उड़द की फसल एक दलहनी फसल है तथा इसके दाने में लगभग 25% प्रोटीन, 60% कार्बोहाइड्रेट, 11% वसा तथा शेष अन्य पोषक तत्व पाए जाते हैं। उड़द को दाल, इमरती, इडली, डोसा, आदि व्यंजनों के रूप में खाया जाता है। पशुओं को इसके दाने का छिलका तथा भूसा खिलाया जाता है। उड़द की फसल के लिए गर्म और नम जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। उत्तर प्रदेश में उड़द की फसल मुख्य रूप से खरीफ की फसल में उगाई जाती है। परंतु आजकल उड़द को जायद की फसल में भी उगाया जाता है। इसकी फसल की उचित वृद्धि के लिए 25 - 30 डिग्री का तापमान उपयुक्त रहता है।
भारतवर्ष में इसकी खेती मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब कर्नाटक आदि प्रदेशों में की जाती है
कोलेस्ट्रॉल घटाने के अलावा काली उड़द स्वास्थ्य वर्धक भी होती है। यह मैगनीशियम और फोलेट लेवल को बढा कर धमनियों को ब्लॉक होने से बचाती है। मैगनीशियम, दिल का स्वास्थ्य बढाती है क्योंकि यह ब्लड सर्कुलेशन को बढावा देती है।
उड़द की फसल को हल के पीछे कूंडों में बोना चाहिए। खरीफ की फसल में एक कूंड से दूसरे कूंड का अंतर 40-45 सेमी तथा जायद की फसल में 20-25 सेमी रखना चाहिए।
उड़द की फसल के लिए दोमट भूमि उपयुक्त होती है। वैसे सभी प्रकार की भूमियों में इसकी खेती की जा सकती है। पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के पश्चात 3-4 जुताई देशी हल या हैरों से करके पाटा लगा देना चाहिए।
(i) टाइप 9 - यह ज़ैद तथा खरीफ के लिए उपयुक्त मानी जाती है। यह जल्दी पकने वाली जाति है जो खरीफ की फसल में 90 से 95 दिन में तथा जायद की फसल में 80 से 85 दिन में पक जाती है। इसकी पैदावार लगभग 10 से 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। (ii) पंत उड़द 19 - इस जाति की उड़द जायद और खरीफ की फसलों में उगाई जाती है। इसकी उपज 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। यह 80 से 85 दिन में पककर तैयार हो जाती है। यह जाति पीला मौजेक रोग की प्रतिरोधक क्षमता रखती है।
खरीफ की फसल के लिए 12 से 16 किग्रा/है., तथा जायद की फसल में 22 से 25 किग्रा/है. बीज की मात्रा पर्याप्त होती है।
बीज किसी विश्वसनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए।
उड़द की फसल में गोबर की खाद फसल बोने से 1 माह पूर्व जुताई के समय देनी चाहिए जिससे वह मिट्टी में मिल कर अच्छी प्रकार सड़ जाए। उड़द की फसल के लिए 20 किग्रा नाइट्रोजन, 45 किग्रा फास्फोरस तथा 30 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होती है। उर्वरकों को फसल की बुवाई के समय बीज की पंक्ति वाले कूंडे से 5 सेमी की दूरी पर बीज से 5 सेमी गहराई पर डालना चाहिए।
खरीफ की फसल में अधिकतर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। यदि बरसात न हो और फसल मुरझाने लगे तो फसल में सिंचाई कर देनी चाहिए। अधिक वर्षा होने पर खेत से जल की निकासी कर देनी चाहिए तथा जायद की फसल में 10 से 12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
(i) पीला मौजेक (Yellow mosaic) - यह रोग एक वायरस के द्वारा फैलता है। यह वायरस सफेद मक्खी से एक पौधे से दूसरे पौधे पर फैलता है। इस रोग में पहले पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे बनते हैं और अंत में पत्ती पीली होकर सूख जाती है। इस रोग के उपचार हेतु मेटासिस्टॉक्स 0.1% के घोल का फसल पर कई बार छिड़काव करना चाहिए। (ii) चारकोल विगलन - यह रोग फफूंदी द्वारा उत्पन्न होता है। इसमें पौधे की जड़े तथा तना सड़ जाता है। इस रोग से फसल के बचाव हेतु उड़द की फसल को ज्वार, बाजरा जैसी फसलों के साथ मिलाकर उगाना चाहिए तथा बीज को बोने से पहले 0.25% ब्रेसीकाल से उपचारित करके बोना चाहिए। (iii) एन्थ्रेक्नोज - यह रोग फफूंदी से फैलता है। इस रोग के कारण पत्तियों तथा फलियों पर भूरे रंग के गोल धब्बे पड़ते है जो बाद में गहरे रंग के हो जाते हैं। इस रोग से बचाव हेतु फसल पर डाइथेन एम-45 के 0.25% घोल का छिड़काव करना चाहिए।
खरपतवारों के नियंत्रण हेतु उड़द की फसल में बुवाई के 20 से 25 दिन बाद खुरपी से निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद दूसरी निराई-गुड़ाई भी खुरपी से कर देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त खरपतवार के नियंत्रण हेतु बुवाई के पूर्व 2 किग्रा बेसालीन को 8,000 ली. जल में घोलकर एक हेक्टेयर भूमि पर छिड़ककर हैरो से जुताई कर देनी चाहिए। ऐसा करने से खेत में खरपतवार नहीं उगते।
मिट्टी पलट हल, देशी हल या हैरों, खुर्पी, दराँती, आदि यंत्रो की आवश्यकता पड़ती है।