आड़ू की खेती

आडू एक उच्च पोषक गुणवत्ता वाला शीतोष्ण फल है। आडू सभी शीतोष्ण फलों में से सबसे कम प्रशीतन आवश्यकता वाला फल है। अतः इसे पर्वतीय क्षेत्रों के साथ-साथ मैदानों में भी सफलतापूर्वक उगाते हैं। फल का उपभोग मुख्यतः ताजे फल के रूप में करते हैं। इनसे स्क्वैश व जैम बनाते हैं तथा कुछ किस्मों की डिब्बाबंदी करते हैं।


आड़ू

आड़ू उगाने वाले क्षेत्र

आडू शीतोष्ण जलवायु की प्रमुख फसल है। भारत में मुख्यत: उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर की ऊँची घाटियों एवं उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसका सफलतापूर्वक उत्पादन किया जाता है

आड़ू की स्वास्थ्य एवं पौष्टिक गुणवत्ता

आड़ू फल के कई स्वास्थ्य लाभ हैं। यह मिनरल और विटामिन से समृद्ध होता है। साथ ही आड़ू में फाइटोकेमिकल्स, डाइटरी फाइबर और पॉलीफेनोल की भी भरपूर मात्रा होती है। ये सभी स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं  इनके अलावा, आड़ू में एंटीकैंसर, एंटी-एलर्जिक, एंटीट्यूमर, एंटीबैक्टीरियल, एंटीमाइक्रोबियल और एंटी-इंफ्लेमेटरी प्रभाव होते हैं। इनकी वजह से आड़ू स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर डालने और बीमारी से बचाव कर सकता है

बोने की विधि

वृक्ष लगाने के लिए आड़ू के बीज 5 सैं.मी. गहरे और 12-16 सैं.मी. पौधे के बीच का फासला रखें| बिजाई के लिए 6.5x6.5 मीटर फासले पर वर्गाकार विधि का प्रयोग करें|

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट या बलुवार दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम रहती है। मिट्टी का पीएच मान 5.8 से 6.8 अच्छा रहता है। आडू हल्की ढलान वाले स्थानों पर अच्छी तरह उगता है।

बीज की किस्में

आड़ू के लिए कौन कौन सी किस्मों के बीज आते हैं ?

बिजाई के लिए 6.5x6.5 मीटर फासले पर वर्गाकार विधि का प्रयोग करें|

बीज की जानकारी

आड़ू की फसल में बीज की कितनी आवश्यकता होती है ?

प्रजनन के लिए कलम लगाने वाली विधि का प्रयोग करें|आड़ू को भारी और लगातार कांट-छांट की जरूरत होती है|आड़ू का नया पौधा लगाने के लिए इसका कद 35 इंच होना चाहिए|बिजाई के लिए शुरू में कलम लगाने की विधि का प्रयोग किया जाता है और फिर मुख्य खेत में रोपाई की जाती है|  

बीज कहाँ से लिया जाये?

टी-बडिंग मई के पहले हफ्ते में पूरी हो जाती है| टी-बडिंग से तैयार किया हुआ पौधा दिसंबर-जनवरी महीने तक मुख्य खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाता है| रूट स्टॉक को बढ़ाना: रूट स्टॉक बढ़ाने के लिए, जंगली आड़ू को बीज के माध्यम से प्रचारित किया जाता है। स्तरीकरण के लिए बीजों को लगभग 10-12 सप्ताह तक नम रेत में रखा जाता है। बीजों को थियोरिया (5 ग्राम/लीटर पानी), जीए3 (200 मिलीग्राम/लीटर पानी) या आईबीए (100 मिलीग्राम/लीटर पानी) के साथ बुवाई से पहले उपचार करके अंकुर के अंकुरण और शक्ति में सुधार किया जा सकता है। बीजों को अक्टूबर-नवंबर के महीने में क्यारियों में लगभग 5 सेमी गहरा और 15 सेमी की दूरी पर एक पंक्ति से पंक्ति में 20 सेमी की दूरी पर बोया जाता है। क्यारियों को सूखी घास से ढँक दिया जाता है और उसके बाद हल्की सिंचाई की जाती है।ग्राफ्टिंग: नवंबर के महीने में जीभ ग्राफ्टिंग गुणन की व्यावसायिक विधि है। जमीनी स्तर से लगभग 15-20 सेमी ऊपर एक वर्ष पुराने रूटस्टॉक पर 4-5 सेमी की एक चिकनी तिरछी कटौती की जाती है और एक और नीचे की ओर कटौती की जाती है जो तिरछी कट के शीर्ष से लगभग 2/3 से शुरू होती है और लगभग 2 सेमी अंदर होती है। लंबाई। इसने स्टॉक पर एक जीभ जैसी संरचना बनाई। इसी तरह का कट स्कोन के निचले हिस्से पर भी बनाया जाता है जो रूटस्टॉक पर दिए गए कट से बिल्कुल मेल खाता है। २०-२५ सेंटीमीटर लंबाई वाले स्कोन को पिछले सीजन की वृद्धि की २-३ कलियों के साथ रूटस्टॉक के साथ हल्के से फिट किया जाता है और पॉलीथिन स्ट्रिप्स से बांध दिया जाता है। संघ 30-45 दिनों के भीतर पूरा हुआ और उसके बाद कमरबंद से बचने के लिए पॉलिथीन की पट्टी भी हटा दी जाती है।

उर्वरक की जानकारी

आड़ू की खेती में उर्वरक की कितनी आवश्यकता होती है ?

गोबर की खाद फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा दिसंबर-जनवरी में तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा जनवरी में पुष्पन से पूर्व तथा आधी इसके एक माह बाद देते हैं। जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है वहां संपूर्ण नाइट्रोजन कलिका प्रस्फुटन से 15 दिन पूर्व देते हैं।

जलवायु और सिंचाई

आड़ू की खेती में सिंचाई कितनी बार करनी होती है ?

आडू उद्यानों को नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है। बसंत के बाद जैसे-जैसे मौसम गर्म होता जाता है, जल की आवश्यकता बढ़ती जाती है। अप्रैल से मई तक 7 से 10 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए, फिर अक्टूबर-नवंबर में सिंचाई करनी चाहिए।

रोग एवं उपचार

आड़ू की खेती में किन चीजों से बचाव करना होता है?

(i) आडू का पर्णकुंचन - यह टेफ्रिना डिफोरमेन्स के कारण होती है। बसंत में पत्तियों पर प्रभाव होने से वे मोटी, तुड़ी- मुड़ी दिखाई पड़ती हैं तथा गिर जाती हैं। नई पत्तियां सूजकर पीली पड़ जाती हैं। बचाव के लिए सुषुप्तावस्था में पत्तियों के प्रस्फुटन के पूर्व 0.3% कॉपर आक्सीक्लोराइड या कर्बेण्डेजिम 0.05% का छिड़काव करते हैं। (ii) चूर्णिल आसिता - यह रोग पोडोस्फेइरा ल्यूकोट्रीका कवक द्वारा होता है। वृद्धियां तथा पत्तियों पर सफेद चूर्ण की तह-सी दिखाई पड़ती हैं जिससे उनकी वृद्धि तीव्र रूप से प्रभावित होती है। बचाव व रोकथाम हेतु घुलनशील गंधक 0.3% कर्बेण्डेजिम 0.05% का छिड़काव पुष्पों के खिलने से पूर्व, पुष्पदल गिरने व दो सप्ताह बाद करते हैं। (iii) विषाणु रोग शीतोष्ण जलवायु में आडू पर विषाणुओं का आक्रमण होता है, जिससे पत्तियों पर चितकबरा पन पत्तियों का कुड़मुड़ा होना व आकार में कमी जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बचाव के लिए विषाणु मुक्त सांकुरडाली से प्राप्त पौधे लगाने चाहिए तथा संवाहक कीटों को नष्ट करने के लिए उपयुक्त कीटनाशी रसायनों का प्रयोग करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार का नियंत्रण खरपतवार नाशक रसायन के द्वारा की जाती है! रसायनिक खरपतवारनाशी उगने से पहले या उगने के बाद का प्रयोग करें जब मिट्टी में नमी हो। खरपतवार का निवारक उपचार हम फसल चक्र के द्वारा,खेत की जुताई कर,सिचाई का उचित प्रबंध कर, और पौधे का जैविक मल्चिंग कर करते हैं! इससे फसल की गुणवता कायम रहती है और फसल को कोई नुकसान नही पहुचता है! नए बाग़ों में फरवरी-मार्च में चौड़े पत्तों और घास वाले नदीन ज्यादा पैदा होते है, इसकी रोकथाम के लिए नदीनों के अंकुरण से पहले डीयूरोन 800 ग्राम से 1 किलो प्रति एकड़ और अंकुरण के बाद ग्लाइफोसेट 6 मि.ली. प्रति एकड़ को 200 लीटर पानी में मिला कर स्प्रे करें|

सहायक मशीनें

इसमें किसी खास मशीन का उपयोग नहीं होता है