सेब की खेती

सेब का रंग लाल या हरा होता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे मेलस डोमेस्टिका (Melus domestica) कहते हैं। सेब, शीतोष्ण फलों में प्रमुख स्थान रखता है। यह एक पौष्टिक फल है जिसमें शर्करा, प्रोटीन, खनिज, लवण व विभिन्न विटामिन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। सेब के फलों का उपयोग प्रमुखता से ताजे फल के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त इन फलों से मुरब्बा, जैम, रस व साइडर तैयार किये जाते हैं।


सेब

सेब उगाने वाले क्षेत्र

सेब की खेती मुख्य रूप से जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड की पहाड़ियों में की जाती है। कुछ हद तक इसकी खेती अरूणाचल प्रदेश, नगालैंड, पंजाब और सिक्किम में भी की जाती है।

सेब की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

सेब अपने आप में सभी फलो का राजा है। एक अंग्रेजी कहावत है कि An Apple A Day, Keeps Doctor Away यानी हर रोज एक सेब खाने से आप बीमारियों से दूर रह सकते हैं। यह पोषक तत्वों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण फल है। 100 ग्राम खाने योग्य पदार्थ से - नमी - 85.2 ग्राम, प्रोटीन - 0.3 ग्राम, वसा - 0.1 ग्राम, रेशा 0.8 ग्राम, अन्य कार्बोहाइड्रेट्स - 13.3 ग्राम, कैलोरी - 55, विटामिन ए- नगण्य, थियामिन -0.12 मिग्रा, राइबोफ्लेविन - 0.3 मिग्रा, निकोटिनिक एसिड - 0.2 मिग्रा, विटामिन सी - 2.0 मिग्रा, खनिज लवण - 0.3 मिग्रा, कैल्शियम - 9.0 मिग्रा, फास्फोरस - 20 मिग्रा, लोहा -1.0 मिग्रा।

बोने की विधि

पौध लगाने से पूर्व, सेब की किस्म के अनुसार दूरी निर्धारित कर रेखांकन कर लेना चाहिए। पेड़ कंटूर निर्मित करने के उपरान्त वर्गाकार अथवा षठभुजाकार विधि से लगाना चाहिए। वर्गाकार विधि में बीजू या क्रेब मूलवृन्त पर तैयार किए गए पेड़ो को 8 x 8 मीटर की दूरी पर, एम एम 106 मूलवृन्त पर तैयार डिलीशियस वर्ग के पौधों को 5 x 5 मीटर की दूरी पर तथा स्पर किस्मों को 6 x 6 मीटर की दूरी पर रोपित किया जाना चाहिए। षठ्कोणीय विधि में लगाने पर 15 प्रतिशत पेड़ अधिक आते हैं। हर षठकोण के मध्य में परागकारी किस्म लगाने से अच्छा परागण होता है। पौध रोपण के लिए 1 x 1 x 1 मीटर आकार का गड्ढा होना चाहिए। अधिक गहरी तथा उपजाऊ भूमि में गड्ढे का आकार अपेक्षाकृत कुछ कम भी रखा जा सकता है। गड्ढे पौध रोपण के दो माह पूर्व तैयार कर लिये जाने चाहिए।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

सेब के लिए मृतिका दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है। भूमि से पानी के निकास का उत्तम प्रबंध होना चाहिए। सेब की अच्छी उपज के लिए भूमि पर्याप्त रूप से गहरी होनी चाहिए। कुछ-कुछ अम्लीय भूमि सेब के लिए अनुकूल रहती हैं।

बीज की किस्में

सेब के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

(i) शीघ्र पकने वाली जातियां- समर गोल्डन पिपिन, जेम्स ग्रीव तथा अरली शेनबरी, फैनी। (ii) मध्य पकने वाली जातियां - बेनोनी, विंटर, बेनाना किंग ऑफ दी टोमकिन्स काउन्टी। (iii) पछेती जातियां - रोम ब्यूटी डिलीशियस, विस्मार्क, राइमर, किंगऑफ पिपिन, जोनाथन, रेड डिलीशियस, गोल्डन डिलीशियस, अंबरी कश्मीरी, रोम ब्यूटी।

बीज की जानकारी

सेब की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

500-1250 पौधा प्रति हेक्टेयर।

बीज कहाँ से लिया जाये?

सेब के पौध किसी नर्सरी या कृषि विज्ञान केंद्र से प्राप्त कर सकते है! 

उर्वरक की जानकारी

सेब की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

प्रत्येक गड्ढे में अच्छी उपज के लिए 10 से 12 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद डालनी चाहिए। प्रत्येक पेड़ के थाले में 30 ग्राम नाइट्रोजन 25 ग्राम फास्फोरस तथा 50 ग्राम पोटाश डालना चाहिए। प्रथम वर्ष में मार्च-अप्रैल के समय प्रत्येक गढ्ढे में 150 ग्राम के हिसाब से कैल्शियम अमोनिया नाइट्रेट भी मिलाना चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

सेब की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

पर्याप्त वर्षा के कारण सेब को सींचने की बहुत कम जरूरत पड़ती है। बसन्त ऋतु में पौधों को एक या दो वर्ष तक अधिक सिचाई की आवश्यकता होती है।

रोग एवं उपचार

सेब की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i)जड़ सड़न रोग - इस रोग से ग्रसित पौधे की जड़े कमजोर होकर सड़ जाती हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए 10 से 15 दिन तक जड़ों से मिट्टी हटाकर खुला छोड़ने के बाद 1% ब्रेसिकाल 75 डब्लू० पी० नामक दवा का घोल 8 से 10 लीटर प्रति पेड़ के हिसाब से डालना चाहिए जिसमें 0.2% के हिसाब से थायोडान 35 ई०सी० नामक दवा भी मिला लेनी चाहिए। (ii) तने का भूरा, काला और गुलाबी रोग - इस रोग के नियंत्रण के लिए रोगी टहनियों को काट देना चाहिए। लाइम सल्फर नामक दवा का 1:15 अनुपात लेकर उसका पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।(iii) शूटी ब्लाच - इस रोग के नियंत्रण के लिए जुलाई-अगस्त माह में इंडोफिल एम-45 दवा का 0.25% का घोल बनाकर छिड़कना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

सेब के प्रत्येक गड्ढे की दो या तीन बार  निराई -गुड़ाई करना आवश्यक होता है।

सहायक मशीनें

हैरों या कल्टीवेटर, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा।