सेम की खेती

सेम एक लता है जिसमें फलियां लगती हैं। फलियों की सब्जी खाई जाती है। इसकी पत्तियां चारे के रूप में प्रयोग की जा सकती हैं। ललौसी नामक त्वचा रोग सेम की पत्ती को संक्रमित स्थान पर रगड़ने मात्र से ठीक हो जाता है। फलियाँ भिन्न-भिन्न आकार की लंबी, चिपटी और कुछ टेढ़ी तथा सफेद, हरी, पीली आदि रंगों की होती है। इसकी फलियाँ शाक सब्जी के रूप में खाई जाती हैं, ये स्वादिष्ट और पुष्टकर होती हैं यद्यपि यह उतनी सुपाच्य नहीं होती। इसके बीज भी शाक के रूप में खाए जाते हैं। इसकी दाल भी होती है। बीज में प्रोटीन की मात्रा भी काफी पायी जाती है।


सेम

सेम उगाने वाले क्षेत्र

सेम की खेती सम्पूर्ण भारत वर्ष में सफलतापूर्वक की जाती है

सेम की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

तांबा, जस्ता, आयरन, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, प्रोटीन, कैल्शियम, कैलोरी होती है।

बोने की विधि

पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी क्रमश: 10 सेमी.और 10 सेमी रखनी चाहिए। यदि सेम को चौड़ी क्यारियों में बोना हो तो 1.5 मीटर की चौड़ी क्यारियां बना लेना चाहिए और उनके किनारों पर 50 सेमी.की दूरी पर 2-3 सेमी. की गहराई में बीज को बोना चाहिए। पौधों को सहारा देकर ऊपर बढ़ाना लाभप्रद होता है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के बाद 3-4 जुताई देसी हल या हैरों से करके पाटा लगा देना चाहिए।

बीज की किस्में

सेम के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

पूसा अर्ली प्रोलिफिक, पूसा सेम-2, पूसा सेम-3, एच.डी. 18, रजनी, सी.ओ.-6, सी.ओ.-7 तथा सी.ओ.-8, अर्का जय व अर्का विजय, आदि।

बीज की जानकारी

सेम की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए लगभग 20 से 30 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है

बीज कहाँ से लिया जाये?

सेम का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से  खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

सेम की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

120 से 150 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद बुवाई के 1 माह पूर्व खेत में अच्छी प्रकार मिलाना चाहिए। 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फॉस्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

सेम की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

सेम की खेती में 10-12 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए।

रोग एवं उपचार

सेम की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) चूर्णिल आसिता (एरीसाइफी पोलीगोनी) - पत्तियों, फलियों तथा पौधे के अन्य भागों पर सफेद चूर्ण से दाग उत्पन्न होते हैं। धीरे-धीरे संपूर्ण पत्ती सफेद चूर्ण से ढ़क जाती है। रोग की उग्रता में पत्तियां पीली होकर नीचे गिर जाती हैं। इसके नियंत्रण के लिए रोगी पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए, एवं खड़ी फसल पर गंधक के चूर्ण का 25-30 किग्रा/हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। सल्फैक्स किग्रा, कैलिक्सीन 500 मिली. या कैराथेन 600 मिली का 1,000 लीटर पानी में घोल बनाकर, प्रति हेक्टेयर की दर से 12-15 दिन के अंतर से दो छिड़काव करने चाहिए। (ii) किट्ट (यूरोमाइसीज फैजियोलाइटाइपिक) - इस रोग का प्रभाव पत्तियों, फलियों तथा मुलायम तनों, शाखाओं पर होता है, पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे, सफेद रंग के, थोड़े उभरे हुए धब्बे या स्फोट उत्पन्न होते हैं। धीरे-धीरे धब्बों का रंग गाढ़ा भूरा या काला हो जाता है। इस रोग के नियंत्रण के लिए रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए तथा खड़ी फसल में  मैंकोजेब 75 % डब्लू पी   का छिड़काव, 2-2.5 कि.ग्रा. 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए। (iii) सर्कोस्पोरा पर्ण दाग (सर्कोस्पोरा क्रुएन्टा) - इस रोग में सेम की पुरानी पत्तियों पर कोणीय भूरे धब्बे के रूप में उत्पन्न होते हैं। धब्बे के बीच का भाग धूसर रंग का होता है तथा किनारे का भाग लाल-भूरा या गहरे रंग का होता है। रोगी स्थान सूखकर नीचे गिर जाता है तथा पत्तियों में गड्ढ़े बन जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण के हेतु - 01. फसल चक्र अपनाना चाहिए। 02. खेत में जल निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए। 03. उर्वरक उचित मात्रा में देना चाहिए। 04. बीज को बोते समय थायरम, कैप्टान या किसी भी पारायुक्त कवकनाशी से 2.5 ग्राम/किग्रा. बीज दर से उपचारित कर लेना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण हेतु एक या दो बार निराई करें, रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के हेतु 3 लीटर स्टाम्प/हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी-कुदाल, फावड़ा, आदि यंत्रो की आवश्यकता होती है।