अजमोद की खेती

अजमोद धनिये की तरह दिखाई देने वाली एक विदेशी जड़ी बूटी है जिसका हिंदी नाम अजमोद है। आजकल भारतीय रसोई में भी इसका उपयोग होने लगा है।अजमोद की फूली हुई जड़ें सब्जी बनाने में उपयोग की जाती हैं।अजमोद एक शीतोष्ण जलवायु की फसल है इसलिए इसको ठंडी व अधिक आर्द्रता वाले मौसम की आवश्यकता होती है। वानस्पतिक वृध्दि के समय समान रूप से वितरित अधिक वर्षा की आवश्यकता होती है। अंकुरण के लिए तापक्रम 8-15डिग्री सेंटीग्रेडतापक्रम अच्छी पैदावार के लिए उपयुक्त रहता है।


अजमोद

अजमोद उगाने वाले क्षेत्र

भारत वर्ष में इसका पौधा प्राय सभी प्रदेशों में होता है। बंगाल, बिहार इत्यादि में इसकी खेती की जाती है।

अजमोद की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

विटामिन्स व पोषक तत्वों युक्त स्वास्थ्य के लिए लाभदायक फसल है। अजमोद के नियमित सेवन का स्वाद बढ़ाने में किया जाता है।अजमोदके नियमित सेवन से रक्त दाब नियंत्रित रहता है। इसके पत्तों से तैयार किया गया तेल बालों को झड़ने से रोकने में प्रभावी रहता है।अजमोद फेफड़ों, लीवर, पेंट ब्लैडर के लिए अच्छा रहता है।

बोने की विधि

बीज बुवाई के 45 से 60 दिन पश्चात जब पौधे पर 5-6 पत्तियाँ आ जायें तब अच्छी तरह से तैयार मुख्य खेत में 45x15 सेमी की दूरी से रोपाई कर देवें। रोपाई एक सम्मान सीधी व समतल क्यारियों में करें।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मृदा जिसमें कार्बनिक पदार्थ भरपूर हो अजमोद की खेती के लिए उपयुक्त रहती है।

बीज की किस्में

अजमोद के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

अजमोद की वैसे तो ज्यादा व्यावसायिक किस्में प्रचलित नहीं है लेकिन कुछ विदेशी संकर किस्मो के मुख्य रूप हैं - हेम्बर्ग - यह मुख्य रूप से जड़ों के उत्पादन के हिसाब से बेहतर किस्म है। इसकी जड़े शलजम के आकार की होती हैं। पार्सलेपेट्रा - यह मुख्य रूप से पत्तियों के लिए उगाई जाती है। यह बुवाई के 75 दिन में परिपक्व हो जाती है। इसमें अधिक मात्रा में शुष्क पदार्थ पाया जाता है और यह बोल्टिंग प्रतिरोधी किस्म है।

बीज की जानकारी

अजमोद की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 800-1,000 ग्राम बीज पर्याप्त रहता है।

बीज कहाँ से लिया जाये?

अजमोद के बीज किसी विश्वसनीय स्थान से  खरीदना चाहिए।

उर्वरक की जानकारी

अजमोद की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

अधिक व अच्छी गुणवत्ता के उत्पादन के लिए अजमोद की बुवाई से पूर्व 15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद भूमि में अच्छी तरह से मिलाना चाहिए। इसके साथ 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 80 किलोग्राम पोटाश भी देना चाहिए। नाइट्रोजन व पोटाश की मात्रा 3 बराबर भाग में बांटकर रोपाई के 25, 45 तथा 60 दिन की अवधि में देना चाहिए।

जलवायु और सिंचाई

अजमोद की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

अजमोद की अच्छी वृध्दि व विकास के लिए लगातार हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। उर्वरक देने के तुरंत बाद सिंचाई की आवश्यकता होती है।

रोग एवं उपचार

अजमोद की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

सामान्यत: अजमोद में लीफ माइनर, एफिड, थ्रिप्स, अजमोद की सूंडी आदि कीट नुकसान पहुंचाते हैं। इनके नियंत्रण के लिए डाईमिथोएट 30 % EC 0.2 प्रतिशत के छिड़काव सप्ताहिक अंतराल में करने चाहिए। इसके अलावा फेनवरलेट 0.2 प्रतिशत का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल में करना उचित रहता है। पछेती झुलसा - इस रोग में पौधे पर हल्के भूरे-पीले छल्लादार धब्बे बन जाते हैं जो बाद में काले पड़ जाते हैं और सम्पूर्ण पौधे को अपनी चपेट में ले लेते हैं। नियंत्रण के लिए डाइथेन Z - 78 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर 2 सप्ताह के अन्तराल में छिड़काव करना उचित रहता है। प्रभावी नियंत्रण के लिए प्रतरोधी किस्मे उगाना चाहिए। आर्द्रगलन - यह रोग मुख्य रूप से पौधशाला में नजर आता है। भूमि के पास वाला तने का भाग ढीला व जलयुक्त हो जाता है। तने का आधार सड़न के साथ गिर जाता है और पौधा मर जाता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु ब्रेसीकॉल 4 ग्राम प्रति लीटर का छिड़काव व मृदा उपचार फार्मेल्डिहाइड से 10 सेमी की गहराई तक करना चाहिए। जीवाणु जनित पत्ती धब्बा रोग - इस रोग में पत्तियों पर गोल लाल धब्बे बन जाते हैं व पत्तियों के किनारे हल्के हरे रहते हैं। इस प्रकार के लक्षण गर्म आर्द्र मौसम में दिखाई देते हैं। इस रोग के नियंत्रण हेतु डाइथेन Z-78 का 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

पौधों में वृद्धि होने पर पहले बड़े पत्ते जो बाहर को फैले हुए हो उन्हें परिपक्व होने होने से पहले ही तेज चाकू या कैंची से काट देना चाहिए। साथ ही खरपतवार जैसे- घास, मोथा, व शरद ऋतु के जंगली पौधे को खेत से बाहर निकाल देना चाहिए और पौधों की जड़ के पास मिट्‌टी भी चढ़ा दे।

सहायक मशीनें

हैरों, कल्टीवेटर, खुर्पी, फावड़ा, दरांती आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।