परवल गर्मियों की मुख्य सब्जियों में से एक है। इसके फलों में बहुत अधिक मात्रा में पोषक-तत्वों की मात्रा होती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये महत्त्वपूर्ण है।
भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, मद्रास, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल तथा तामिलनाडु राज्यों में विस्तारपूर्वक परवल की खेती की जाती है।
इसमें विटामिन, कार्बोहाइड्रेट, तथा प्रोटीन अधिक मात्रा में पायी जाती है।
परवल लगाने के समय नर और मादा पौधों का अनुपात 1:19 होना अनिवार्य है। उपरोक्त अनुपात नहीं रहने पर उत्पादन में काफी कमी हो जाती है। खेत में कतार से कतार की दूरी 2.5 मीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 1.5 मीटर रखना चाहिए। साथ ही थल्ले, भूमि की सतह से 6 - 8 सेमी ऊँचाई पर बनाने चाहिए। एक वर्ष पुरानी लताओं से 120-150 सेमी लम्बे टुकड़े काटकर इस प्रकार मोड़ना चाहिए कि लच्छी की लम्बाई 30 सेमी हो जाये तथा 10 सेमी गहरे थालों में इस प्रकार लगाया जाए कि दोनों सिरे ऊपर से खुले हो।
इसकी खेती के लिए बलुई दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। जल-निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
हिल्ली, डंडाली, राजेन्द्र परवल-1, राजेन्द्र परवल-2, स्वर्ण रेखा, स्वर्ण अलौकिक, निमियां, सफेदा, सोनपुरा, संतोखबा, तिरकोलबा, गुथलिया इत्यादि की खेती विशेष रूप से होती है।
2500 - 3000 लताएँ (बेलें) या लच्चियाँ लच्छीयाँ/कटिंग्स/हेक्टेयर की आवश्यकता होती है।
परवल का बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
परवल की खेती के लिए 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद खेत तैयारी के समय आख़िरी जुताई में अच्छी तरह मिला देना चाहिए| इसके साथ ही 90 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए| नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा गड्ढो या नलियो में खेत तैयारी के समय देना चाहिए| तथा नत्रजन की आधी मात्रा फूल आने की अवस्था में देना चाहिए| इसके बाद भी दूसरे एवं तीसरे साल भी सड़ी गोबर की खाद प्रति वर्ष खड़ी फसल में फल आने की अवस्था पर देना चाहिए| अच्छी पैदावार के लिए आवश्यकतानुसार नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश का मिश्रण भी प्रयोग करना चाहिय|
पौधों को लगाने के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए तथा गर्मी के मौसम में फसल को 4-5 दिन के अन्तराल से (नमी के अनुसार) सिंचाई करते रहना चाहिए तथा वर्षा ऋतु में आवश्यकतानुसार पानी देना चाहिए
01.चूर्णिल आसिता रोग - पौधे के सभी हरे भागों पर सफेद पाउडर दिखाई पड़ता है। बाद में पत्तियाँ सूख जाती हैं तथा पौधों की वृद्धि रुक जाती है। नम मौसम में रोग तेजी से फैलता है। इसके नियंत्रण के लिए खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। सल्फेक्स की 2.5 किलोग्राम मात्रा को या कैराथेन की 1 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 02. मृदुरोमिल आसिता रोग - इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के धब्बे बनते हैं। इन धब्बों को ठीक नीचे पत्ती की निचली सतह पर धूल रंग के फफूंद के जाल दिखाई पड़ते हैं। पत्तियाँ मर जाती हैं और पौधों को बढ़वार रुक जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए इंडोफिल एम-45 की 2 किलोग्राम मात्रा को 1,000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 03. फल सड़न रोग - यह रोग खेत तथा भंडारण में कहीं भी लग सकता है। फलों पर गीले गहरे रंग के धब्बे बनते हैं, ये धब्बे बढ़कर फल को सड़ा देते हैं तथा इन सड़े फलों से बदबू आने लगती है जो फल जमीन से सटे होते हैं, वे ज्यादा रोगी होते हैं। सड़े फल पर रुई जैसा कवक दिखाई पड़ता है। इसके नियंत्रण के लिए फलों को जमीन के सम्पर्क में नहीं आने देना चाहिए। इसके लिए जमीन पर पुआल या सरकंडा को बिछा देना चाहिए। इंडोफिल एम-45 की 2 किलोग्राम मात्रा को 1,000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
रोपनी के बाद और फल लगने के समय तक 4 - 5 बार निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए ताकि लताओं की शाकीय वृद्धि तेजी से हो। लताओं के बढ़ जाने पर इसकी अनावश्यक वृद्धि को रोकने के लिए बार - बार लताओं को हाथ से उलटते-पलटते रहना चाहिए। ऐसा करने से गांठों से जड़ें निकलकर जमीन में प्रवेश नहीं कर पाती है और फलन अधिक होता है।
मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी, कुदाल, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।