विभिन्न औषधीय पौधों में अश्वगंधा एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है जिसका उपयोग प्राचीन समय से ही पारम्परिक औषधि के रूप में किया जा रहा है। अश्वगंधा एक बहुवर्षीय कन्दयुक्त झाड़ीनुमा औषधीय पौधा है जिसको शतमूली, सतावरी तथा शीतवीर्य भी कहते हैं। अश्वगंधा का क्षूप 3 से 5 फीट ऊंचा होता है जो कंटक युक्त झाड़ीनुमा आरोही लता के समान बढ़ता है। इसलिए पौधे को सहारे की आवश्यकता होती है जो बांस या अन्य किसी शाखा द्वारा सहारा देना चाहिए। इसकी खेती के लिए उष्ण, समशीतोष्ण एवं शीतोष्ण नम जलवायु सर्वोत्तम रहती हैं।
अश्वगंधा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के अलावा पंजाब हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हिमालय में पाया जाता है।
अश्वगंधा की कन्दिल जड़े मधुर एवं रसयुक्त होती है। इसकी औषधीय गुणवत्ता बुद्धिवर्धक, दुग्धवर्धक, शुक्रवर्धक, बलकारक,कामोद्दीपक, मूत्रावरोध, अतिसार, वात, पित्त विकार दूर करने वाली के रूप में जानी जाती हैं। अश्वगंधा की जड़ों का उपयोग आदिवासी क्षेत्रों में दुधारू पशुओं में होने वाले थनैला रोग के उपचार हेतु व्यापक रूप से किया जाता है।
बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी आवश्यक है। बुवाई 2 फ़ीट दूर कतारों में करें तथा बीज की बुवाई 3-4 सेमी अधिक गहराई पर नहीं होना चाहिए अश्वगंधा की बुवाई पौध रोपण विधि द्वारा भी की जा सकती है। इसके लिए जून के अंत में बीजों को नर्सरी में बुवाई कर देते हैं तथा अगस्त के तीसरे सप्ताह में पौधों को मुख्य खेत में स्थानांतरित करते हैं।
चिकनी, बलुई दोमट मिट्टी या काली दोमट मिट्टी अथवा हल्की लाल मिट्टी जिसका पी.एच. मान 7 से 8 हो तथा उचित गहराई व जलधारण शक्ति अधिक हो एवं भूमि में जल का निकास अच्छा हो इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है।गर्मियों में गहरी जुताई करने के बाद मानसून की वर्षा शुरू होने पर 2-3 जुताई हैरों या कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देना चाहिए।
जवाहर अश्वगंधा - 20,जवाहर अश्वगंधा - 134, आर.ए.वी.-100 आदि।
पंक्ति (कतार) में बुवाई करने पर 6-8 किग्रा बीज, छिटकवाँ विधि से बुवाई करने पर -10-12 किग्रा बीज पर्याप्त होता है।
अश्वगन्धा का बीज (पौध) किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए खेत तैयार करते समय 15 – 20 टन गोबर का पचा हुआ खाद अच्छे से मिला लेना चाहिए बोनी के समय निम्नानुसार रासायनिक उर्वरक का भी उपयोग कर सकते हैं । नत्रजन – 25 कि.ग्रा. स्फुर-30 कि.ग्रा. पोटाश -30 कि.ग्रा. प्रति हे. देना चाहिए । पहली सिंचाई में 12.5 कि.ग्रा. नत्रजन की दूसरी मात्रा सिंचाई के समय देना चाहिए ।
बीजों का अंकुरण भूमि में उपस्थित नमी से हो जाता है तथा मानसून की ऋतु समाप्त होने से पहले ही पौधा या भूमि में अच्छी तरह से स्थापित हो जाता है। इसके पश्चात भूमि में संरक्षित नमी पर पौधे का निर्वाह हो जाता है। इसके पश्चात भी पौधों में अस्थाई मुरझाने के लक्षण दिखाई दें तो अंकुरण के 30-35 दिनों के बाद तथा अगली सिंचाई 60-70 दिनों पर करनी चाहिए।
जड़ गलन रोग - इस रोग की रोकथाम हेतु बीज को बाविस्टिन 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए इसके बाद 20% ट्राइकोडर्मा के घोल से उपचारित करना चाहिए। यह ध्यान रखें कि बाविस्टिन के उपचार के 1 दिन बाद ट्राइकोडर्मा से उपचारित करना चाहिए। मत्कुण (माइट) - यह अश्वगंधा की पत्तियों की निचली सतह पर रस चूसते हैं जिससे पौधे की पत्तियां पीली पड़कर सिकुड़ जाती है तथा पौधा मुरझाने लग जाता है तथा अंत में पकने से पहले ही पौधा सूख जाता है। इसके नियंत्रण के लिए फेनाजिनाक्वीन 10 ई.सी. की 1 मिली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें या हैक्सीथायजोक्स 5.45 ईसी.500 मिली दवा 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। पर्ण धब्बा रोग (पर्ण अंगमारी) - बुवाई से पूर्व बीजों को कैप्टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके ही बुवाई करें। इस रोग की रोकथाम के लिए बाविस्टिन का 0.01% का छिड़काव फसल बुवाई के 35,55 एवं 75 दिनों के बाद करें।
अश्वगंधा की अच्छी पैदावार के लिए निराई-गुड़ाई आवश्यक है। पौध रोपण के लगभग 3 माह बाद पहली निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए। इसके पश्चात वर्ष में 2-3 बार निराई-गुड़ाई करके खेत से खरपतवार निकाल देना चाहिए।
मिट्टी पलट हल, हैरों, कल्टीवेटर, खुर्पी, फावड़ा आदि यन्त्रो की आवश्यक्ता होती है।