गाजर विश्व के सबसे प्रचलित और आर्थिक तौर पर महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पाद में से एक है। चीन गाजर का सबसे बड़ा उत्पादक है।
भारत मे गाजर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में उगाई जाती हैI जलवायु और तापमान :- गाजर मूलत ठंडी जलवायु कि फसल है इसका बीज 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान पर सफलतापूर्वक उग सकता है जड़ों कि बृद्धि और उनका रंग तापमान से बहुत अधिक प्रभावित होता है 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है परन्तु रंग सर्वोत्तम होता है विभिन्न किस्मों पर तापमान का प्रभाव - भिन्न भिन्न होता है यूरोपियन किस्मों 4-6 सप्ताह तक 4.8 -10 डिग्री से 0 ग्रेड तापमान को जड़ बनते समय चाहिए I
गाजर में थायेमिन, कैरीटीन, राईबोफिलेविन तथा विटामिन ए (Vitamin A) की प्रचुर मात्रा होती है। नारंगी रंग वाली गाजर में कैरटिन भरपूर होता है।
गाजर की बुवाई समतल क्यारियों में या डोलियों पर की जाती है। पंक्ति से पंक्ति की दुरी 45 सैं.मी. और पौधे से पौधे की दुरी 7.5 सैं.मी. होता है। क्यारी में बुवाई लिए क्यारियों के बीच में गाजर के बीज का छींटकर बोते हैं तथा बाद में छॅटाई की जाती है। बीजों केअच्छे जमाव व विकास के लिए बीज की गहराई 1.5 सैं.मी. होनी चाहिए। बुवाई का समय :- गाजर की बुवाई उसकी जातियों के ऊपर निर्भर करती हैं। मध्य अगस्त से नवम्बर तक का समय इसकी बुवाई के लिए उपयुक्त रहता है। गाजर की देसी किस्मों के लिए अगस्त सितंबर का समय सही माना जाता है और यूरोपियन किस्मों के लिए अक्तूबर-नवंबर का महीना अच्छा माना जाता है। बीज उपचार :- बुवाई से पहले बीजों को 12-24 घंटे पानी में भिगो दें। इससे बीज के अंकुरन में वृद्धि होती है। बीज का उपचार बैविस्टीन (3 ग्राम प्रति किलो बीज) से करें।
खेत को अच्छी तरह जुताई कर खरपतवारों से मुक्त कर लेना चाहिए और मिटटी के ढेलों को अच्छी तरह तोड़कर समतल कर लें। प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर खेत को समतल कर लें। खेत की जुताई के समय 4 टन सड़ी गली गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें। ताजे गोबर और कम गली खाद को डालने से परहेज़ करें क्योंकि इससे जड़ें नर्म हो जाती हैं।
पूसा केसर - यह लाल रंग की होती है, जो गाजर की उत्तम प्रजाति है। इसकी पत्तियाँ छोटी तथा जड़ें लम्बी, आकर्षक लाल रंग की होती है। इसका केन्द्रीय भाग संकरा होता है। इसकी फसल लगभग 90-110 दिन में तैयार हो जाती है। इस प्रजाति की पैदावार 100 -150 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है पूसा मेघाली - यह नारंगी गूदे, छोटी टॉप तथा कैरोटीन की अधिक मात्रा वाली संकर प्रजाति है। इसकी फसल बुवाई से 100-110 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की पैदावार 100-150 क्विंटल प्रति एकड़ होती है पूसा यमदाग्नि - यह प्रजाति आई०ए०आर०आई० के क्षेत्रीय केन्द्र कटराइन द्धारा विकसित की गयी है। इसकी फसल 90-105 दिन मे तैयार हो जाती है। इस किस्म की पैदावार 75-100 क्विंटल प्रति एकड़ होती है नैन्टस - इस क़िस्म की जडें बेलनाकार नांरगी रंग की होती है. जड़ के अन्दर का केन्द्रीय भाग मुलायम, मीठा और सुवासयुक्त होता है. 110-112 दिन में तैयार होती है. पैदावार 50-90 क्विंटल प्रति एकड़ होती है
2.5 -3 किग्रा बीज प्रति एकड़ !
गाजर का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
गाजर की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। गाजर मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिश की गयी। उर्वरकों का अनुपात एनपीके 25:12:30 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करें। नत्रजन :- 27 किलो यूरिया प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं और 27 किलो यूरिया बुवाई के 30 से 35 दिन बाद खड़ी फ़सल में डालें। फॉस्फोरस :- 75 किलो एसएसपी प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाएं। पोटाश :- 51 किलो म्यूरेट ऑफ पोटास (mop) प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाएं। जड़ों के अच्छे विकास के लिए पोटाश की जरूरत होती है।
बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई करें। यह अंकुरन में सहायता करती है। उसके बाद मिट्टी की किस्म और जलवायु के आधार पर 4-5 दिन बाद दूसरी हल्की सिंचाई करनी चाहिए। बाद में 10-15 दिन के अंतर में सिंचाई करनी चाहिए। आमतौर पर गाजर को तीन से चार सिंचाइयां की जरूरत होती है। ज्यादा सिंचाई से परहेज़ करें क्योंकि इससे जड़ों के गलने का डर रहता है। कटाई से दो या तीन हफ्ते पहले सिंचाई रोक दें। इससे गाजर की मिठास और स्वाद बढ़ जाता है।
(i) आर्द्र विगलन - यह रोग पिथियम स्पीसीज नामक फफूंदी से होता है। इस रोग से बीज अंकुरित होते ही पौधे मुरझा जाते हैं। तने का निचला हिस्सा जो जमीन की सतह से लगा होता है, सड़ जाता है। पौधे का अचानक सड़ना व गिरना आर्द्र विगलन का पहला लक्षण है। इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। (ii) जीवाणुज मृदु विगलन रोग - यह रोग इर्वीनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु से फैलता है। इस रोग का असर मुख्यतः गूदेदार जड़ों पर होता है। जिससे इस की जड़ें सड़ने लगती हैं। ऐसी जमीन जिस में जल निकासी की सही व्यवस्था नहीं होती या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग ज्यादा लगता है। इस रोग की रोकथाम के लिए खेत के पानी की निकासी की सही व्यवस्था करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का छिड़काव नहीं करना चाहिए।
गाजर की फसल के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी उग आते हैं, जो भूमि से नमी और पोषक तत्व लेते हैं , जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: इन्हें खेत से निकाल देना अति आवश्यक है। रसायनिक खरपतवारनाषक जैसे पेन्डिमीथेलिन 30 ई.सी.1.5 कि.ग्रा. 300 ली.पानी में घोलकर प्रति एकड़ की दर से बुवाई के 48 घंटे के अन्दर प्रयोग करने पर प्रारम्भ के 30-40 दिनों तक खरपतवार नहीं उगते हैं। खरपतवारों के नियंत्रण के लिए खेत की 2-3 बार निदाई-गुड़ाई करें। दूसरी निदाई-गुड़ाई करने के समय पौधों की छटनी कर दें।
मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों,कल्टीवेटर, फावड़ा, खुर्पी, आदि यन्त्रों की आवश्यकता होती है।