धनिया की खेती

धनिया का मसाले वाली फसलों में महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी पत्तियां और दाने दोनों ही खाने के काम आते हैं। पत्तियों में शर्करा, प्रोटीन व विटामिन-ए पाये जाते हैं। इसकी हरी शाखाओं एवं पत्तियों का उपयोग व्यंजनों को सुगंधित करने वाले पदार्थ के रूप में किया जाता है। इसे औषधि के रूप में भी उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, धनिये का पानी अपच और अन्य उदर रोगों के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके तेल को शराब, चॉकलेट और मिठाइयों को सुगंधित करने के लिए भी प्रयोग किया जाता है।


धनिया

धनिया उगाने वाले क्षेत्र

भारत का प्राचीन काल से ही मसाला उत्पादन में अद्वितीय स्थान रहा है। इसी कारण से देश मसालों की भूमि के नाम से विश्वविख्यात है। इनकी खेती राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार, उत्तरप्रदेश इत्यादि राज्यों में बहुतायात क्षेत्रफल में की जाती है।राजस्थान एवं गुजरात राज्य इनके क्षेत्रफल एवं उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभाते हैं जिसके कारण इन दोनों राज्यों को बीजीय मसालों का कटोरे के नाम से जाना जाता है। जलवायु और तापमान :- धनिया को मुख्यतः सभी प्रकार की जलवायु वाले क्षेत्रों में जहां तापमान अधिक न हो तथा वर्षा का वितरण ठीक हो, सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। शुष्क एवं ठंडा मौसम अधिक उपज एवं गुणवत्ता के लिये अनुकूल रहता है। ठंडे और शुष्क मौसम में अच्छी वृद्धी होती है। यह पाला सहन नहीं कर सकते है। 20-30 डिग्री सेल्सियस के तापमान सीमा में धनिया अच्छी तरह से उगता है। उच्च तापमान से अंकुरण प्रतिशत और वनस्पति विकास कम होता है।दाने बनते समय अधिक तापमान व तेज हवा उपज पर तथा वाष्पशील तेल पर विपरित प्रभाव डालती है। ऐसे क्षेत्र जहां फूल आने के समय (फरवरी-मार्च) में पाला पड़ने की संभावना रहती है, वो इस फसल के लिए उपयुक्त नहीं हैं।पुष्प प्रारंभ होने पर अगर आकाश में बादल छाये रहते हैं तो चंपा या मोयला व अन्य बीमारियों की संभावना भी बढ़ जाती है।

धनिया की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

100 ग्राम धनिये से: (i) प्रोटीन 14.1 ग्राम (ii) वसा 16.1 ग्राम (iii) रेशा 36.2 ग्राम (iv) कार्बोहाइड्रेट 21.6 ग्राम (v) थायमिन- 0.22 मिग्रा (vi) राइबोफ्लेविन- 035 मिग्रा (vii) निकोटिनिक अम्ल -1.10 मिग्रा. (ix) विटामिन ए 1570.0 आई. यू.

बोने की विधि

धनिया की बुआई दो तरह से की जाती है, छिटकवां विधि से व पंक्ति विधि द्वारा परन्तु पंक्ति विधि द्वारा बुआई अच्छी रहती है। इससे बीज दर में बचत के साथ-साथ अन्य शस्य क्रियाओं को करने में भी आसानी रहती है।धनिया के बीजों को बुआई से पहले हल्का दबाकर या मशीन (सीड स्लिटर) द्वारा दो भागों में विभाजित कर लेना चाहिए।धनिया में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25-30 सेंमी. व पौध से पौध की दूरी 15 सेमी. रखी जाती है। बीजों को 3-4 सेमी. से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

धनिया को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है। आमतौर पर सिंचित क्षेत्र में इसकी खेती लगभग सभी मृदाओं में की जा सकती है परंतु इसमें जीवांश पदार्थ पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए। बारानी क्षेत्रों में काली या अन्य प्रकार की भारी मृदाओं में जिनकी जल धारण क्षमता अच्छी हो, धनिया उगाने के लिए उपयुक्त होती है। खेत अंतिम जुताई के समय 6-8टन प्रति एकड़ अच्छे सड़े हुए गोबर की खाद मिट्टी में मिला दे। गर्मियों में मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करते हैं। इसके बाद 3-4 जुताइयां देशी हल से करते हैं। जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाये।

बीज की किस्में

धनिया के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

पंत हरितमा :- पौधे में अधिक वानस्पतिक बढ़वार होती है और शुरू में पौधे नीचे जमीन में फैले रहते हैं। दानों का आकार छोटा और हरे भूरे रंग का होता है। इसकी उपज में बिना कमी किए दो कटाइयां ली जा सकती है। हिसार आनंद :- इसके पौधों में शाखाएं अधिक निकलती हैं और झाड़ीनुमा बढ़ती हैं। यह मध्यम पछेती किस्म है। यह पत्ती व दानों के लिए उपयुक्त है। पौधों के तनों का रंग हल्का बैंगनी होता है जो फसल पकते समय फूल आने पर हल्के रंग में परिवर्तित हो जाता है। इसके गुच्छे बड़े अधिक मोटे दाने वाले होते हैं। दाने भूरे-हरे रंग के होते हैं और अधिक उपज देने वाले होते हैं। नारनौल सलेक्शन -पौधों में अधिक शाखायें होती हैं। स्थानीय धनिये की तुलना में इसके दाने बड़े आकार के होते हैं और हरे-भूरे रंग के होते हैं। यह किस्म बिना काटे धनिये अधिक उपज देती है। एक कटाई के बाद भी उपज कम नहीं होती है। आर.सीआर. 20, आर.सीआर. 41, आर.सीआर. 435, आर.सीआर. 436, आर.सीआर. 684, आर.सीआर. 480, ए.सीआर. 1 (अजमेर धनिया-1), गुजरात धनिया 1, गुजरात धनिया 2, हिसार सुगंध, हिसार सुरभि, राजेन्द्र स्वाति, सी.एस.-6 (स्वाति), सी.एस.-4 (साधना), इत्यादि अधिक उपज देने वाली उन्नतशील प्रजातियां हैं।

बीज की जानकारी

धनिया की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज दर :- एक एकड़ क्षेत्र में धनिये की बुवाई करने के लिए 4-5 किग्रा धनिये के बीज की आवश्यकता होती है। बीजोपचार :- उचित अंकुरण के लिए बुवाई से पहले बीज को 12 घंटे के लिए पानी में भिगोकर रखें। बुआई से पूर्व बीजों को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिमया ट्राईकोडर्मा 6-10 ग्राम प्रति किलो बीज से और इमिडाक्लोरोप्रिड  - 2 मिली से उपचारित कर ले।बीजोपचार के दौरान ध्यान रखे की यदि फफूंदनाशी, कीटनाशी (इन्सेक्टीसाइड) एवं जैविक कल्चर (राइजोबियम कल्चर) का प्रयोग कर रहे हो तो इनको सही क्रम में बीज के ऊपर लगावें।

बीज कहाँ से लिया जाये?

धनिया का बीज किसी विस्वश्वसनीय स्थान से ही खरीदें।

उर्वरक की जानकारी

धनिया की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

धनिया की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। धनिया मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिश की जानी चाहिए ।उर्वरकों का अनुपातएनपी को 8:16:8 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करें। 👉 नत्रजन :- 9 किलो यूरिया प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं और 9 किलो यूरिया रोपाई के 30 से 35 दिन बाद खड़ी फ़सल में डालें।👉 फॉस्फोरस :- 100 किलो एसएसपी प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा में मिलाएं। 👉 पोटास :- 14 किलो म्यूरेट ऑफ पोटास (mop) प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा में मिलाएं।

जलवायु और सिंचाई

धनिया की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

धनिया की अधिक उपज लेने के लिए सिंचाई का विशेष महत्व है। धनिया की सिंचित फसल में पलेवा के अतिरिक्त भारी मिट्टी में लगभग 3-4 सिंचाई तथा हल्की बलुई दोमट मिट्टी में लगभग 6-7 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। सिंचाई के समय का निर्धारण भूमि का प्रकार एवं स्थानीय मौसम के आधार पर किया जाना चाहिए परन्तु निम्न क्रांतिक अवस्थाओं में सिंचाई करना आवश्यक है। 1. अंकुरण के समय (8-10 दिन बाद), 2. वानस्पतिक वृद्धि अवस्था (50 दिन), 3. पुष्पन अवस्था (80 दिन) एवं 4. बीज वृद्धि अवस्था (110 दिन) में।वर्तमान में धनिया मे टपक या बूंद- बूंद सिंचाई पद्धति भी काफी प्रयोग की जा रही है इससे पानी की बचत होती है। साथ ही उर्वरक भी इससे सीधे जड़ क्षेत्र में पोहोंच जाते हैं।

रोग एवं उपचार

धनिया की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

👉 पौध संरक्षण उखटा रोग (विल्ट) :- यह धनिये का प्रमुख रोग है, जो कि फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम स्पी. कोरियन्डरी नामक कवक (फफूंद) से होता है। इस रोग का प्रकोप पौधे की किसी भी अवस्था में हो सकता है, लेकिन पौधों की छोटी अवस्था में ज्यादा होता है। यह रोग पौधों की जड़ में लगता है, जिससे रोगी पौधे मुरझा  जाते हैं। पौधे की जड को चीरकर देखने पर पिथ काले रंग की सवंमित दिखाई देती है। रोग के नियंत्रण हेतु गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें एवं फसल चक्र अपनाये । बुवाई से पूर्व बीजों को 1.5 ग्राम थायराम एवं कार्बेण्डाजिम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज से अवश्य बीजोपचार कर बुवाई करें या ट्राइकोडर्मा (मित्र फफूंद) 6-10 ग्राम प्रति किलो की दर से बीजोपचार करें। कार्बेण्डाजिम 2 ग्राम प्रति लीटर सिंचाई जल के साथ दे! 👉 चूर्ण आसिता या छाछ्या रोग (पाउडरी मिल्ड्यू) :- यह रोग इरीसाईफी पोलिगोंनी नामक कवक से होता है। रोग की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की पत्तियों एवं टहनियों में सफेद चूर्ण नजर आता है।अगर इस रोग की रोकथाम न की जाए तो सम्पूर्ण पौधा चूर्ण से ढंक जाता है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां पीली पड़कर सूखने लग जाती हैं। रोग ग्रसित पौधों पर या तो बीज नहीं बनते और यदि बनते भी हैं तो बहुत छोटे आकार के बनते हैं, जिनकी गुणवत्ता भी बहुत कम हो जाती है। देर से बोई गई फसल एवं उच्च तापक्रम पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। रोग के नियंत्रण हेतु फसल पर घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें अथवा 10-१२ किलो प्रति एकड़की दर से गंधक चूर्ण का भुरकाव करें अथवा केराथेन 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार छिड़काव या भुरकाव 15 दिन के अंतराल पर दोहराएं। 👉 झुलसा (ब्लाइट) :- यह रोग अल्टरनेरिया पूनेन्सिस नामक कवक से होता है। इस रोग से तने और पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और पत्तियां झुलसी हुई दिखाई देती हैं।नियंत्रण हेतु मेन्कोजेब का 0.2 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो डायथेन जेड 78 का 0.2 प्रतिशत या काबेंडाजिम का 0.1 प्रतिशत का पर्णीय छिड़काव करें। फसल में अधिक सिंचाई ना करें। 👉 मोयला या माहू (एफीड्स) :-धनिया की फसल का यह प्रमुख कीट है।यह निम्न   व वयस्क पौधे के कोमल भागों (पत्ते, फूल, फल) से रस चूसते हैं तथा शहद काली मोल्ड को आमंत्रित करते हैं। फसल पीली पड़ने लग जाती है साथ ही दाने भी सिकुड़ जाते हैं और उपज पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। फूल आते समय (फरवरीमार्च) में इसका प्रकोप अधिक होता है। देर से बोई गई फसल अधिक प्रभावित होती है। इसलिए समय पर बुवाई करें। फूल आने से पहले ऐसीफेट 75 एस.पी. 300 ग्राम प्रति एकड़ या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 100 ML सक्रिय तत्व या थायोमिथोक्जाम 25 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 100 ग्राम प्रति एकड़ की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें तथा यह छिड़काव 10-15 दिन बाद पुनः दोहराएं। उर्वरकों की संतुलित मात्रा का प्रयोग करे साथ ही फसल में सिंचाई जब आवश्यक हो तभी करें आवश्यकता से अधिक मात्रा कीटों के प्रकोप में मदद करती है।

खरपतवार नियंत्रण

बुआई के कुछ समय पश्चात् विभिन्न प्रकार के खरपतवार भी उग आते हैं जो कि मुख्य फसल के साथ-साथ पोषक तत्वों, स्थान, नमी, आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। साथ ही ये विभिन्न प्रकार की कीट एवं बीमारियों को भी आश्रय प्रदान करते हैं।अतः जरूरी है जब खरपतवार छोटा रहे उसी समय खेत से बाहर निकाल दें इसके लिए सिंचित क्षेत्रों में पहली निराई-गडाई फसल बोने के 30-35 दिन बाद एवं दूसरी निराई-गुड़ाई आवश्यकतानुसार लगभग 50-60 दिन पश्चात् करें।असिंचित क्षेत्रों में बुआई के 40-45 दिन बाद जब पौधे 78 सेमी. बड़े हो जाएं तब यह कार्य करें। खरपतवारों की रोकथाम हेतु खरपतवारनाशी का भी प्रयोग किया जा सकता है।धनिया में रसायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रति एकड़ पेण्डीमेथालिन 30 % EC 1लीटर . सक्रिय तत्व बुआई के पश्चात् तथा अंकुरण से पूर्व 200-300 लीटर पानी में घोल बनाकर आवश्यक है।

सहायक मशीनें

देशी हल या हैरों, फावड़ा, खुरपी, दराँती, या हसियां आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।