काली मिर्च की खेती

ऐतिहासिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से, काली मिर्च बहुत ही महत्वपूर्ण है। आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका वर्णन और उपयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। ग्रीस, रोम, पुर्तगाल इत्यादि संसार के विभिन्न देशों के सहस्रों वर्ष पुराने इतिहास में भी इसका वर्णन मिलता है।


काली मिर्च

काली मिर्च उगाने वाले क्षेत्र

काली मिर्च का उत्पादन मुख्यता केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में ज्यादा होता है ।

काली मिर्च की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

स्वास्थ्य लाभ असंख्य हैं, कई उपयोग, कैलोरी न के बराबर और जोखिम या दुष्प्रभाव नगण्य हैं। इसे अपने भोजन में साबुत, कुचला, कद्दूकस किया हुआ, कटा हुआ या जूस में मिलाया जा सकता है। इसे पेय, सब्जियों में मिलाया जा सकता है, अचार (अचार) के रूप में खाया जा सकता है और कुछ सख्त प्रशंसकों के लिए सूखे मीठे अदरक या अदरक लोजेंज को मिठाई के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

बोने की विधि

दो से तीन बार जुताई करे ! जुताई के बाद खेत को समतल करे! मानसून शुरू होते ही सहायक वृक्ष के सहारे उत्तर दिशा में 50 से.मी. गहरे गढ्डे खोद लेते हैं।इन गढ्डों की आपस में दूरी 30 से.मी. होनी चाहिए।इन गढ़डों में मृदा तथा खाद को 5 कि.ग्राम/ गढ्डे की दर से भरना चाहिए।रोपण के समय नीम केक (1 कि. ग्राम), ट्राईकोडरमा हरजियानम (50 ग्राम) तथा 150 रोक फासफेट प्रति गढ्डा की दर से डालना चाहिए।वर्षा होते ही 2-3 काली मिर्च के पौधे को गढ्डे में अलग अलग स्थान पर रोपण करते हैं।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

काली मिर्च की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। परन्तु लाल लैटराइट मिट्टी इसकी खेती के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। जबकि मृदा का पी.एच.मान 5.5 से 6.5 के बीच अनुकूल होता है ।

बीज की किस्में

काली मिर्च के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

पन्नियूर-1, पन्नियूर-2, पन्नियूर-3, पन्नियूर-4, पन्नियूर-5, पन्नियूर-6 (केरल कृषि विश्वविद्यालय द्वारा अनुमोदित) और शुभकरा, श्रीकरा, पेंचमी, पोर्णमी, शक्ति, तेवम, गिरीमुण्डा मलवार एक्सेल (भारतीय मसाले फसल अनुसंधान संस्थान, कालिकट द्वारा अनुमोदित) आदि हैं।

बीज की जानकारी

काली मिर्च की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

 एक हेक्टेयर भूमि के लिए  1666 पौधे की आवश्यकता होती है 

बीज कहाँ से लिया जाये?

काली मिर्च के पौधे किसी विश्वसनीय स्थान या नर्सरी से प्राप्त कर सकते है 

उर्वरक की जानकारी

काली मिर्च की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

खाद की 5 किलोग्राम की मात्रा को मिलाना चाहिए। भूमि में पी. एच. मान के अनुसार अमोनिया सल्फेट और नाइट्रोजन को मिलना चाहिए। इसकी फसल में 100 ग्राम पोटाशियम, 750 ग्राम मैग्नीशियम सल्फेट की मात्रा को भूमि में मिलाना चाहिए। जिस भूमि एम एसिड होता है। उसमें 500 ग्राम डोलोमिटिक चूना को 2 साल में एक बार जरूर प्रयोग करना चाहिए।काली मिर्च की जैविक खेती में परंपरागत प्रजातियों का इस्तेमाल होता है। जो फसल को कीटों, सूत्रकृमियों तथा रोगों से बचाव करने में समर्थ होती हैं। क्योंकि जैविक खेती में किसी भी प्रकार का कृत्रिम रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक या कवकनाशक का उपयोग नहीं होता है। इसलिए उर्वरकों की कमी को पूरा करने के लिए फार्म की सभी फसलों के अवशेष, हरी घास, हरी पत्तियां, गोबर, तथा मुर्गी लीद आदि को कंपोस्ट के रूप में उपयोग करके मृदा की उर्वरता उच्च स्तर की बनाते हैं।इन पौधों की आयु के अनुसार इनमें एफ.वाई.एम. 5-10 कि. ग्राम में प्रति पौधा केंचुआ खाद या पत्तियों के अवशेष (5-10 कि.ग्राम प्रति पौधा) को छिडक़ा जाता है। मृदापरीक्षण के आधार पर फॉस्फोरस और पोटैशियम की न्यूनतम पूर्ति करने के लिए पर्याप्त मात्रा में चूना, रॉक फॉस्फेट और राख का उपयोग किया जाता है।इसके अतिरिक्त उर्वरता और उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए ऑयल केक जैसे नीम केक (1 कि.ग्राम / पौधा ), कंपोस्ट कोयर पिथ (2.5 कि. ग्राम/पौधा) या कंपोस्ट कॉफी का पल्प ( पोटैशियम की अत्यधिक मात्रा ), अजोस्पाइरियलम तथा फॉस्फेट सोलुबिलाइसिंग जीवाणु का उपयोग किया जाता है। पोषक तत्वों के अभाव में फसल की उत्पादकता प्रभावित होती है। मानकता सीमा या संगठनों के प्रमाण के आधार पर पोषक तत्वों के स्त्रोत खनिज / रसायनों को मृदा या पत्तियों पर उपयोग कर सकते हैं।

जलवायु और सिंचाई

काली मिर्च की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

काली मिर्च में सिंचाई का बहुत ही महत्व है, सिंचाई समय से न होने के कारण उपज में कमी आ जाती है। ग्रीष्मकाल में 15 दिन के अन्तराल से सिंचाई करनी चाहिए।

रोग एवं उपचार

काली मिर्च की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

जैविक खेती में रोगों कीटों, सूत्रकृमियों का प्रबंधन और जैव कीटनाशक, जैव नियंत्रण कारक, आकर्षण और फाइटोसेनीटरी उपायों का उपयोग करके किया जाता है। 21 दिनों के अंतराल में नीम गोल्ड (0.6 प्रतिश ) को छिडक़ा जाता है, यह जुलाई से अक्टूबर के मध्य छिडक़ना चाहिए। इससे पोल्लू बीट को भी नियंत्रण किया जा सकता है। शल्क कीटों को नियंत्रण करने के लिए अत्यधिक बाधित शाखाओं को उखाड़ कर नष्ट कर देना तथा नीम गोल्ड (0.6 प्रतिश) या मछली के तेल की गंधराल (3 प्रतिशत) का छिडक़ाव करना चाहिए।कवक द्वारा उत्पन्न रोगों का नियंत्रण ट्राइकोडरमा या प्सयूडोमोनस जैव नियंत्रण कारकों को मिट्टी में उचित वाहक मीडिया जैसे कोयरपिथ कंपोस्ट, सूखा हुआ गोबर या नीम केक के साथ उपचारित करके किया जा सकता है। साथ ही अन्य रोगों को नियंत्रित 1 त्न बोर्डियो मिश्रण तथा प्रति वर्ष 8 कि.ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से कॉपर का छिडक़ाव करके कर सकते हैं।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार एक ऐसा पौधा, जो अवांछित स्थानों पर बिना बोए स्वयं ही उग जाता है और उस फसल को विभिन्न रूपों में हानि पहुँचाकर उपज को कम कर देता है, खरपतवार कहलाता है ।खरपतवार फसल के पोषक, तत्व, नमी, प्रकाश, स्थान आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करके फसल की वृद्धि, उपज एवं गुणों में कमी कर देते है।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।