टिन्डे की खेती

टिंडे के फलों को अधिकतर सब्जी बनाने के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसका पौधा लता वाला होता है। अन्य कूकरविटस की अपेक्षा यह अधिक उच्च पोषक तत्वों की मात्रा प्रदान करता है, जो कि शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक होते हैं। इसके सेवन से लगभग सभी पोषक तत्वों की पूर्ति होती है।


टिन्डे

टिन्डे उगाने वाले क्षेत्र

भारत में टिन्डे की खेती पंजाब, उत्तर प्रदेश ,राजस्थान एवं महाराष्ट्र में की जाती है ।

टिन्डे की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

इसके सेवन से लगभग सभी पोषक-तत्वों की पूर्ति हो जाती है। टिन्डे में विटामिन ‘ए’, विटामिन 'सी’ एवं कैरोटीन, फास्फोरस, थियामिन, रिबॉफ्लेबिन मौजूद होते है।

बोने की विधि

बीजों को सीधे या मेंड़ पर बोया जा सकता है। बीजों को 2-3 सैं.मी. की गहराई में बोयें। बीजों को बैड के दोनों तरफ बोयें और 45 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

टिंडे की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2-3 जुताई देशी हल, हैरों या कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देना चाहिए।

बीज की किस्में

टिन्डे के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

(i) बीकानेरी ग्रीन - यह राजस्थान की किस्म है जिसे ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में उगाया जाता है। इसके फल गोल, मुलायम और हल्के रंग के होते हैं। (ii) अर्का टिंडा - इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बेंगलुरु (कर्णाटक) द्वारा किया गया है। यह किस्म अधिक उपज देने वाली है, तथा 40-50 दिनों में बुवाई के बाद तैयार हो जाती है। फल हल्के हरे रंग के एवं मध्यम आकार के होते हैं। (iii) एस 22 - भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली से शुद्ध वंशक्रम द्वारा इसका विकास किया गया।

बीज की जानकारी

टिन्डे की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

7-8 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदे।

उर्वरक की जानकारी

टिन्डे की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

टिंडे की पूरी फसल को नाइट्रोजन 40 किलो (यूरिया 90 किलो), फासफोरस 20 किलो (सिंगल सुपर फासफेट 125 किलो), और पोटाश 20 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 35 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा, फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बिजाई के समय डालें। बाकी बची नाइट्रोजन की मात्रा शुरूआती विकास के समय में डालें।

जलवायु और सिंचाई

टिन्डे की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

"ग्रीष्मकालीन फसल की फसल की सिंचाई बुवाई से 15-20 दिन के बाद करनी आवश्यक है। जायद की फसल की सिंचाई 6-7 दिन के अन्तर से करनी चाहिए, तथा खरीफ की फसल की वर्षा न होने पर करनी चाहिए।"

रोग एवं उपचार

टिन्डे की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) चूर्णी फफूंदी - यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूँदी के कारण होता है। पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा और गोलाकार सा जाल दिखाई देता है, जो बाद में आकार में बढ़ जाता है। पूरी पत्तियां पीली पढ़कर सूख जाती हैं तथा पौधों की बढ़वार रुक जाती है। इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर मिश्रण तैयार कर 250 मिली. को पम्प द्वारा फसल में  छिड़काव करना चाहिए। (ii) मृदु रोमिल - यह रोग स्यूडोपरोनोस्पोरा क्युबेन्सिस नामक फफूँदी के कारण होता है। रोगग्रस्त पौधों की पत्तियों के निचली सतह पर कोणाकार धब्बे बन जाते हैं जो ऊपर से पीले या लाल भूरे रंग के होते हैं। इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर मिश्रण तैयार कर 250 मिली. को पम्प द्वारा फसल में  छिड़काव करना चाहिए। (iii) एंथ्रेक्नोज - यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है। इस रोग के कारण पत्तियों और फलों पर लाल काले धब्बे बन जाते हैं, ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं। यह रोग बीज द्वारा फैलता है।

खरपतवार नियंत्रण

फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं जो भूमि से नमी, पोषक तत्व, स्थान, धूप, आदि के लिए पौधों से प्रतिस्पर्धा करते हैं जिसके कारण पौधों के विकास, बढ़वार और उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए 2 - 3 बार निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए।

सहायक मशीनें

मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा, दराँती।