हमारे देश में करेले की खेती काफी समय से होती आ रही है। इसका ग्रीष्मकालीन सब्जियों में महत्वपूर्ण स्थान है। पौष्टिकता एवं अपने औषधीय गुणों के कारण यह काफी लोकप्रिय है। मधुमेह के रोगियों के लिये करेले की सब्जी का सेवन लाभदायक रहता है। इसके फलों से सब्जी बनाई जाती है। इसके छोटे-छोटे टुकड़े करके धूप में सुखाकर रख लिया जाता है, जिनका बाद में बेमौसम की सब्जी के रूप में भी उपयोग किया जाता है।
भारत में छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा करेला के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
करेले का सबसे प्रसिद्ध लाभ मधुमेह के प्रबंधन, बवासीर के प्रभाव को कम करने, श्वसन स्वास्थ्य में सुधार, और त्वचा के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करने की क्षमता रखता है। यह प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करती है, और कैंसर के लक्षणों को रोकने में भी मदद करती है।
इसकी बिजाई के लिए फरवरी से मार्च, जून से जुलाई और नवंबर से दिसंबर का समय उपयुक्त होता है। 1.5 मीटर चौड़े बैड के दोनों ओर बीजों को बोयें और पौधे से पौधे में 45 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें।
पहली जुताई मिट्टी पलट हल से करने के बाद 2-3 जुताई देशी हल या हैरों से करके पाटा लगा देना चाहिए।
(i) कोयम्बटूर लोग:- यह दक्षिण भारत की किस्म है। इस किस्म के पौधे अधिक फैलाव लिए होते हैं। इसमें फल अधिक संख्या में लगते हैं तथा फल का औसत वजन 70 ग्राम होता है। इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक आती है।(ii) कल्याणपुर बारहमासी:- इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविध्यालय द्वारा किया गया है| इस किस्म के फल आकर्षक एंव गहरे हरे रंग के होते हैं। इसे गर्मी एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है, अर्थात ये किस्म वर्ष भर उत्पादन दे सकती है। इसकी उपज 60-65 क्विंटल प्रति एकड़ तक आती है। (iii) हिसार सेलेक्शन - इस किस्म को पंजाब, हरियाणा में काफी लोकप्रियता हासिल है। वहां की जलवायु में इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त होती है। (iv) अर्का हरित- इसमें फलों के अन्दर बीज बहुत कम होते हैं। यह किस्म गर्मी एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में अच्छा उत्पादन देती है। (v) पूशा विशेष:- यह किस्म बीज बुवाई के 55 दिन बाद फल देना प्रारम्भ कर देती है। इस किस्म के फल मध्यम, लम्बे, मोटे व हरे रंग के होते हैं। इसका गूदा मोटा होता है। फल का औसत भार 100 ग्राम तक होता है।
5-7 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। एक स्थान पर 2-3 बीज 2.5 - 5 मिलीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए। बीज को बोने से पूर्व 24 घंटे तक पानी में भिगो लेना चाहिए। इससे अंकुरण जल्दी, अच्छा होता है।
करेला के बीज किसी विश्वसनीय स्थान या कृषि विज्ञान केंद्र से ख़रीदारी करे।
करेले की फसल में अच्छी पैदावार लेने के लिए उसमे आर्गनिक खाद, कम्पोस्ट खाद का होना अनिवार्य है। इसके लिए एक हेक्टेयर भूमि में लगभग 40-50 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से गली, सड़ी हुई खाद, 50 किलो ग्राम नीम की खली को अच्छी तरह से मिलाकर मिश्रण तैयार कर खेत में बोने से पूर्व इस मिश्रण को समान मात्रा में बिखेर देना चाहिए। इसके बाद खेत की अच्छे तरीके से जुताई कर, खेत तैयार कर बुवाई करना चाहिए।
करेला की फसल में सिंचाई काफी महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है, अतः समय-समय पर सिंचाई अवश्य करते रहना चाहिए।
(i) पाउडरी मिल्ड्यू रोग - यह रोग करेले पर एरीसाइफी सिकोरेसिएटम की वजह से होता है। इस कवक की वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफ़ेद गोलाकार जाल फैल जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं | इस रोग में पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं। इस रोग से करेले की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ में 2 लीटर गौमूत्र तथा 40 लीटर पानी मिलाकर, इस घोल का छिड़काव करते रहना चाहिए। प्रति सप्ताह एक छिड़काव के हिसाब से लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेले की फसल पूरी तरह सुरक्षित रहती है। (ii) एंथ्रेक्वनोज रोग - करेला फसल में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है | फलस्वरुप पौधे का विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता। रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते व 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर लें, 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से चला जाता है।
करेले की फसल ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में उगाई जाती है, जिस वजह से खरपतवार अधिक संख्या में उग जाते हैं। अत: इनको समय-समय पर खेत से निकालना बहुत जरुरी है। इसी प्रकार खेत की नियमित अन्तराल पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए, ताकि फसल पर फल-फूल अधिक से अधिक संख्या में आएं।
मिट्टी पलट हल, देशी हल, कुदाल, खुरपी, फावड़ा, आदि यंत्रों की आवश्यकता होती है।