जौ की खेती

विश्व में होने वाले अनाज में जौ बहुत ही प्रमुख अनाज है। भारत की धान्य फसलों में गेहूँ के बाद दूसरा स्थान जौ का आता है। जौ की खेती सर्दियों के मौसम (अक्टूबर से नवंबर) में की जाती है। जबकि कुछ क्षेत्रों इसे गर्मियों के मौसम (मार्च से अप्रैल) में भी उगाया जाता है। बोने के समय इसे नम, बढ़वार के समय ठंडी और फसल पकने के समय सूखे तथा अधिक तापमय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है। मनुष्य जौ की चपाती, सतू आदि बनाकर खाता है जबकि पशुओं को इसका आटा जल में घोलकर पिलाया जाता है। जौ का प्रयोग माल्ट बनाने में किया जाता है, जिससे बीयर एवं व्हिस्की का निर्माण किया जाता है।


जौ

जौ उगाने वाले क्षेत्र

भारतवर्ष में जौ की सबसे अधिक खेती उत्तर प्रदेश में की जाती है। इसके अतिरिक्त हरियाणा, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में इसकी खेती की जाती है।

जौ की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

प्रोटीन - 42. 4 ग्राम, कैलोरी - 704 ग्राम, कुल कार्बोहाइड्रेट - 155 ग्राम, कुल वसा - 2.3 ग्राम संतृप्त वसा - 488 मिलीग्राम, ओमेगा -3 फैटी एसिड 110 मिलीग्राम, ओमेगा -6 फैटी एसिड - 1 ग्राम, विटामिन ए - 44 आईयू, विटामिन ई - 40 एमसीजी, विटामिन के - 4.4 एमसीजी, थियमिन - 382 एमसीजी

बोने की विधि

जौ की बुवाई, छिड़कवाँ सीड ड्रिल द्वारा, डिबलर तथा हल के पीछे कूँड़ में की जाती है। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 22.5 सेमी एवं देरी से बुवाई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेमी रखनी चाहिये।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

जौ की फसल के लिए बलुई दोमट तथा दोमट भूमि उत्तम मानी जाती है। रेतीली भूमि में भी इसकी पैदावार अच्छी होती है। इसकी फसल के लिए भूमि में जल निकास की अच्छी सुविधा होनी चाहिए। इसकी खेती लवणीय भूमि में भी की जा सकती है।

बीज की किस्में

जौ के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

1. छिलकायुक्त - ज्योति (के-572/10), आजाद (के-125), हरित (के-560), प्रीति, जाग्रति, लखन, मंजुला, नरेन्द्र जी-1 व 2 तथा 3, एवं आर.डी. 2552 आदि।2. छिलका रहित - गीतांजली (के-1149), नरेन्द्र जौ 5 एवं उपासना (NDV 934)।3. माल्ट हेतु - प्रिगत (के-508), ऋतंभरा (के-551), रेखा, तथा डी.एल.-88, बी.सी.यू.-3, डी.डब्ल्यू.आर.-2 आदि हैं।

बीज की जानकारी

जौ की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

(i) सिंचित क्षेत्र में - 75 किग्रा प्रति हेक्टेयर।(ii) असिंचित क्षेत्रों में - 100 किग्रा प्रति हेक्टेयर।

बीज कहाँ से लिया जाये?

जौ का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से खरीदना चाहिए! 

उर्वरक की जानकारी

जौ की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

खाद तथा उर्वरक की मात्रा खेत की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है। गोबर की खाद फसल की बुवाई के 1 माह पूर्व जुताई के समय दे देनी चाहिए। उर्वरक की मात्रा - सिंचित क्षेत्र में, नाइट्रोजन 50 से 60 किग्रा तथा फॉस्फोरस 30 किग्रा प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए। असिंचित क्षेत्रों में, नाइट्रोजन और फॉस्फोरस की उपरोक्त मात्रा को आधा कर देना चाहिए। सिंचित क्षेत्र में आधी नाइट्रोजन और सम्पूर्ण फॉस्फोरस बुवाई के समय तथा शेष नाइट्रोजन सिंचाई के समय टॉप ड्रेसिंग विधि से देनी चाहिए तथा असिंचित क्षेत्रों में नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के साथ दे देनी चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

जौ की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

जौ की फसल में पहली सिंचाई फसल बोने के 30 दिन बाद, दूसरी सिंचाई फसल बोने के 60 दिन बाद तथा तीसरी सिंचाई बालियों में दूध भरने के समय करनी चाहिए। यदि खेत में अधिक जल भर जाये तो उसकी निकासी कर देनी चाहिए।

रोग एवं उपचार

जौ की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

1. कर्तन कीट (एग्राटिस एप्सिलान) - इस कीट के प्रौढ़ गहरे-भूरे रंग के 25 मिलीमीटर के होते हैं। मादा कीट अपने अंडे जमीन में देती है। अंडों से गिडारें निकल कर जमीन पर पड़ी पत्तियों पर रहती हैं, ये गिडारें पौधों की जड़ों को जमीन की सतह से काट देती हैं, जिससे पौधे सूख जाते हैं। दिन के समय में गिडारें जमीन की दरारों व पत्तियों में छिप जाती हैं। रात में दरारों से निकल कर फसल को हानि पहुंचाती हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए खेतों के पास प्रकाशप्रपंच 20 फेरोमान ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है। प्रकोप अधिक होने पर इंडोसल्फान 35 ईसी की 1.5-2.0 मिलीलीटर मात्रा या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी की 1 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से फसलों पर छिड़काव करना चाहिए । 2. दीमक - दीमक असिंचित क्षेत्रों में जौ की फसल को ज्यादा नुकसान पंहुचाता है। दीमक 6 मिलीमीटर लंबी व मटमैले-सफेद रंग की होती है। दीमक फसल की छोटी अवस्था से फसल पकने तक नुकसान पहुंचाती है। यह खेत की सतह से कुछ नीचे पौधे को काट कर नष्ट करती है, जिससे पूरा पौधा सूख जाता है। इसकी रोकथाम के लिए प्रभावित खेत में समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। खेत में हमेशा गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद का प्रयोग करना चाहिए । एक किलोग्राम बिवेरिया व 2.5 किग्रा मेटारिजयम को करीब 75 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद में अच्छी तरह मिला कर छाया में 10 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिये, इसके बाद प्रभावित खेत में प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पहले प्रयोग करना चाहिए। 3. गेरुई रोग - इस रोग को रतुआ या हरा रोग भी कहते हैं। जौ की फसल में पीली-भूरी तथा काली गेरुई लगती है। पीली-गेरुई में पत्तियों में रंग के धब्बे बनते हैं और बाद में काले पड़ जाते हैं तथा काली गेरुई का प्रकोप तने पर होता है जिससे तने पर लंबे लाल भूरे रंग के उभरे हुए धब्बे बन जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए गेरुई रोधी जातियां बोनी चाहिए तथा डाइथेन एम-45 का 0.2% का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। इसके घोल में 0.2% सैडविक का घोल भी मिलाना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खेत में यदि खरपतवार अधिक दिखाई दे तो खुरपी या हो से 1-2 निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए तथा चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार के नियंत्रण हेतु 2, 4 डी की 0.50 किग्रा सक्रिय मात्रा को 800 लीटर जल में घोलकर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़क देनी चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल,देशी हल या हैरों, फावड़ा, खुर्पी आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।