लौकी की खेती

कददू वर्गीय सब्जियों में लौकी का स्थान प्रथम हैं। इसके हरे फलों से सब्जी के अलावा मिठाइया, रायता, कोफते, खीर आदि बनायें जाते हैं। इसकी पत्तिया, तनें व गूदे से अनेक प्रकार की औषधिया बनायी जाती है। पहले लौकी के सूखे खोल को शराब या स्प्रिट भरने के लिए उपयोग किया जाता था इसलिए इसे बोटल गार्ड के नाम से जाना जाता हैं।


लौकी

लौकी उगाने वाले क्षेत्र

भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश,हरियाणा , छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।जलवायु और तापमान :-लौकी की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी बुआई गर्मी एवं वर्षा के समय में की जाती है। यह पाले को सहन करने में बिलकुल असमर्थ होती है। 

लौकी की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

लौकी में तकरीबन 96% मात्रा पानी की होती है और इसमें रेशे भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। लौकी के स्वास्थ्य लाभ में बुखार को कम करने, शरीर को विसर्जित करने, पाचन में सुधार, जलयोजन में वृद्धि, प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने, मधुमेह का इलाज, शक्ति और बाल की गुणवत्ता में सुधार आदि है।

बोने की विधि

लौकी की बुवाई के लिए गर्मी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिश के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सेमी चौड़ी व 20-25 सेमी गहरी नालियां बना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारे पर गरमी में 60 से 75 सेमी व बारिश में 80 से 85 सेमी फासले पर बीजों की बुवाई करते हैं। एक थाले में 2-3 बीज 4 सेमी की गहराई पर बोने चाहिए

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

लौकीको अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है इसकी अधिक पैदावार के लिए प्रति एकड़ भूमि में 5 टन गोबर की अच्छी तरह से सड़ी हुई खादपहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के पश्चात 2-3 जुताई हैरों या कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देना चाहिए।

बीज की किस्में

लौकी के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

 कोयम्बटूर‐1‒यह जून व दिसम्बर में बोने के लिए उपयुक्त किस्म है, इसकी उपज 150क्विंटल प्रति एकड़प्राप्त होती है जो लवणीय क्षारीय और सीमांत मृदाओं में उगाने के लिए उपयुक्त होती हैं। अर्का बहार‒यह खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त है। बीज बोने के 120 दिन बाद फल की तुडाई की जा सकती है। इसकी उपज 150 से 170 क्विंटल प्रति एकड़प्राप्त की जा सकती है।  पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड‒यह अगेती किस्म है। इसकी बेलों का बढ़वार अधिक और फैलने वाली होती हैं। फल गोल मुलायम /कच्चा होने पर 15 से 18 सेमी. तक के घेरे वाले होतें हैं, जों हल्के हरें रंग के होतें है। बसंत और ग्रीष्म दोंनों ऋतुओं के लिए उपयुक्त हैं।  पंजाब गोल‒इस किस्म के पौधे घनी शाखाओं वाले होते है। और यह अधिक फल देने वाली किस्म है। फल गोल, कोमल, और चमकीलें होंते हैं। इसे बसंत कालीन मौसम में लगा सकतें हैं। इसकी उपज 100 क्विंटल प्रति एकड़प्राप्त होती है।  पुसा समर प्रोलेफिक लाग‒यह किस्म गर्मी और वर्षा दोनों ही मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त रहती हैं। इसकी बेल की बढ़वार अच्छी होती हैं, इसमें फल अधिक संख्या में लगतें हैं। इसकी फल 40 से 45 सेंमी. लम्बें तथा 15 से 22 सेमी. घेरे वालें होते हैं, जो हल्के हरें रंग के होतें हैं। उपज 150 क्विंटल प्रति एकड़होती है।  नरेंद्र रश्मि‒यह फैजाबाद में विकसित प्रजाती हैं। प्रति पौधा से औसतन 10‐12 फल प्राप्त होते है। फल बोतलनुमा और सकरी होती हैं, डन्ठल की तरफ गूदा सफेद औैर करीब 150 क्विंटल प्रति एकड़उपज प्राप्त होती है।  पूसा संदेश‒इसके फलों का औसतन वजन 600 ग्राम होता है एवं दोनों ऋतुओं में बोई जाती हैं। 60‐65 दिनों में फल देना शुरू हो जाता हैं और 140 क्विंटल प्रति एकड़उपज देती है।  पूसा हाईब्रिड‐3 ‒फल हरे लंबे एवं सीधे होते है। फल आकर्षक हरे रंग एवं एक किलो वजन के होते है। दोंनों ऋतुओं में इसकी फसल ली जा सकती है। यह संकर किस्म 225 क्ंवटल प्रति एकड़की उपज देती है। फल 60‐65 दिनों में निकलनें लगतें है।  पूसा नवीन‒यह संकर किस्म है, फल सुडोल आकर्षक हरे रंग के होते है एवं औसतन उपज 150‐200 क्ंवटल प्रति एकड़प्राप्त होती है, यह उपयोगी व्यवसायिक किस्म है।  Punjab Barkat:यह किस्म 2014 में जारी की गई है। इसके फल लंबे, हल्के हरे रंग के और बेलनाकार होते हैं। यह किस्म चितकबरा रोग के काफी हद तक प्रतिरोधक है। इसकी औसतन पैदावार 226 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।  Punjab Long:यह किस्म 1997 में जारी की गई है। इसके फल चमकदार, बेलनाकार और हल्के हरे रंग के होते हैं। यह किस्म लंबे परिवहन के लिए उपयुक्त है। इसकी औसतन पैदावार 180 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।  Punjab Komal:यह किस्म 1988 में जारी की गई है। यह जल्दी पकने वाली किस्म है जो कि बिजाई के 70 दिनों में पक जाती है। इसके फल मध्यम आकार के होते हैं जो कि हल्के हरे रंग के होते हैं। इसकी प्रति बेल पर 10-12 फल होते हैं। यह किस्म खीरे के चितकबरे रोग के प्रतिरोधक है। इसकी औसतन पैदावार 200 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।  Punjab Bahar:इस किस्म के फल गोल और हरे रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 222 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

बीज की जानकारी

लौकी की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

सीधी बीज बुवाई के लिए 2 किग्रा बीज प्रति एकड़

बीज कहाँ से लिया जाये?

लौकी के  बीज किसी विश्वसनीय स्थान से  खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

लौकी की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

लौकी की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए। उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय किया जाना चाहिए। लौकी मे उचित पोषण प्रबंधन के लिए कम्पोस्ट खाद के साथ सिफारिश की गयी। उर्वरकों का अनुपात एनपीके 40:20:20 किलो प्रति एकड़ प्रयोग करें।  नत्रजन :- 44 किलो यूरिया प्रति एकड़ बुवाई के समय खेत में मिलाएं और 44 किलो यूरिया मात्रा 4-5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए।  फॉस्फोरस :- 125 किलो एसएसपी प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाएं।  पोटास :- 34 किलो म्यूरेट ऑफ पोटास (mop)प्रति एकड़ बुवाई के समय सम्पूर्ण मात्रा खेत में मिलाएं।

जलवायु और सिंचाई

लौकी की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 4‐5 दिन के अंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है जबकि वर्षाकालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता वर्षा न होने पर पडती है। जाड़े मे 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए।

रोग एवं उपचार

लौकी की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

लौकी  पत्तों के निचले धब्बे :-क्लोरोटिक धब्बे इस बीमारी के लक्षण हैं। उपचार :मैनकोजेब 400 ग्राम को 150 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें।  पत्तों पर सफेद धब्बे :-इस बीमारी के कारण छोटे, सफेद रंग के धब्बे पत्तों और तने पर देखे जाते हैं। उपचार :इस बीमारी से बचाव के लिए, एम-45 या Z 78, 400-500 ग्राम की स्प्रे करें।  चितकबरा रोग :-इस बीमारी के कारण वृद्धि रूक जाती है और उपज में कमी आती है। उपचार :चितकबरे रोग से बचाव के लिए, डाइमैथोएट 200-250 मि.ली. को 150 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। लाल कीडा (रेड पम्पकिन बीटल) :-प्रौढ कीट लाल रंग का होता है। इल्ली हल्के पीले रंग की होती है तथा सिर भूरे रेग का होता है। इस कीट की दूसरी जाति का प्रौढ़ काले रंग का होता है। पौधो पर दो पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है।यह कीट पत्तियों एवं फुलों कों खाता हैए इस कीट की सूंडी भूमि के अंदर पौधो की जडों को काटता है। रोकथाम ‒कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत दानेदार 3 किलो प्रति एकड़के हिसाब के पौधे के आधार के पास 3 से 4 सेमी. मिट्टी के अंदर उपयोग करें तथा दानेदार कीटनाशक डालने के बाद पानी लगायें। प्रौढ कीटों की संख्या अधिक होने पर डायेक्लोरवास 76 ई.सी. 150 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से छिडकाव करें।  फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई) :-कीट का प्रौढ़ घरेलू मक्खी के बराबर लाल भूरे या पीले भूरे रंग का होता है। इसके सिर पर काले या सफेद धब्बे पाये जाते है। फल मक्खी की इल्लियां मैले सफेद रंग का होता है, जिनका एक शिरा नुकीला होता है तथा पैर नही होते है। मादा कीट कोमल फलों मे छेद करके छिलके के भीतर अण्डे देती है। अण्डे से इल्लियां निकलती है तथा फलो के गूदे को खाती है, जिससे फल सडने लगती है। बरसाती फसल पर इस कीट की प्रकोप अधिक होता है। रोकथाम ‒विष प्रलोभिकायों का उपयोग. दवाई का साधारण घोल छिडकने से वह शीघ्र सूख जाता है तथा प्रौढ़ मक्खी का प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता है। अतः कीटनाशक के घोल में मीठा, सुगंधित चिपचिपा पदार्थ मिलाना आवश्यक है। इसके लिए 50 मीली, मैलाथियान 50 ई.सी. एवं 500 ग्राम शीरा या गुड को 50 लीटर पानी में घेालकर छिडकाव करे। आवश्कतानुसार एक सप्ताह बाद पुनः छिडकाव करें।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण हेतु 2-3 निकाई-गुड़ाई आवश्यक है। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए ब्यूटाक्लोर रसायन की 2 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों खुर्पी, कुदाल, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है।