और नवम्बर के महीने में पककर तैयार हो जाती है। यह जिमीकंद की अच्छी किस्म मानी जाती है।

बीज की जानकारी

जिमीकन्द (सूरन) की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

40-50 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त रहता है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

जिमीकन्द का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

जिमीकन्द (सूरन) की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

उपज अच्छी प्राप्त करने के लिए खाद एवं उर्वरक का प्रयोग आवश्यक है। जिमीकन्द के लिए 10-20 टन गोबर की खाद तथा 60-80 किग्रा नाइट्रोजन, 40-60 किग्रा फॉस्फोरस 40-60 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालना चाहिए। फॉस्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा, नाइट्रोजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा बेसल ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बची नाइट्रोजन एवं पोटाश की मात्रा को दो बराबर भागों में बाँट कर कंदों की रोपाई के 50-60 तथा 80-90 दिनों बाद गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करना चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

जिमीकन्द (सूरन) की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

जिमीकंद की फसल में अधिक सिंचाई की आवश्कता नहीं होती। परन्तु,भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए। इसलिए वर्षा ऋतु के आने से पहले फसल में 1-2 सिंचाई अवश्य कर देना चाहिए। यदि वर्षा सही समय पर न हो तथा मिट्टी में नमी कम हो, तो सिंचाई करनी चहिये।

रोग एवं उपचार

जिमीकन्द (सूरन) की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

01. झुलसा रोग - यह रोग पौधों की पत्तियों पर सितम्बर-अक्टूबर माह में अधिक होता है। पत्तियों पर छोटे-छोटे वृताकार हल्के-भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो बाद में सूखकर काले पड़ जाते हैं एवं पत्तियाँ सूख कर झुलस जाती हैं तथा कंदों की वृद्धि नहीं हो पाती है। इस रोग की रोकथाम हेतु रोग का लक्षण आते ही बैवस्टीन अथवा इंडोफिल एम-45 के 2.5 मिली. प्रति लीटर की दर से 2-3 छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए। 02. तना गलन - यह एक मृदा जनित रोग है। इस रोग का आक्रमण उन क्षेत्रों में अत्यधिक होता है, जहां पानी का भराव ज्यादा होता है तथा लगातार एक ही खेत में जिमीकन्द की खेती की जा रही हो। इस रोग का प्रकोप अगस्त-सितम्बर माह में अधिक होता है। इस रोग का लक्षण कालर भाग पर दिखाई पड़ता है तथा पौधा पीला पड़कर जमीन पर गिर जाता है। इस रोग की रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए। जल निकास की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। बीज को उपचारित करके ही बोना चाहिए। कैप्टान दवा के 2% के घोल से 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार पौधे के पास छिड़काव करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण हेतु पहली निकाई-गुड़ाई बुवाई के 45-55 दिन के बाद तथा दूसरी निकाई-गुड़ाई 80-90 दिनों बाद करनी चाहिए। निकाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ानी चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, कल्टीवेटर, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।