चमेली की खेती

सुगंधित पुष्पों में चमेली के पुष्प का अपना अनोखा ही महत्व है। चमेली की कुल मिलाकर 20 प्रजातियां हैं, जो कि संसार के विभिन्न भागों में पाई जाती हैं। इसके फूलों का प्रयोग मंदिरों में मूर्तियों को अर्पित करने हेतु, मालाओं के रूप में, स्त्रियों के बालों को सुगंधित व सुशोभित करने तथा इत्र के निर्माण हेतु किया जाता है। शहरों के निकट बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है जिससे कृषक अच्छा लाभ उठाते हैं। ऊष्ण व उपोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है। दक्षिणी भारत में तो इसके फूल लगभग आठ माह तक वर्ष में उपलब्ध होते रहते हैं, जबकि उत्तरी भारत में चार माह ही उपलब्ध होते हैं।


चमेली

चमेली उगाने वाले क्षेत्र

 भारत में पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और हरियाणा इसके मुख्य उत्पादक राज्य हैं। जबकि निचले हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, बिहार, यूपी महाराष्ट्र ,गुजरात जैसे राज्यों में नई किस्मों से अच्छी कमाई की जा सकती है।

चमेली की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

चमेली अत्याधिक सेन्ट जैसी सुंगंध के कारण इसको परफ्यूम और साबुन, क्रीम, तेल, शैम्पू और कपड़े धोने वाले डिटर्जेंट में खुशबू के लिए प्रयोग किया जाता है। 

बोने की विधि

जून से नवंबर तक बिजाई की जाती है| इसका प्रजनन पौधे के भाग को काटकर, गाठों, ग्राफ्टिंग, बडिंग और टिशू कल्चर द्वारा किया जाता है| इसकी बिजाई 15 सैं.मी. गहराई पर करें|विभिन्न किस्मों की खेती के लिए विभिन्न फासला: Mogra के लिए,  75 सैं.मी. x 1 मी. या 1.2 मी x 1.2 मी. या 2 मी. x 2 मी. का फासला रखें| Jai Jui के लिए, 1.8 x 1.8 मी. का फासला रखें| Kunda के लिए, 1.8 x 1.8 मी. का फासला रखें|

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

इसकी खेती के लिए दोमट भूमि जिसमें जीवांश पर्याप्त मात्रा में हो, सिंचाई व जल निकास के उचित साधन हो व भूमि में किसी तरह की कड़ी सतह न हो, सबसे उत्तम समझी जाती है। भूमि की पहली खुदाई 50 से 60 सेमी गहरी करें और उसे लगभग 1 सप्ताह के लिए खुला छोड़ दें ताकि सूर्य का प्रकाश आसानी से जमीन के नीचे की सतह में भी पहुंच जाए। इसी तरह से बहुवर्षीय खरपतवारों की जड़ें भी सूखकर समाप्त हो जाती हैं। बाद में तीन-चार गुड़ाई करके भूमि को समतल बना लेना चाहिए।

बीज की किस्में

चमेली के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

(i) जैसमिनस एरीकूलाटम _ इस जाति की खेती बड़े पैमाने पर दक्षिणी भारत में की जाती है। इसके फूलों को इत्र बनाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। फूल सफेद, छोटे व खुशबूदार होते हैं। पत्तियां हरी व देखने में सुंदर होती हैं। इसका पौधा मध्यम ऊंचाई का झाड़ीनुमा होता है। (ii) जैसमिनस पवलिसेंस_ इस जाति के पौधों पर हरे रंग की घनी पत्तियां होती हैं जिसके कारण इस जाति का प्रयोग बाड़ के लिए किया जाता है। पौधों को किसी तरह के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है। फूल सफेद, खुशबूदार एवं गुच्छों में (तीस की संख्या में) शाखाओं के आखिरी सिरों पर लगते हैं। पौधों पर लगभग पूरे वर्ष फूल आते हैं जिसकी औसत पैदावार प्रति पौधा प्रतिवर्ष 500 ग्राम से एक किलोग्राम तक होती है। (iii) जैसमिनस फेक्सिल - यह जाति उपरोक्त प्रजाति से काफी मिलती-जुलती है। इसके फूल खुशबूदार होते हैं जो कि ग्रीष्मकाल में मनमोहक होते हैं। फूलों की औसत पैदावार प्रति पौधा प्रतिवर्ष 2 से 3 किलोग्राम होता है।

बीज की जानकारी

चमेली की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

 प्रति हेक्टेयर पौधों  का अनुमान 3300 से 3500 उपयुक्त रहता है

बीज कहाँ से लिया जाये?

चमेली के  बीज किसी विश्वसनीय  स्थान से ही खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

चमेली की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

चमेली की खेती के लिए 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद खेत तैयारी के समय आख़िरी जुताई में अच्छी तरह मिला देना चाहिए| इसके साथ ही 200 किलोग्राम नत्रजन, 400 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 125 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए| नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा गड्ढो में खेत तैयारी के समय देना चाहिए| तथा नत्रजन की आधी मात्रा फूल आने की अवस्था में देना चाहिए| इसके बाद भी आवश्यकतानुसार देते रहना चाहिए| अच्छी पैदावार के लिए यह आवश्यक है| 

जलवायु और सिंचाई

चमेली की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

सिंचाई की संख्या जमीन, किस्म व जलवायु पर निर्भर करती है। साधारणतयः ग्रीष्मकाल में 1 सप्ताह के अंतर से और शीतकाल में 2 सप्ताह के अंतर से सिंचाई करते रहना चाहिए। बरसात में सिंचाइयों की आवश्यकता नहीं होती है। फूल आने के समय यदि पानी की कमी हो जाती है तो फूलों की पैदावार में कमी आ जाती है और साथ ही सुगंध पर भी कुप्रभाव पड़ता है। अतः इस अवस्था पर सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए।

रोग एवं उपचार

चमेली की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

जड़ गलन: इस बीमारी से पत्तों की निचली सतह  पर भूरे रंग के दाने देखे जा सकते हैं और कई बार इन्हें तने और फूलों पर भी देखा जा सकता है।उपचार: जड़ गलन बीमारी से बचाव के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर पौधे की जड़ों में डालें।कली छेदक: ये सुंडियां नए पत्तों, टहनियों और फूलों को अपना भोजन बनाकर पौधे को नष्ट करती हैं।उपचार: कली छेदक से बचाव के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 WSC 2 मि.ली को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।लाल मकौड़ा जूं: इस कीट से पत्तों की ऊपरी सतह पर रंग बिरंगे धब्बे पड़ जाते हैं इससे पत्ते अपना रंग खो देते हैं और अंत में गिर जाते हैं।उपचार: लाल मकौड़ा जूं से बचाव के लिए सल्फर 50 % डब्लयु पी 2 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।स्टिक बग: यह पौधे के पत्तों, कोमल टहनियों और फूल की कलियों को खाकर पौधे को नुकसान पहुंचाते हैं।उपचार: इस कीट से बचाव के लिए मैलाथियोन 0.05 % की स्प्रे करें।

खरपतवार नियंत्रण

अच्छे फूल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि पौधों के चारों तरफ खरपतवार न हों। समय-समय पर पौधों के चारों तरफ गुड़ाई करनी चाहिए। पौधों के पास जब और जैसे ही खरपतवार दिखाई दें उन्हें तुरन्त निकाई करके निकाल देना चाहिए। पौधों के चारों तरफ 30 सेमी जगह छोड़कर फावड़े से खुदाई करें।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।