केला की खेती

केला भारतवर्ष का प्राचीनतम, स्वादिष्ट, पौष्टिक, पाचक एवं लोकप्रिय फल है यहाँ के प्रायः हर गाँव में केले के पेड़ पाए जाते है |परिचय ➽➢केला, आम के बाद भारत की  दूसरी  महत्वपूर्ण फल की फसल है।➢इसके स्वाद , पोषक तत्व, चिकित्सकीय  गुणों,तथा पूरे वर्ष उपलब्धता  के कारण यह लगभग पूरे भारत में उगाया जाता है । ➢भारत में केला, उत्पादन में पहले स्थान पर और फलों के क्षेत्रों की संख्या में तीसरे नंबर पर है। ➢भारत में  केले की सर्वोच्च उत्पादकता वाला राज्य महाराष्ट्र है।➢इसमे शर्करा तथा  खनिज लवण जैसे कैल्सियम और फ़ॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में पाए जाते है |➢केले के कच्चे फलों का उपयोग सब्जी के रूप में पकाने,आटा बनाने, चिप्स बनाने तथा पके केले के फलों को सीधा आहार में शामिल किया जाता है। जलवायु ➽➢उष्णकटिबंधीय फसल होने के कारण केले को गर्म, आर्द्र और बरसाती जलवायु की आवश्यकता होती है। ➢तापमान की सर्वोपयुक्त सीमा 10°C से 40°C तक होती है और सापेक्षिक आर्द्रता 90% या उससे अधिक होती  है।➢यह ठंड के प्रति सहिष्णु है किन्तु  शुष्क परिस्थितियों को सहन नहीं कर सकता है।➢तेज शुष्क हवाएँ  पौधे की वृद्धि, फलों की पैदावार और गुणवत्ता में काफ़ी कमी लाती हैं।खेती का समय ➽➢केले की रोपाई के लिए 15 मई से 15 जुलाई का समय उपयुक्त माना जाता है । बारिश के मौसम में केले के पौधे अच्छे से वृद्धि करते है इसलिए जून का महीना अच्छा माना जाता है । ➢रोपण पूरे वर्ष किया जा सकता है सिवाय तब जब बहुत ठंड या गर्मी हो।➢सिंचाई के साथ फरवरी-मार्च में भी बुआई की जा सकती है।➢लंबी अवधि की किस्मों के लिए रोपण का समय छोटी अवधि वाली किस्मों से अलग होता है।महाराष्ट्र ➪➢खरीफ़  - जून - जुलाई➢रबी - अक्टूबर - नवंबरतमिलनाडु ➪➢फरवरी - अप्रैल➢नवम्बर- दिसम्बरकेरल ➪➢वर्षा सिंचित- अप्रैल-मई➢सिंचित फसल- अगस्त-सितंबर


केला

केला उगाने वाले क्षेत्र

भारत में केले का उत्पादन करने वाले मुख्य राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश और असम है।

केला की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

पोषण मूल्य ➽ ➢केला  कार्बोहाइड्रेट और विटामिन विशेष रूप से विटामिन बी का उच्च स्त्रोत है। ➢केला दिल की बीमारियों के खतरे को कम करने में सहायक है। ➢इसके अलावा गठिया, उच्च रक्तचाप, अल्सर, गैस्ट्रोएन्टराइटिस और किडनी के विकारों से पीड़ित  रोगियों के लिए यह उपयोगी भोज्य पदार्थ  माना जाता है। 

बोने की विधि

बुवाई की विधि ➽➢आमतौर पर केले की खेती के लिए उद्यान प्रणाली में पिट रोपण विधि का उपयोग  किया जाता है। एक गड्ढे का आकार 0.5 x 0.5 x 0.5 मीटर  सामान्य रूप से आवश्यक होता  है। ➢लकीरें और खांचे के मामले में छोटे गड्ढे खोदे जाते हैं। ➢गड्ढों को, सतही मिट्टी में 10 किलो गोबर की खाद (अच्छी तरह से विघटित), 250 ग्राम नीम की खली और 20 ग्राम कार्बोफुरन के साथ फिर से भरना होता है। ➢तैयार गड्ढों को 15-20 दिनों के लिए खुला छोड़ दिया जाता है ताकि सूर्य की किरण सभी कीड़ों को और  मिट्टी जनित बीमारियों को खत्म कर सके |➢जहाँ पर लवण क्षार मिट्टी में हो या पीएच 8 से ऊपर हो वहाँ कार्बनिक पदार्थ और जिप्सम को शामिल करते हुए गड्ढे के मिश्रण को संशोधित किया जाना चाहिए ।➢केले के पौधे को गड्ढे के केंद्र में लगाया जाता है और चारों ओर की मिट्टी को जमा दिया जाता है। ➢पौधों को जमीन के स्तर से 2 सेमी नीचे स्यूडोस्टेम रखते हुए गड्ढों में लगाया जाता है। पौधे के चारों ओर की मिट्टी को धीरे से दबाया जाता है। ➢गहरी बुआई से बचना चाहिए। रोपण के तुरंत बाद खेत की सिंचाई करें।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

मिट्टी ➽➢केला पोषक तत्वों से भरपूर फसल है इसलिए इसकी फसल के लिए मिट्टी की उर्वरता का विशेष महत्व है। ➢अच्छी जल निकासी वाली, उपजाऊ,कार्बनिक पदार्थों से समृद्ध मिट्टी खेती के लिए सर्वोपयुक्त मानी जाती है। ➢मिट्टी के पीएच की सर्वोपयुक्त सीमा 6 से 8 होनी चाहिए।खेत की तैयारी ➽➢गर्मियों में, कम से कम 3 से 4 बार जोताई करें।➢आखिरी जोताई के समय, 10 टन अच्छी तरह से गली हुई रूड़ी की खाद या गाय का गला हुआ गोबर मिट्टी में अच्छी तरह मिलायें।➢ज़मीन को समतल करने के लिए ब्लेड हैरो या लेज़र लेवलर का प्रयोग करें।➢वे क्षेत्र जहां निमाटोड की समस्या होती है वहां पर रोपाई से पहले निमाटीसाइड और धूमन, गड्ढों में डालें।मिट्टी का शोधन ➽जैविक विधि ⇨ ➢जैविक विधि से मिट्टी का शोधन करने के लिए ट्राईकोडर्मा विरडी नामक जैविक फफूंद नाशक से उपचार किया जाता है। ➢इसे प्रयोग करने के लिए 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में 1 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा विरडी को मिला देते हैं साथ ही मिश्रण में नमी भी बनाए रखते हैं। ➢4-5 दिनों के पश्चात फफूंद का अंकुरण हो जाता है तब इसे तैयार क्यारियों में अच्छी तरह मिला देते हैं ।रसायनिक विधि ⇨ ➢रसायनिक विधि के तहत उपचार हेतु कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब नामक दवा की 2 ग्राम मात्रा 1 लीटर पानी की दर से मिला देते है फिर इस घोल से भूमि को इस प्रकार से  तर करते हैं जिससे 8-10 इंच की ➢गहराई तक मिट्टी तर हो जाए । ➢4-5 दिनों के पश्चात बुआई करते है ।

बीज की किस्में

केला के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

उन्नत किस्में ➽ग्रैंड नाइन ⇨➢रोपण के 7-11 महीने बाद पौधे फल देने लगते है। एक गुच्छे का औसत वजन  25-30 किग्रा होता है। ➢औसतन उपज -    25-30 किग्रा प्रति पौधा➢फसल की अवधि -  7-11 महीने बौना कैवेंडिश ⇨➢इसका एक पौधा 240 केले तक पैदा कर सकता है। इसके फल लटकते हुए बड़े-बड़े गुच्छों में उगते है जिसमे लगभग 10 से 20 छोटे गुच्छे लगे होते हैं।➢औसतन उपज - 240 केले प्रति पौधा ➢फसल की अवधि - 7-11 महीनेचंपा ⇨ ➢यह उच्च गुणवत्ता के फल देने वाली किस्म है, इसके फल मीठे, फलों के छिलके चमकीले पीले रंग के, फल  मध्यम आकार के, फल का औसत वजन 95-100 ग्राम तथा गूदा नरम होता हैं। इसके पौधे  कीट और रोग के प्रति सहिष्णु  होते  है। ➢औसतन उपज - 16-18 टन प्रति एकड़ ➢फसल की अवधि- 365 - 400 दिनडवार्फ कैवेंडिश ⇨➢यह किस्म  भारत में बहुत लोकप्रिय है। इसका पौधा छोटा जबकि फल बड़े होते हैं। इसका गूदा खाने में नरम और मीठा होता  है।                                         ➢औसतन उपज - 20-24  टन प्रति एकड़ ➢फसल की अवधि- 365 - 400 दिनसीओ 1 ⇨➢इस किस्म के पौधों के फल स्वाद में पहाड़ी केले के समान होता है और मैदानों तथा पहाड़ियों में 1200 मीटर की ऊँचाई तक उगाने के लिए उपयुक्त है।➢औसतन उपज-  8.8 टन प्रति एकड़ ➢फसल की अवधि- 14 महीने मोंथन ⇨➢केले की  इस  किस्म के  फल  बड़े, अनियमित रूप से फैले हुए , तथा इन पर थोड़ी घुमावदार, उभरी हुई   चौड़ी लकीरे होती है । ➢औसतन उपज - प्रति गुच्छा -  मध्यम आकार,  20 से 25 किग्रा , 60 फल➢फसल की अवधि - 14 महीने

बीज की जानकारी

केला की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

बीज दर ➽➢यदि पौधे के बीच दूरी 1.8 x1.5 मीटर रखी जाए तो प्रति एकड़ में 1452 पौधे लगाए जा सकते है। यदि पौधे के बीच दूरी  2 मीटर x 2.5 मीटर रखी जाए, तो एक एकड़ में 800 पौधे लगाने की सलाह दी जाती है।बीज उपचार ➽➢केले की रोपाई के लिए, सेहतमंद और संक्रमण रहित जड़ों या राइज़ोम का प्रयोग करें। रोपाई से पहले, जड़ों को धोए  और क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी  2.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में डुबोए और उसके बाद 72 घंटों के लिए छाया में सुखाए।➢गाँठों को निमाटोड के हमले से बचाने के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 प्रतिशत सी जी  50 ग्राम से प्रति जड़ का उपचार करें। ➢गलन रोग से बचाने के लिए, जड़ों को कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में15-20 मिनट के लिए डुबोए।

बीज कहाँ से लिया जाये?

केला के पौधे किसी विश्वसनीय किसी स्थान से खरीदना चाहिए! 

उर्वरक की जानकारी

केला की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

खाद और उर्वरक ➽केला  की फ़सल में खाद एवं उर्वरक कुल आवश्यकता: प्रति पौधे के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन , 60 ग्राम फॉस्फोरस और 200 पोटाश ग्राम।रोपण के 30 दिन के भीतर⇨यूरिया 82 ग्राम/पौधा, सिंगल सुपर फॉस्फेट- 365 ग्राम/पौधा, म्युरेट ऑफ पोटॅश- 83 ग्राम/पौधा।रोपाई के 75 दिन बाद⇨ यूरिया 82 ग्राम/पौधा।  रोपाई के 120 दिन बाद⇨ यूरिया 82 ग्राम/पौधा।रोपाई के 165 दिन बाद⇨ यूरिया 82 ग्राम/पौधा, म्युरेट ऑफ पोटॅश- 83 ग्राम/पौधा।रोपाई के 210 दिन बाद⇨ यूरिया 36 ग्राम/पौधा।रोपाई के 255 दिन बाद⇨ यूरिया 36 ग्राम/पौधा, म्युरेट ऑफ पोटॅश- 83 ग्राम/पौधा।रोपाई के 300 दिन बाद⇨ यूरिया 36 ग्राम/पौधा, म्युरेट ऑफ पोटॅश- 83 ग्राम/पौधा।केले की फ़सल सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता की पूर्ति ⇨➢सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकताएं- दूसरे और चौथे महीने में 10 लीटर पानी में 50 ग्राम जिंक इडीटीए + 50 ग्राम फेरस इडीटीए मिला कर छिड़काव करने से उपज और केले की गुणवत्ता में बढ़ौतरी होती है।➢पांचवे और सातवे महीने में 150 ग्राम गोबर खाद/पौधा में जिंक सल्फेट 15 ग्राम और फेरस सल्फेट 15 ग्राम मिट्टी में मिलाये।फर्टिगेशन ⇨केले की अधिक उपज के लिए कुल मात्रा के 75 % नत्रजन और फास्फोरस (150 ग्राम) और कुल पोटास (60 ग्राम) ड्रिप विधि के द्वारा देने की सलाह दी जाती है।

जलवायु और सिंचाई

केला की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

सिंचाई ➽➢केला का पौधा सदाबहार, तना रसीला तथा जड़े उथली जड़ होने के कारण इसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। ➢केले के लिए आवश्यक पानी की मात्रा 1,800 - 2,000 मिमी प्रति वर्ष निर्धारित की गई है। ➢सर्दियों में 7-8 दिनों के अंतराल पर और गर्मियों में 4-5 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। हालांकि बारिश के मौसम के दौरान भी सिंचाई की आवश्यकता होती है क्योंकि अतिरिक्त सिंचाई से ➢मिट्टी के छिद्रों से हवा निकालने के कारण जड़ क्षेत्र फैल जाएगा  जिससे पौधे का रोपण  और विकास प्रभावित होगा। ➢कुल मिलाकर, फसल को लगभग 70-75 बार सिंचाई प्रदान की जाती है। ➢केले के उत्पादन के लिए ड्रिप सिंचाई जैसी कुशल सिंचाई प्रणाली को उपयोग में लाना चाहिए।➢ड्रिप सिंचाई और मल्चिंग तकनीक के प्रयोग से जल उपयोग क्षमता में सुधार होता है। ➢ड्रिप से 58 प्रतिशत पानी की बचत होती हैसाथ ही उपज में 23-32% तक की वृद्धि  भी होती है।➢इसके अलावा, फर्टिगेशन तकनीक के माध्यम से उर्वरक अनुप्रयोग क्षमता में भी सुधार किया जा सकता है।

रोग एवं उपचार

केला की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

रोग और रोकथाम➤ 1) पीला सिगाटोका ➽ नुकसान के लक्षण ➪➢पत्तियों पर अण्डाकार धब्बे बन जाते हैं और इन धब्बों का केंद्र पीले रंग से घिरे हल्के भूरे रंग का हो जाता है। ➢बाद में ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं और पत्तियों पर बड़े सूखे अनियमित धब्बे बन जाते हैं।➢अधिक प्रकोप होने पर पत्तियाँ सूख कर झड़ जाती हैं।नियंत्रण ➪ ➢बाग और आसपास के क्षेत्रों को खरपतवारों से मुक्त रखें। ➢अधिक निकट रोपण से बचें, चूसक कीटों को समय पर हटा दें। रोगग्रस्त पत्तियों को हटाकर  नष्ट कर दें, खेत में उचित जल निकासी की व्यवस्था बनाकर  जलभराव से बचें | ➢इंटरकल्चरल ऑपरेशन के दौरान पौधों को चोट लगने से बचाए। ➢कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी @ 2 ग्राम/लीटर पानी या प्रोपिकोनाजोल 25% ईसी @ 1 मिली/लीटर पानी में मिलाकर 10-15 दिनों के अंतराल पर पौधों पर 3 बार छिड़काव करें, रोग का  संक्रमण प्रारंभ होते ही उपचार  शुरू करें।2) बंची टॉप ➽नुकसान के लक्षण ➪ ➢पत्ती मध्य शिरा के निचले भाग की शिराओं में गहरे हरे रंग की धारियाँ दिखाई देती हैं। ➢पौधे के ऊपर पत्तियाँ गुच्छों में दिखाई देती हैं। फल या केले का उत्पादन करने में असमर्थ पौधा विकृत होकर मुड़ जाता है । नियंत्रण ➪ ➢रोग मुक्त रोपण सामग्री का प्रयोग करें, रोगग्रस्त पौधों को हटाकर नष्ट कर दें। ➢एफिड्स की संख्या को नियंत्रण में रखें, खेत और आसपास के क्षेत्रों को खरपतवारों से मुक्त रखें। ➢एफिड से जल्द प्रभावित होने वाली  फसलों  को अंतरफसल के रूप में उगाने से बचें।➢इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL @ 0.3 मिली/लीटर या एसिटामिप्रिड 75 WP 4 ग्राम /10 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर  छिड़काव करें।3) एंथ्राक्नोस ➽नुकसान के लक्षण ➪➢इस रोग के कारण पौधो की पत्तियों, फूलों एवं फल के छिलके पर छोटे काले गोल धब्बे विकसित हो जाते हैं।नियंत्रण ➪➢केले को 3/4 परिपक्वता पर तोड़ लें।➢इस रोग का संक्रमण होने पर पौधों को कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम  या बॉर्डीऑक्स मिश्रण 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर पौधों के ऊपर छिड़काव करें।4) केले का उकठा/ पनामा विल्ट बीमारी ➽नुकसान के लक्षण ➪➢इस रोग के संक्रमण से पौधे की जड़े एवं तना सड़ जाता है और पौधा सुख जाता हैं।नियंत्रण ➪➢खेत में उचित जल निकासी की व्यवस्ता रखें।➢पौध रोपाई से पहले कंदों को ट्राईकोडर्मा  6 ग्राम/लीटर पानी के घोल से उपचारित करे।➢पौध रोपण के 6 माह बाद कंदों को कार्बेन्डाजिम @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से भीगें।5) फुज़ेरियम सूखा ➽नुकसान के लक्षण ➪➢इस रोग से संक्रमित पौधों की पत्तियां पिले रंग की हो जाती हैं और बाद में पौधे सुख जाते हैं।नियंत्रण ➪ ➢रोग संक्रमित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें।  ➢रोपाई के 2, 4 और 6 माह बाद कार्बेनडाज़िम 60 मिलीग्राम प्रति पौधे के दर से पौधों के जड़ क्षेत्र के पास की मिटटी को भीगें।कीट और नियंत्रण➤1) एफिड्स ➽नुकसान के लक्षण ➪ ➢इसके प्रकोप से पत्तियाँ पीली पड़कर नीचे की ओर मुड़ जाती हैं और पौधों की वृद्धि रूक जाती है। ➢मादा और वयस्क बड़ी मात्रा में पौधे का रस चूसते हैं जिसके कारण वे शहद की बूंद जैसे पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं और इन बूंदों पर काले रंग की फफूंद द्वितीयक संक्रमण के रूप में विकसित हो जाती है।➢पत्तियों पर काले रंग के उभरे निशानों में फफूंद लग जाती है। यह वायरल रोगों का वाहक भी है।नियंत्रण ➪ ➢खेत और आसपास के क्षेत्रों से खरपतवार हटा दें, फसल चक्र का पालन करें, नाइट्रोजन उर्वरकों की अधिक मात्रा (और एक बार में पूरी खुराक) लगाने से बचें।➢थियामेथोक्सम 25% डब्ल्यूजी @ 4 ग्राम/10 लीटर पानी या एसिटामिप्रिड 75 WP 4 ग्राम /10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।2) थ्रिप्स ➽नुकसान के लक्षण ➪ ➢थ्रिप्स द्वारा  क्षति होने पर धारियाँ, सफ़ेद  रंग के चमकीले  धब्बे और छोटे-छोटे अन्य सफेद धब्बे भी दिखाई देते  हैं। ➢थ्रिप्स कई बगीचे के पौधों, फूलों, फलों और छायादार पेड़ों से पौधों की कोशिकाओं को चूसते हैं। ➢यदि आस-पास थ्रिप्स का एक बड़ा संक्रमण हो, तो आपके पौधे क्षतिग्रस्त फूलों और फलों से प्रभावित हो सकते हैं।नियंत्रण ➪  ➢फसल चक्र अपनाए, नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से बचें, खरपतवार और वैकल्पिक मेजबान (होस्ट फसलों) को हटा दें, बाढ़ सिंचाई विधि से रोपण से पहले खेत की सिंचाई करें। ➢प्रतिरोधी किस्में उगाए। स्पिनोसैड 45 एससी @ 64 मिली/एकड़ के साथ या एसीफेट 300 ग्राम/200 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर  छिड़काव करें।3) राइज़ोम की भुंडी ➽नुकसान के लक्षण ➪  ➢इस कीट की इल्लियां पौधों के कंदों को खाते रहते हैं जिसके कारण पौधों के पत्ते पिले रंग के हो जाते हैं। ज्यादा संक्रमण होने पर पौधे सुख जाते हैं।नियंत्रण ➪➢सूखे हुए पत्तों को हटा कर नष्ट कर दें।➢रोपाई से पहले कंदों को मिथाइल ऑक्सीडेमेटन 2 मि.ली. या क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी  2.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में डुबो कर उपचारित करें।➢खेत में कॉस्मोलर ट्रैप 2 प्रति एकड़ की दर से स्थापित करें।➢डाइमेथोएट 30% ईसी @ 1 मिली/लीटर पानी में मिलाकर पौधे के जड़  क्षेत्र के आसपास छिड़काव करें।4) कट वर्म ➽नुकसान के लक्षण ➪➢इस कीट की युवा इल्लियां पत्तियों की ऊपरी सतह को खुरच कर खा जाती हैं। और वयस्क इल्लियां पुरे पत्तों को खा जाती हैं।नियंत्रण ➪ ➢इल्लियों और अण्डों को इकठा करके नष्ट कर दें।➢पौध रोपाई से पहले खेत में गहरी जुताई करें।➢खेत में लाइट ट्रैप 1 प्रति एकड़ की दर से स्थापित करें।➢ज्यादा संक्रमण होने पर स्पिनोसैड 45 एससी @ 3 मिली/ 10 लीटर पानी या क्लोरेंट्रानिलिप्रोल 18.5% एससी 3 मिली/ 10 लीटर पानी की दर से पौधों पर  छिड़काव करें।5) तना छेदक (स्यूडोस्टेम बोरर) ➽नुकसान के लक्षण ➪  ➢इस कीट की इल्लियां तने में छेद करती हैं और तने को अंदर से खाती रहती हैं। ➢छेद वाला तने का हिस्सा सड़ जाता हैं व् पौधा और तना कमजोर हो जाता हैं। ➢ज्यादा संक्रमण होने पर पौधे सुख जाते हैं।नियंत्रण ➪   ➢सूखे पत्तों को समय-समय पर हटाकर खेत को साफ रखें।➢30 दिन क बाद साइड सकर्स को हटा दें।➢कीट मुक्त कंदो को खेत में रोपित करें।➢रोगग्रस्त पेड़ों को उखाड़ें, टुकड़ों में काट लें और जला दें।➢कीट का प्रकोप होने पर क्लोरपायरीफॉस 50% + सायपरमेथ्रिन 5% ई. सी. 40 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में घोलकर तने में  स्प्रे करें।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण ➽➢केले के पौधे की रोपाई से पहले गहरी जुताई और क्रॉस हैरो से जुताई करके खरपतवार  को निकाल दें। ➢यदि हमला घास प्रजातियों द्वारा हो तो खरपतवार में अंकुरण से पहले ड्यूरॉन 80 प्रतिशत डब्लयु पी 800 ग्राम को 150 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में डालें।

सहायक मशीनें

केला  के फल पेड़ पर गुच्छों के रूप में निकलते हैं। केले के गुच्छों को ही घैर कहते हैं। घैर को इस प्रकार पेड़ से काटा जाता है कि घैर के साथ लगभग 30 सेमी डण्ठल भी कट जाये।